यादों के सहारे


आदिकाल से ही लकड़ी मनुष्यों के मुख्य उपयोगी वस्तुओं में से एक रहा है । जीवन संघर्ष के लिए आग और पहिए से शुरू हुई खोज ने दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते करते न  जाने कितने ही आविष्कार कर डाले कहते भी हैं  आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है एक समय में जो वस्तुएं आवश्यक व अविष्कार योग्य थी समय के खेल ने ऐसा खेल खेला कि आज आधुनिकता की दौड़ में ये वस्तुएं या तो उपयोग हेतु नहीं रह गई या फिर कहीं खो गए ।


            गढ़वाल में लकड़ी व घास से बनने वाली उपयोगी वस्तुओं हेतु मुख्यतः गींठी, सांदण, बांस, खैर, साल, तिलंज, शीशम, आम जामुन ( फळेण्डा ) तुंगा, भीमल, माळु , बबला आदि पौधों का प्रयोग किया जाता है इसका कारण शायद इनका बहुलता में पाये जाने के साथ साथ इनके अपने विशिष्ट गुण होते रहे होंगे इसलिए इन पौधों का संरक्षण भी किया जाता था तथा इनमें से कुछ पौधों को तो विशेष रूप से पौधरोपण द्वारा भी उगाया जाता था । हो सकता है कुछ ऊंचाई वाले इलाकों में ठंडे इलाकों वाले वातावरण के अनुसार प्राप्त होने वाले पौधों जैसे कि बांज बुरांस व चीड़ का उपयोग किया जाता रहा हो परंतु औसत तापमान वाले क्षेत्रों में इन्हीं पौधों का प्रयोग कर दैनिक उपयोग की वस्तुओं का निर्माण किया जाता था ।


            आज जब पीछे नजर घुमाकर देखते हैं तो पता चलता है कि हमने क्या खोया और क्या पाया है हमारी संस्कृति व परंपराओं के लिहाज से भी इन वस्तुओं का अपना एक मुकाम था यह वस्तुएं तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति तो करते ही थे यह वैज्ञानिकता व सामाजिकता का भी सर्वोत्कृष्ट उदाहरण थे जहां इनको लंबे समय तक भी उपयोग करने के बाद भी इनसे कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता था फिर गींठी से बने वर्तन तो पानी वगैरह डालने से और मजबूत हो जाता था । वहीं कुछ विशेष सिद्धहस्त लोगों द्वारा इनके निर्माण से सामाजिक ताना-बाना भी मजबूत बना रहता था ।


             किसी समय में समाज का मुख्य हिस्सा रही यह वस्तुएं समय के फेर में कब लुप्त हो गए पता ही नहीं चला कल तक जो एक भरे पूरे समाज का द्योतक थे आज हम उनको भूल गये । चलिए आज हम सब उन्हें याद करते हैं ।


            ठुपरी :- ठुपरी तीन प्रकार की होती थी जिनका वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है ।


         1- छोटी ठुपरी :- बांस या भीमल के क्याड़ ( घास हटाई हुई हरी टहनी ) की बनी हुई छोटी सि गोल टोकरी जो रोटी रखने व बच्चों के फूल डालने हेतु फूलदेइ में काम आती थी ।


          2- बड़ी ठुपरी :- बीज बोने हेतु बांस या भीमल से बनी हुई गोल टोकरी होती थी लेकिन यह ठुपरी से बड़ी मध्यम आकार की होती थी ।  


          3- ठुपरा या चंदरा :- बांस या भीमल से बनी हुई बड़ी टोकरी जो आवश्यकता अनुसार गोबर व मिट्टी से लीपा हुआ  होता था का प्रयोग मुख्यतः तात्कालिक समय तक नाज रखने हेतु या गौशालाओं से खेतों तक गोबर फेंकनें का काम आता था


             सुप्प या सुप्पा :- बांस से बना हुआ नाज को फटकने छटकने व छांटने हेतु प्रयोग किया जाता था इसको गोबर या मिट्टी से लीपा जाता था । जो आवश्यकता अनुसार छोटे या बड़े होते थे ये भी माप के अनुसार बनते थे जिनमें एक से चार पाथा तक नाज आ जाता था ।


               पत्थोड़ी :- नाज रखने के लिए बांस का बना हुआ व गोबर और मिट्टी से लीपा जाता था यह लगभग तिकोने आकार का ढक्कन लगा वर्तन होता था जिसमें लगभग पन्द्रह किलो नाज रखने की क्षमता होती थी ।


