श्रमिक

श्रमिक हूँ मैं,श्रम से ही है अपना नाता

स्वयं धूलमिट्टी के सङ्ग रंगरलियाँ मनाता

दूजों के सुख के लिए अटारियाँ सजाता

बहाता खून पसीना इन पर फिर भी ,

गृह प्रवेश का सुख कभी न पाता।

बनाता नक्काशीदार खिड़कियों के सङ्ग दरवाज़े,

आरामदेह फर्नीचर की सजावट पर बलिबलि मैंजाता।

दूर खड़े रहकर ही बिन बैठे उनपर, नयन तृप्त कर जाता

दो जून की रोटी बीबी बच्चों को खिला अपार आनन्द मनाता

होते केवल सपने -शौक रईसी के जो न कभी पूरा कर पाता

फिर भी हँसता-खिलखिलाता न कभी आहें भरता।

सोच रहा हूँ अब गहराई से ,है दम इतना जब बाजुओं में

फिर क्यों सड़कों पर हूँ मैं मारा- मारा फिरता!

किया जिन भवनों का निर्माण इतनी शिद्दत से,

मुसीबत में उसी ने छीन निवाला मुँह का, बेघर कर डाला।

क्या दोष था इन बच्चों का जिनको सड़कों पर रहने मजबूर किया

मिली सीख लाख टके की अब न श्रम अपना व्यर्थ करूँगा,

अपने गाँव की माटी का तिलक लगा, श्रमअपना सार्थक करूँगा।

उपजाऊँगा सोना वहीं खेतों में ,शुद्ध हवा में साँस भरूँगा,

कर गौमाता की सेवा ,दूध दही मक्खन से बच्चों को तृप्त करूँगा।

रहेंगे सगे सम्बन्धी सब आसपास सुख-दुख एकदूजे का बाँटूंगा

अपने गाँव की गलियों में, होली,ईद,दीवाली ख़ूब मनाऊँगा।

दिखा दी असली तस्वीर वक्त ने ,जगमगाते इन शहरों की

जहाँ चमकते हैं चेहरे और दिल बिल्कुल खाली होते हैं।

कितना सरल है गाँव हमारा जहाँ एक आहट पर सब खड़े होतेहैं

शहरों से अलग कोई दादा कोई चाची तो कोई भाई होते हैं।

हाँ! हैं एक श्रमिक हूँ, गाँव को अपना स्वर्ग बनाऊँगा।

कितना ही मिले प्रलोभन चाहे,गाँव न अपना छोड़ूँगा,

है बाज़ुओं में दम इतना, हर ख़ुशी अब यहीं मैं ढूँढूँगा।