मीडिया फंडिंग और वहाबीयत

वहाबीवाद सऊदी शासक वर्ग का फलसफा है, जिसके इर्दगिर्द उसकी सियासत घूमती है। ... और सियासत में मीडिया फंडिंग।

प्रतिद्वंद्वतावादी, आक्रामक, हिंसक वहाबी एक तरफ और हिंसक कम्युनिस्ट दूसरी तरफ। अलग अलग मिजाज के बावजूद साझीदारी। आजकल प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ये साझेदार अपने पक्ष में अनुकूलता के लिए फंडिंग कर रहे हैं। इस प्रकार की फंडिंग के तार सऊदी अरब, पाकिस्तान, चीन, पश्चिमी देशों के वामपंथी से संयुक्त रूप से जुड़े हैं।

अरफा खानुम शेरवानी ऐसी ही फंडिंग की उपज हैं। सुबह उठते ही दो काम करती हैं- एक, हिन्दू को गाली देना और दूसरा, इस्लामफोबिया का शोर मचाना। इसी के तो मिलते हैं पैसे।

जब सूफी मुसलमानों ने 'वर्ल्ड सूफी फोरम' में भारत के प्रधानमंत्री मोदी को मंच या प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया तो वहाबी तंजीमों के लिए खतरे की घण्टी था।

1970 के बाद से ही कट्टरपंथी इस्लाम यानी वहाबियत के निर्यात का विषय उभर कर आया था। विदेश नीति के तौर पर सऊदी अरब हकूमत के ये मुख्य क्रिया कलाप  थे। इससे शाही तानाशाह के तख्त को  जायज़ साबित करने में मदद मिलती है। भारत के देवबंदी और अहले-हदीस उप-संप्रदायों से वहाबियों को आंतरिक प्रतिरोध झेलना पड़ रहा है। इससे वहाबियों का हिन्दू व मुस्लिम के बीच की खाई बड़ी करने वाला लक्ष्य पूरा नही हो रहा है। मीडिया में फंडिंग सर साधारण मुस्लिम के मन-मस्तिष्क को काबू करने की कोशिश हैं वहाबी। मीडिया फंडिंग का मुख्य लक्ष्य सभी मुसलमानों को वहाबी झंडे के नीचे लाना ही है।

एक शोधकर्ता योगिन्दर सिकंद ने सन 2005 में अपने प्रकाशित पेपर में लिखा है-

"Its claim of representing Islamic ‘orthodoxy’ is the Saudi regime’s principal tool in seeking ideological legitimacy."

सऊदी अरब स्वयं को विश्व का सच्चे अर्थों में एकमात्र इस्लामिक राज्य कहलाने पर गर्व करता है। हालांकि इस दावे को अमान्य करार देने वाले बड़े मुस्लिम है दुनिया में।  आधिकारिक सऊदी इस्लाम या विरोधियों द्वारा वहाबीवाद के रूप में संबोधित ....दरअसल 18 वीं सदी के कट्टरपंथी मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब का फलसफा है। जोकि मुहम्मद इब्न सऊद के साथ संयुक्त रूप से सऊदी राज के संस्थापक थे। 

पूरी दुनिया के मुसलमानों में वहाबी इस्लाम के निर्यात का काम 1970 के बाद शुरू हुआ। जिससे स्थानीय मुस्लिम तबकों की प्रतिकूल प्रतिक्रिया होने की सम्भावनाएं रहती थी। गैर मुस्लिमों के निशाने पर भी सऊदी अरब आने लगा था। सबसे बड़े पैन-इस्लामिक चेहरे के रूप में स्वीकृति हासिल करना सऊदी अरब की सामरिक आवश्यकता थी, इस उनकी सरकार मानती रही है। यही से मीडिया फंडिंग (सियासी व मज़हबी फंडिंग के अतिरिक्त) की कहानी शुरू हुई। मीडिया को फंडिंग के साथ इन विषयों पर नैरेटिव दिया जाता है-

1. सऊदी अरब मुसलमानों का एकमात्र आध्यात्मिक केंद्र है।

2. सऊदी शाही सरकार मुसलमानों का एकमात्र शक्ति केंद्र है।

3. सभी मुस्लिम तंजीमों के सशक्त होने का रास्ता सऊदी अरब से होकर जाता है।

4. हर देश के गैर मुस्लिम जुल्म करते है। वे मुसलमानों को प्रताड़ित करते है। मुसलमान 'विक्टिम' हैं।

5. वे देश जहाँ  का शासन गैर मुसलमानों के हाथ में है ...यानी दारुल हरब है ... वहाँ की सरकार मुसलमानों पर अत्याचार कर रही है।

6. इस्लामफोबिया का शोर मचाना है। 

7. अमरीका सहित अन्य पश्चिमी देशों और चीन के विरुद्ध ज़रा हाथ हल्का रखना है।

8. भारत के विरुद्ध विशेष अभियान चलाना है। वहाँ के सारे मुस्लिम फिरकों को कमज़ोर करना है। वहाबियत को मजबूती से स्थापित करना है।

9. मुस्लिम जगत में ईरान सबसे बड़ा खलनायक है। वह एक झूठा इस्लाम (शिइज़्म) लेकर आया है। सऊदी अरब सहित सभी मुस्लिम देशों के लिए खतरा है।

10. एक दिन पूरी दुनिया के गैर मुस्लिमों के विरुद्ध संघर्ष में असली मुसलमान जीतेंगे। पूरे विश्व पर इस्लाम का राज होगा।

इन्ही कहानियों की ठेकेदारी विभिन्न देशों के विभिन्न पत्रकारों को दी जाती है। मीडिया फंडिंग से अरफा खानम शेरवानी सरीखे किरदार जन्म लेते हैं। मीडिया संस्थानों तक को फंडिंग होती है। हर देश में सऊदी दूतावास को इसी काम में लगाया जाता है।

यह ग्लोबल वहाबियत के प्रसार के लिए आवश्यक है। वहाबियत को एकमात्र, विश्वसनीय इस्लामिक नैरेटिव है, यह पत्रकारो को घोटकर पिलाया जाता है। यह वहाबीवाद का आंतरिक गुणधर्म है कि वह स्वयं को दूसरों पर लादे या इस्लाम समझने के अन्य माध्यमों व मज़हबी फिरकों के   तरीकों को स्वयं से बदल दे। 

भारत 150 मिलियन मुसलमानों का घर है। इसलिए  भारत जैसा देश सऊदी अरब के वहाबी प्रोपगेंडा के निशाने पर है। प्रोपगेंडा का बड़ा भाग है मीडिया। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, सोशल मीडिया सभी जगह अपने गुर्गे तैनात करना सऊदी रणनीति है।