राम कथा के प्रेरक सूत्र


 
विराट रूप भगवान का, है पूरा संसार।
नर- नारायण भावना, यही भक्ति का सार।।
दोनों नयनों से सदा,दिखती प्रकृति ललाम।
तृतीय नयन विवेक से,मन बनता निष्काम।।
मात्र भरण पोषण नहीं, बच्चों का अधिकार।
सर्वांगीण विकास हो,संचित सद् संस्कार।।
कुमति मन्थरा मारती बड़े-बड़ों की बुद्धि।
दूर रहें इससे सदा,यदि पानी है सिद्धि।।
उचित समय पर जो कहे,कहलाता धीमान।
दिशा-विदिशा हर काल में,विद्यमान भगवान।।
अनन्य निष्ठा का सदा एकमेव संकल्प।
नहीं खोजती है कभी,दूजा सहज विकल्प।।
कर में जिनके काम है,मुख में जिनके राम।
सच्चे साधक हैं वही,सादर उन्हें प्रणाम।।
बढ़ती है जब दुष्टता,होते जन भयभीत।
अनैतिकता की बाढ़ में, नैतिकता विपरीत।।
है समाज का हित सदा,योग्य व्यक्ति के साथ।
सत्ता का अधिकार दो,सही व्यक्ति के हाथ।।
डूबा रहता स्वार्थ में,सदा कुटिल संसार।
निस्वार्थ भक्त भगवान का,सरल प्रेम व्यवहार।।
जिन भोगों की चाह में, सारा जग अनुरक्त।
उन्हें तृणवत त्यागते,सच्चे ज्ञानी भक्त।।
ज्ञान हरे अभिमान को,शर्म हरे मदपान।
विषय संग छोड़े बिना, साधु स्वादु बेईमान।।
अशुभ चैथ के चांद सा परनारी का अंक।
मन में कुत्सित वासना,लगता बड़ा कलंक।।
इस जग में सबसे बुरा,घातक बन्धु विरोध।
बाली,रावण मिट गए,जब हुआ न उनको बोध।।
क्या सुरूप,कुरूप क्या?भावलुब्ध भगवान।
प्रभु के प्रिय अति नर नहीं,वानर थे हनुमान।।
चार अश्व निग्रह सहित,परहित शक्ति विवेक।
रथवाह भजन संतोष असि,वैराग्य ढ़ाल की टेक।।
शौर्य धैर्य के चक्र हैं,धर्म ध्वजा का रूप।
अद््भुत रथ भगवान का, समझो देह अनूप।।
जहाॅं धर्म है जय सदा,जहाॅं सत्य वहाॅं आप।
हरें जानकी नाथ सदा भक्तों के सन्ताप।।
           (प्रवक्ता,रा0इ0का0 खण्डकरी,टिहरी गढ़वाल)