संस्कृत भारत की आत्मा

 किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा, संस्कृति एवं परम्पराओं से होती है। राष्ट्र  भाषा ही उसकी शक्ति होती है। भाषा ही समाज को अपने राष्ट्र के साथ जोड़ती है। भाषा के कारण न केवल संस्कृति का संरक्षण होता है, अपितु राष्ट्र के साथ अनन्य संबंध भी स्थापित होता है। विश्व के अनेक राष्ट्रों का जो अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित होने के कारण विश्व में अपनी भाषा के प्रति समर्पण का भाव है। अपनी भाषा के प्रति स्वाभिमान, राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान को जागृत करता है।

भाषा को पुनर्जीवित करने का संकल्प यहूदी समाज के मन में था और वे उस संकल्प को लेकर आगे बढ़े और भाषा को पुनर्जीवित किया। आज इजरायल विश्व के एक शक्तिशाली और समर्थ राष्ट्र के रूप में हम सबके समक्ष खड़ा है। भारत के विषय में यदि हम विचार करें तो हम भारत की सांस्कृतिक विरासत और इतिहास जिस भाषा में पाते हैं वह भाषा संस्कृत है। संस्कृत भाषा का साहित्य विश्व का सबसे प्राचीन और समृद्ध साहित्य है। यह न केवल भारत को एक सूत्र में पिरोने का काम करता है, अपितु संपूर्ण विश्व को मानवता की भी शिक्षा देता है। संस्कृत साहित्य ही भारतीय संस्कृति का आधार है। भारतीय संस्कृति हमें तेरे और मेरे के भाव से मुक्त कर विश्व को एक परिवार के रूप में मानती है।

अयं निज: परोवेति,

       गणना लघु चेतसाम।

उदार चरितानाम,

        तु वसुधैव कुटुंबकम।।

इस उदार भाव को समाज में स्थापित करने का कार्य संस्कृत साहित्य के माध्यम से ही हुआ है। संपूर्ण विश्व को एक परिवार के रूप में स्थापित करने का कार्य यदि किसी भाषा ने किया तो वह भाषा संस्कृत ही है। संस्कृत कवियों ने भारतीय एकात्मता को अपने ग्रंथों में दर्शाया है।

संस्कृत न केवल भारतीय ज्ञान विज्ञान की भाषा है, बल्कि भारत की आत्मा वेद,पुराण,उप निषदों में निहित है। भारत की चिति को समझने के लिए भारतीय साहित्य का अध्ययन आवश्यक है। वेद, उपनिषद, आरण्यक, पुराण, धर्मग्रंथ, रामायण, महाभारत, नाट्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र कामसूत्र, अष्टाध्यायी आदि भारतीय ज्ञान मीमांशा के अनुपम ग्रंथ हैं। भारत की सांस्कृतिक धरोहर हजारों वर्षो से प्रवाहमान है। जैसे हिमालय से गंगा निकलती है और निरंतर बहती गंगा सागर तक चली जाती है उसी प्रकार हिमालय से ही हमारे सांस्कृतिक दार्शनिक और आध्यात्मिक स्त्रोत उभरते हैं।

संस्कृत भाषा की शक्ति से भयभीत होकर ही मैकाले ने अंग्रेजों के शासन में समाज से दूर करने का कुत्सित षड्यंत्र रचा और भारतीय समाज उस कुचक्र में फस गया। आज देश में जिस प्रकार का वातावरण दिखाई दे रहा है उसका मूल कारण हमारा अपनी भाषा से दूर होना है। इस ओर अगर हमारा ध्यान नहीं गया तो स्थिति और भी भयावह हो सकती है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का अपना संस्कार होता है। भाषा में उस देश की मिट्टी की खुशबू होती है। वह जहां जहां फैलती है समाज के मन मस्तिष्क को अपनी महक से पल्लवित कर लेती है जिस राष्ट्र का समाज अपने राष्ट्र की मिट्टी की खुशबू को भूल जाता है। उस राष्ट्र कोअपनी मिट्टी से बदबू आने लगती है। हमारे देश में भी आज प्रत्यक्ष यह दिखाई दे रहा है। बदलते समय की मांग दुवाई देकर भले ही हम इससे मुंह मोड़ लें, परंतु यह स्थिति समाज को देश की मिट्टी,विज्ञान, संस्कृति और परंपराओं से दूर ले जाने का काम कर रही है।

मैकाले ने कहाँ कि जब तक शिक्षा में पाश्चात्य भाषा का समावेश नहीं होगा, हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करना कठिन है।’

 डॉक्टर डफ के कथनानुसार   जिस जिस दिशा में अंग्रेजी शिक्षा प्रगति करेगी, उस उस दिशा में हिंदुत्व के अंग टूटते जाएंगे और धीरे-धीरे हिंदुत्व का कोई भी अंग साबित नहीं रहेगा।’

भारत विश्व का सबसे प्राचीन राष्ट्र होने के कारण ज्ञान विज्ञान,चिकित्सा पद्धति आदि राष्ट्र है। शिक्षा के प्राचीनतम विश्वविद्यालय नालंदा, विक्रमशिला जैसे विशालतम विश्वविद्यालय भारत में थे। संपूर्ण विश्व के लिए ये ज्ञान के भण्डार रहे। विश्व भर से ज्ञान पिपासु यहां आकर अपनी ज्ञान क्षुधा को शांत करते रहे। आज विश्व में विविध प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की जो चमक दिखाई देती है उसके बीज भारत से ही दुनिया भर में गए। इसीलिए भारत को विश्व गुरु कहा जाता था।

एक से नौ तक के अंक, शून्य और दशमलव की पद्धति इन सबका आविष्कार भारत ही रहा। दशमलव पद्धति का ज्ञान आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के समय भारत में हुआ। बौद्ध धर्म प्रचारकों के द्वारा यह ज्ञान चीन पहुंचा। बीजगणित का विकास भारत में हुआ, और यहां से यूनान पहुंचा,जो अरब से होते हुए यूरोप पहुंचा। ज्योतिष और गणित के प्राचीन आचार्यो में आर्यभट्ट का स्थान भारत में ही नहीं, अपितु सारे विश्व में सबसे ऊंचा है। आर्यभट्ट ने ही सबसे पहले संसार को यह ज्ञान दिया कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके चारों ओर घूमती है जिससे दिन और रात होते हैं। उन्होंने ही ग्रहण की भविष्यवाणी करने की विधि निकाली। आर्यभट्ट के बाद दूसरे आचार्य ब्रह्मगुप्त हुए जिन्होंने भारत की ज्योतिष विद्या को संगठित रूप दिया।