भिन्डी की भुजिया

सुरम्य वादियों के बीच बसा अकेला घर,चारों ओर से नारंगी ,नीबू, अखरोट, आड़ू, खुबानी ,नाशपाती , अंजीर,,बेडू आदि कई तरह के पहाड़ी फलदार वृक्ष अपनी खूबसूरत छटा से हमारे आवास की सुंदरता में चार चाँद लगा दिया करते।घने वृक्षों पर कई तरह के सुन्दर -सुन्दर पक्षियों के घोंसले और उनमें से गर्दन उठा ,चोंच खोलकर चहचहाते बच्चे बरबस ही मन्त्रमुग्ध कर जाते।

गोधूलि बेला निकट थी,भगवान भास्कर अपनी रश्मियों को समेटे पश्चिम दिशा को लालिमा देते हुए अति मनोरम दृश्य के साथ अस्ताचलगामी होने ही जा रहे थे तभी याद आया कि माँ ने भुजिया के लिए खेत से भिण्डी तोड़ लाने के लिए कहा है।सच!बचपन भी कितना अल्हड़ होता है,माँ जो काम सौंपती थी उसे पूरा करने से पहले कभी चिड़िया के बच्चों को निहारने में लग जाता तो कभी पँचपथरी खेलने में.. फिर अचानक से माँ की आवाज़ सुनाई देने पर ही दिया गया कार्य सम्पन्न हो पाता। आज भी वही हुआ,मैं और छोटी बहन आशा जल्दी से खेत की ओर लपके।बड़ा सा खेत हरी- भरी भिंडियों से सजा हुआ था। जैसे ही अपने से ऊँचे भिंडी के पौधे पर लगी सुकोमल भिण्डी को हाथ लगाया ही था कि मेरी प्यारी नन्हीं गुड़िया आशा ज़ोर से चिल्लाने की कोशिश की लेकिन डर के मारे उसकी आवाज़.. "दीदी बाππππππ..."पर ही अटक गई। भिण्डी तक पहुँचा मेरा हाथ बिजली के करेंट लगने जैसा वहीं अटक गया और नज़रों के सामने जो नज़ारा था उसने पूरे ही शरीर को जड़वत कर दिया।हमारे ठीक सामने बाघ-बाघिन और उनके दो नन्हें शावक आराम से अपने परिवार की क्रीड़ा का आनन्द ले रहे थे।

 

हाथ तो पौधे से चिपका ही रहा लेकिन हाथ की डलिया जो भिन्डी रखने के लिए लाई गई थी नीचे छूट गई।शायद बाघ महराज को हम दोनों की मासूमियत पर दया आगई ।कुछ सांकेतिक भाव से उसने बाघिन की ओर देखा और अपने दोनों शावकों को लेकर खेत की मेंड़ को पार करते हुए नीचे के खेत की ओर चल दिये।उस दिन की भिण्डी की भुजिया हमेशा के लिए यादगार बन गई।आज भी जब कभी भिण्डी दिखाई पड़ती है तो बचपन का वह अद्भुत दृश्य स्मृति पटल पर उभर आता है।