चलो....












चल, रो लेते हैं कुछ देर

सिसक लेते हैं

मन में भरे गुब्बार को

आज धो देते हैं



ऐसी भी क्या गलती है

ऐसा भी क्या गुनाह है

जो पसीजने न दे दिल को

वो दीवार ढहा देते हैं



ये ज़रूरी तो नहीं

सब भुला लिया ही जाय

कुछ खास ज़ख़्मों को

हरा कर लेते हैं



ज़िन्दगी!

यों आपा-धापी में

मशगूल मत रह

आ, रिश्तों की तहों को

फिर से सहेज लेते हैं



ये भयावह ख़ामोशियाँ

ये उदास तन्हाइयाँ

अब सही नहीं जाती

इन बीरान बस्तियों में

हंगामा कर लेते हैं



चल, दरीचे खोल आयें

तमाम बन्द मुहानो के

ताकि खुशियाँ लौट आयें

रूठना-मानना कर लेते हैं