      दब्ल्यू/ड्वारा/कुन्ना :- बांस से बना हुआ व गोबर मिट्टी से लीपा  हुआ एक मन या चालीस किलो तक नाज रखने के काम आने वाला तिकोना वर्तन होता था । जिसके ऊपर अलग से ढक्कन रहता था इसको गोबर मिट्टी से सीलकर अनाज सालों साल सुरक्षित रहता था । झंगोरा  कोदा जिसके ऊपर अलग से ढक्कन लगा रहता था और गोबर मिट्टी से सील कर कई वर्षों तक के लिए अनाज सुरक्षित रहता था गढ़वाल के अधिकतर हिस्सों में कोदा झंगोरा जैसे नाज के लिये इनका सर्वथा प्रयोग किया जाता था । इसके अतिरिक्त पुराने समय में लोग इनका इस्तेमाल जेवर रुपये या इसी तरह के कीमती सामानों को छुपाने के लिए भी करते थे ।


                    कंडी :- बांस से बनी हुई गोल बंद मुंह के ढक्कन वाली टोकरी होती थी जिसका प्रयोग खेतों में बीज लाने लेजाने व बोने हेतु व साथ ही साथ बेटियों के लिए चैत की रवट्टी देने हेतु की जाती थी ।


                 तुमड़ी :-  पकी हुई लौकी को कोर  कर अच्छी तरह से सुखाकर बनाया जाता था । जो तिल, गहथ, भट्ट, आदि के बीजों को अगले वर्ष खेती के लिए  रखने के काम आता था । यह गोल छोटी व लंबी होती थी ।


                 माणा :-  गींठी सांदण  बांस आदि की लकड़ी से बनाया जाता था जो आधा किलोग्राम माप के बराबर का बर्तन होता था ।


                 पाथा :- गींठी या सांदण आदि लकड़ी से बना हुआ दो किलोग्राम माप का बर्तन होता था जो शीशम आदि लकड़ियों से भी बनाया जाता था ।


                  थुळ :- बांस से बना हुआ व दोनों सिरों से खोखला नो से अठारह इंच का चूल्हे की आग को तेज करने हेतु प्रयोग किया जाता था । इसके एक सिरे से फूंक मारकर हवा को दूसरे सिरे पर बुझती आग तक पहुंचाया जाता था । जिससे आग तेजी से जल उठती थी ।


        थुळी / नाली :- मुख्यतः बांस का एक सिरा बंद वाला खोखला बर्तन होता था जो औसतन एक फ़ीट के लगभग का होता था । उत्तराखंड के पहाड़ों में भूमि की नाप इसी 'नाली' पद्धति पर आधारित है । जितने एरिया में एक नाली के बीजों को बोया जाता है उतने छेत्र को ही एक नाली भूमि कहते हैं । यह प्राय जानवरों को द्रव वाले पदार्थ पिलाने के काम भी आता था ।


                चौंठी :- गींठी आम आदि  से बनी हुई लगभग दो माण का बर्तन होता था । जिसका ब्याह शादी में बड़ा महत्व होता था । शादियों के समय इसमें तेल या घी भरकर मुंह को मालू के पत्ते से बंद कर व दाल की बनी पकौड़ियों से सजा कर पंडित जी 'साहपट्टा' के साथ कन्या के घर पहुंचते थे ।


      पर्या / पररया :-   गींठी, सांदण, जामुन ( फळेण्डा ) , आदि के पेड़ों से बनाया जाता है जिसमें दही को डाल कर 'रैइ' से बिलोया जाता है जिससे मक्खन व छाछ प्राप्त होता है । कहते हैं इसका जितना ज्यादा प्रयोग करें उतना ही ये मजबूत और टिकाऊ होता है ।


                रैइ :- सीधी लकड़ी जिसके एक सिरे पर गाय के थन के आकार की चार उंगलियां की तरह बना होता है मुख्यतः सांदण की लकड़ी से बनता  है । पररया में रैइ डालकर व लगभग मध्य में नेतण बांधकर आगे पीछे घुमाया जाता है ।रैइ को सहारा देने के लिए नेतण के ऊपर नीचे की ओर छंछुळया होते हैं जो रैइ को सहारा प्रदान करते हैं । जिससे मक्खन व छांछ प्राप्त होता है ।


