दादा कोंणदेव1577 - 1649) छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शाहजी के विश्वसनीय ब्राह्मण क्लार्क (कारकुन) थे। जो पूना के रहने वाले शाहजी के परिवार की देखभाल करने के लिए इनकी नियुक्ति सन् 1637 ई. में की गई थी। ये इसलिये प्रसिद्ध हैं क्योंकि इनकी देखरेख में शिवाजी का प्रशिक्षण होता था, जो आगे चलकर मराठा साम्राज्य के संस्थापक बने।
दादा कोंणदेव चकबंदी के काम में बड़े ही निपुण थे। जिस कारण पूना प्रांत की कृषि में बहुत से सुधार हुए और पूना की आबादी बढ़ी। जिसका कुछ हिस्सा लगान के रूप में लेने की पद्धति दादाजी ने सुरु की थी। उनके समय मावला लोगों की आर्थिक दशा निकृष्ट हो गई थी। जिस कारण मावला के लोगों सारा लगान माफ कर दिया था।
इन्होंने बाल शिवाजी और माता जीजाबाई के रहने के लिए पूना में एक लालमहल बनाया जिसमें बाल शिवाजी को आवश्यक सैनिक तथा धार्मिक शिक्षा दी जाती थी। दादा कोणदेव जी शिवाजी के मन में बचपन से ही हिन्दू धर्म के प्रति स्वाभिमान जगाया जिस कारण शिवाजी के पिता शाहजी ने दादाजी की सेना बढ़ाई और उनको ऊँचा अधिकारी बनाया।
शिवाजी ने सन् 1646 ई. में तोरणा किला जीतने के कारण बीजापुर के दरबार में उनके विषय में प्रतिकूल चर्चा हुई शाहजी भोंसले जी ने शिवाजी को समझाने को काम दादाजी कोंणदेव का सौंपा। दादाजी ने शिवाजी को अपने कार्यों से परावृत्त करने का प्रयत्न किया किंतु व्यर्थ हुआ स्वामिभक्त दादाजी को शिवाजी के संबंध में बड़ी चिंता हुई। इतिहासकार कहते हैं कि स्वराज स्थापना का जो कार्य छिपकर होता था उसमें भी दादाजी का हाथ था। मावल प्रदेश के देशमुख, देशपांडे आदि दंगा मचाते थे, उनको उन्होंने शांत किया और स्वराज्य स्थापना के अनुकूल बनाया। शिवापुर नामक गाँव में इन्होंने सरकारी उद्यान बनवाए। न्याय में वे अत्यंत निष्ठुर थे। यहाँ तक कि एक बार शिवाजी की आज्ञा के बिना उन्होंने आम का फल तोड़ लिया जिसके दंड स्वरूप उन्होंने अपना हाथ काट डालने का निश्चय किया किंतु शिवाजी के मना करने पर जिंदगी भर अपने कुर्ते की एक बाँह अधूरी ही रखी।
महाराज शिवाजी द्वारा की गई स्वराज्य स्थापना की नींव पक्की करनेवाले इस स्वामिभक्त की मृत्यु सन् 1649 में हुई।