*आज का पहाड़ "

साथियों कुछ सालों से उत्तराखंड विषय  का गहन अध्ययन कर रहा हूं, और जब भी पढ़ता हूं अपने पहाड़ों के विषय में, पढ़ता हूं जब अपने गढ़वाल कुमाऊं के  त्योहारों,  मेलों,  मंदिरों,  जनजातियों, घाटियों, बुग्यालो , वेशभूषाओं , मातृभाषाओं, लोकगीतों , लोकनृत्यों,  धार्मिक यात्राओं,  चोटियों,  पहाड़ी फलों, खाद्यान्नों,  रीति-रिवाजों के विषय में तो स्वयं को बड़ा गौरवान्वित महसूस करता हूं,  कि मैं देवभूमि उत्तराखंड  से हूं। गर्व करता हूं कि मैंने गढ़देश गढ़वाल में जन्म लिया,  साथियों शिक्षा,  स्वास्थ्य,  रोजगार जैसे संसाधनों के अभाव  से मैं जानता हूं कि हमारे पहाड़ के लोगों ने स्वयं को पलायन कर लिया  है। किंतु मित्रों बढ़ते समय के साथ- साथ पलायन पहाड़ मैं इस कदर प्रभावी होने लगा कि गांव के गांव  खाली हो गए, और पहाड़ों की समृद्ध मातृ भाषा (गढ़वाली कुमाऊनी ), सहयोगात्मक  लोक  परंपराएं,  पहाड़ी भोज्य पदार्थ (आलू, मूली की थींचवाणी,  गहत का फाण्,  भट की भट्टवाणी आदि)  धार्मिक क्रियाकलाप (रामलीला,  पांडवलीला,  मंदिरों में नवरात्र का आयोजन आदि)  पहाड़ों तक ही सीमित रह गए । और आज हम इस कगार पर पहुंच गए हैं कि हमारी पहाड़ी संस्कृति विलुप्ता  के बिल्कुल निकट है । आज हमारे कई ऐसे  प्रवासी पहाड़ी नवयुवा छात्र हैं जो पहाड़ी वृक्ष बाज, ( उत्तराखंड का वरदान वृक्ष)   वाद्य यंत्र ढोल, ( उत्तराखंड का राजकीय वाद्य यंत्र)   पहाड़ी फल  काफल,  (उत्तराखंड का राजकीय फल)  लोक गायक गढ़ रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी,   राज्य की प्रथम महिला लोक गायिका कबूतरी देवी,  (तीजन बाई ) प्रथम महिला जागर गायिका  बसंती बिष्ट जी से  अनभिज्ञ है ।

 वे अनजान है उत्तराखंडी सिनेमा( गढ़वाली  एवं कुमाऊनी )  से,  अपरिचित हैं वह  कि गढ़वाली बोली की पहली फिल्म , (जगवाल)   कुमाऊनी बोली की पहली फिल्म,  (मेघा आ ) कौन थी ।वह अविदित है  कि गढ़वाली सिनेमा की सबसे सफल फिल्म (घरजवे)  कौन थी। वह अपरिचित है कि अजयपाल,  कप्फू चौहान , माधो सिंह भंडारी कौन थे  ईगास (दीपावली के 11 दिन बाद मनाए जाने वाली बग्वाल)  क्या है वे नहीं जानते ऐसी ही पहाड़ी संस्कृति से जुड़ी हुई तमाम बातें हैं जिनसे वह अज्ञात हैं मैं यह जानता हूं कि वह बॉलीवुड और हॉलीवुड सिनेमा कि बेहतर जानकारी रखते हैं , मैं जानता हूं कि वह बॉलीवुड सिनेमा  के सभी गायकों से  ज्ञात है , मैं जानता हूं कि वह क्रिसमस डे से भलीभांति    वाकिफ़ है । किंतु अपनी संस्कृति से ना जुड़ने के पीछे आखिर क्या कारण है ? दोष उनका नहीं  बल्कि उनके अभिभावकों का भी है जो अपने बच्चों को अपनी संस्कृति से रूबरू नहीं करा पा रहे हैं उनमें अपनी संस्कृति को जानने की भूख (इच्छा)  पैदा नहीं कर पा रहे हैं। साथियों यह एक बड़ी दुर्लभ विडंबना है आज हवा में झूमती हुई उस टहनी को अपनी जड़ का पता नहीं है। जिन  युवाओं ने मिलकर आज अपने पहाड़ को आधुनिकता में लाना था , आज वही दूसरी  संस्कृतियों की आधुनिकता में ढल कर स्वयं को विकसित समझ रहे हैं ।शहरों में रहने वाले हमारे  पहाड़ के कई ऐसे लोग हैं,  जो गढ़वाली बोली को जानने के बाद भी बोलना नहीं चाहते हैं , आज हमारे कई पहाड़ी भाई बंधु दीदी भूली शहरों की आड़ में अपने पहाड़ियों  के साथ भी हिंदीभाषी हो गए हैं।साथियों विषय पर यदि गौर किया जाए तो यह काफी चिंतनीय और  गंभीरता का विषय है,  गढ़वाली हमारी बोली होने के साथ-साथ सांस्कृतिक पहचान भी है।

 तो आइए हम सब मिलकर अपनी बोली भाषाओं व विशाल परंपराओं के संरक्षण हेतु कदम बढ़ाए । साथियों इस वक्त संपूर्ण विश्व कोरोना कि वैश्विक महामारी को झेल रहा है , वहीं इस दौरान हमारे प्रवासी भाई-बहन रिवर्स पलायन कर अपने पहाड़ों की ओर लौट रहे हैं।  मित्रों इस दुख की घड़ी में भी हमने अपने व अपने समाज के लिए,  अपने पहाड़ के लिए सुख देखना है। क्यों ना अब हम अपने पहाड़ों के विकास का मार्ग  स्वयं  प्रशस्त करें , पहाड़ों में ही कुछ ऐसा स्वरोजगार विकसित करें चाहे वह कृषि के क्षेत्र में हो,  पशुपालन के क्षेत्र में हो मत्स्य पालन के क्षेत्र में हो,  शिक्षा के क्षेत्र में हो , परिवहन के क्षेत्र में हो , बागानों के क्षेत्र में हों,  हर क्षेत्र में हम अपने पहाड़ों को विकसित बना सकते हैं। बस इसके लिए हम सब को मजबूती के साथ दृढ़  संकल्पित व समर्पित   होने की आवश्यकता है।

अंत में आप सभी को मेरा सप्रेम प्रणाम ----पैलाग जय देव भूमि जय उत्तराखंड 

 (नारायबगड, चमोली)