           डखुळ :- गींठी की लकड़ी से बनाया जाता है जो दूध से दही बनाने हेतु बर्तन के रूप में प्रयोग किया जाता है ।


          परोठी :- गींठी या सांदण से बना हुआ दूध रखने हेतु या दैनिक रूप में इस्तेमाल होने वाली दही हेतु प्रयोग किया जाता है ।


          ड्डुळ :- घर में बनने वाली बाड़ी और शादी ब्याह के भोज को तैयार करते वक्त करची की तरह प्रयोग में आने वाला वर्तन ।


                 तकुली :- सांदण जैसी लकड़ी से बना हुआ भेड़ और बकरी के ऊन को कातने के काम आता था  ।


                गंजेळी :- साल, खैर एवं सांदण से बना हुआ जिसके एक किनारे पर लोहे की गांज लगी होती है जो धान झंगोरा को कूटने में सहायक होता है इसकी सहायता से दो लोग तक एक साथ अनाज को कूट सकते हैं ।


                पयेळी :- सांदण, जामुन,( फळेण्डा ) आदि से बने हुए लंबे कटोरे जैसे आकृति के बर्तन जिसमें पशुओं के लिए पानी रखा जाता था ।


               जूं कंगी :- बांस से बनी हुई दो तरफा बारीक घांघ वाली होती थी इसका प्रयोग महिलाएं करती थी ।


          उर्रख्याळी :- साल, जामुन ( फळेण्डा ) जैसे पेड़ो की मोटी टहनी को काटकर बनाया जाता था जो वर्षात के दिनों में घर के अंदर कूटने के काम आता था ।इसको उठाकर के कहीं भी ले जाया जा सकता था । सामान्यतः इस हेतु छोटी गंजेळी का प्रयोग किया जाता था ।


               बरोळी :- अचार व दही रखने हेतु इसका प्रयोग किया जाता था । ये भी मुख्यतः गींठी आदि से बनते थे जिनकी पांच से दस किलो तक सामग्री वहन करने की क्षमता होती थी ।


                घणेस :- पानी से भरे बंठों को घणेस के ऊपर रखा जाता था जिससे पानी निकालने में सहूलियत होती थी । यह आम जैसी लकड़ियों की दो बाईं को चार पावो पे खड़ा कर बनाया जाता था ।


            मसाल्दनी :- जैसे की नाम से ही जाहिर हो रहा है यह कुकाट की लकड़ी से बना हुआ खाना दार वर्तन होता था जिसमें अलग अलग मसालों को रखने हेतु अलग - अलग आठ खाने होते थे ।


               ग्वाळी :- पशुओं हेतु प्रयोग किया जाने वाला ज्यूड़ा, म्वाळा हो चाहे अन्य किसी भी प्रकार की रस्सी सभी की बुनाई हेतु पाव ग्वाळी पर ही लगाये जाते थे ।


               छंत्रु :- यह गोलाकार छाते के ऊपरी हिस्से की तरह का बांस व माळ के पत्तों को तछुला ( एक प्रकार की घास ) की सहायता से बनाया जाता था जो बारिश के दिनों में खेतों में काम करने के काम आता था ।


               ब्वान :- बबला या बबूल घास से बटाई करके बनाया जाता था जो मुख्यतः अंदरूनी कमरों में झाड़ू लगाने के काम आता था । जो दो से तीन फीट लम्बा होता था । इसी प्रकार घर के बाहर की सफाई के लिए बुर्रया घास से बने झाड़ू का प्रयोग किया जाता था ।


             कुचला :- यह भी एक एक प्रकार का झाड़ू ही होता है परन्तु इसका प्रयोग ब्रश की भांति छोटी - मोटी सफाई या या गिरे हुए नाज को इकट्ठा करने , पिसे हुए जन्द्री के आटे को इकट्ठा करने जैसे कार्यों में होता था ।


                      गढ़वाल के पहाड़ी छेत्रों में हर घास लकड़ी का अपना एक महत्व है जो किसी न किसी रूप में काम आता था । ये पेड़ पौधे इसी कारण से भी सरंक्षित रहते थे । आज आवश्यकता है कि नई पीढ़ी को भी इनके महत्व को समझाया जाय । और पेड़ पौधों के साथ- साथ वातावरण का भी सरंक्षण किया जाय ।