चीड़


              उत्तराखंड का 71ः हिस्सा जंगल है। इसमे भी 16ः से अधिक हिस्से पर केवल चीड़ (यानि च्पदम) के ही वन है यह लगभग 35 हजार हेक्टेयर भूमि है। चीड़ 500 मी. से 2200 मी. तक की ऊचांई तक पाया जाता है। हालांकि कहीं-कहीं तो यह 2400 मी. तक की ऊचांई तक तथा देहरादून और रूड़की जैसी गरम जगहांे पर भी पाया जाता है। चीड़ का पेड़ काफी लम्बा होता है यह 30 मीटर से अधिक लम्बा भी हो सकता है। यह खुश्क पहाड़ी ढलानो पर भी उतनी ही आसानी से उग जाता है जितना समतल एंव कृषि भूमि पर। चीड़ के पेड़ की पत्तियां सुइयों की तरह गुच्छो में होती है तथा इसकी लम्बाई 25 सेमी. के लगभग होती है। चीड़ का फल अण्डाकार होता है तथा शुरू मे हरा तथा पकने के बाद भूरे रंग का हो जाता है, यह फल गर्मियो के आस-पास पक कर तैयार होता है, और फल को समेटे पंखुडियां खुलने लगती है जिससे बीज बाहर आ जाता है। चीड़ के बीज में प्राकृतिक रूप से पंख लगे होते है। जब तेज हवा चलती है तो 30-35 मीटर की उंचाई से गिरते बीज हवा में पंखों के सहारे कई किलोमीटर दूर तक चला जाता है, और वहीं पनपने लगता है। उत्तराखंड के वनों मे जंगली पेड़ांे के नाम पर अधिकाशं वन क्षेत्रों को चीड़ नामक पेड़ ने आच्छादित कर दिया है। यहां की ऊचांई वाले वनों की पहचान जो बांज, बुरांश, देवदार तथा अन्य चैड़े पत्तों वाली प्रजातियों के रूप मे थी, उन सबको चीड़ ने धीरे-धीरे निगल रहा है।


चीड़ उत्तराखंड के हरिद्वार तथा उधमसिंह नगर जिलों को छोड़ कर शेष जिलो के अधिक, निम्न व मध्य ऊचांई के वन क्षेत्रो को अपने आगोश मे ले चुका है। चीड़ के पेड़ की एक विशेषता है कि उसके नीचे यदि कोई वनस्पति उगेगी तो वह चीड़ ही होगी, अन्य कोई भी वनस्पति पनप ही नही पाती है। जिस कारण चीड़ के वनो का दायरा निरन्तर बढ़ रहा है और अन्य चैड़ी पत्तियों वाले पेड़ो के वनों का दायरा निरन्तर घट रहा है। जो पर्वतीय ढलानो के लिये अत्यन्त ही हानिकारक है। 1981 से 1000 मीटर से ऊचांई वाले क्षेत्रो के हरे वृक्षो के कटान पर प्रतिबन्ध लगने के कारण चीड़ ने दिन-दूनी, रात-चैगुनी प्रगति की, और इमारती लकड़ी के लिए भी शासन केवल सूखे हुए पेड़ो को काटने की अनुमति देता है।


 पुराने समय मे पर्वतीय क्षेत्रो मे पटाल (पत्थर) वाले मकान होते थे, जिन्हे प्रत्येक दूसरे या तीसरे साल मे ठीक करवाना पड़ता था। इस काम के लिये लगभग 5 बल्लियां चीड़ की लगती थी व एक बड़ा पेड़ भी काटना पड़ता था, इस प्रकार कम से कम 6 पेड़ कटते थे शादी ब्याह के अवसरो पर भी पेड़ काटे जाते थे, और जलावनी लकड़ी के लिये तो पेड़ कटते ही थे, इनके अलावा भी इमारती लकड़ियो के लिये चीड़ के पेड़ ही उचित माने जाते थे। अब अधिकांश घरो पर लिंटर पड़ गये है जिस कारण लकड़ी की आवश्यकता कम हो गई है, ऊपर से बड़ी मात्रा मे पलायन के कारण जनसंख्या कम हो गई है और सबसे बड़ी वजह यह कि अब प्रत्येक घर में बिजली और रसोई गैस के कनेक्शन हो गये है। पलायन के कारण पशु पालन में भारी कमी आई है जो वनों की वृद्धि के प्रमुख कारण है।


उत्तराखंड में वनो की वृद्धि का अर्थ केवल चीड़ के वनों की वृद्धि से ही माना जाना चाहिये, जमीन से नमी सोखने के कारण इस पेड़ के आस-पास कोई अन्य पौधा उग ही नही पाता और यही कारण है कि चीड़ वनो का क्षेत्रफल हर साल बढ़ रहा है और बाकि वन क्षेत्र घट रहा है। अनेको पर्यावरणविद् तथा प्रकृति प्रेमी चीड़ की इस बेतहाशा वृद्धि पर चिन्ता जताते आये है। प्रबुद्धजन मानते है कि चीड़ का वृक्ष पर्वतीय क्षेत्रो मे विदेशियो द्वारा उगाया गया था। यहां इमारती लकड़ी के साथ ही फर्नीचर आदि में यह सरलता से उपयोग होने लगा। सुन्दर एंव आसानी से उपलब्ध के कारण यह लकड़ी सर्वप्रिय होती गयी। चीड़ के पेड़ पर से निकलने वाला लीसा सरकार के राजस्व प्राप्ति का स्त्रोत बना और सरकार ने वृक्षारोपण कर इसके जंगलो की वृद्धि कराई। लीसा कई प्रकार से औद्योगिक उपयोग मे लाया जाता है, और सरकार को बिना किसी बड़े खर्चे के ही अच्छा खासा राजस्व प्राप्त हो जाता है, लेकिन यह लीसा आग के लिये अत्यधिक ज्वलनशील पदार्थ की तरह काम करता है। चीड़ की पत्तियां पशुओ के चारे के काम भी नही आती लेकिन भूमि तथा वनो के लिये सर्वाधिक हानिकारक पत्तियां ही है। अप्रैल के माह से इसकी पत्तियां गिरना शुरू होती है जो 3-4 माह तक गिरती रहती है, इन पत्तियांे मे मौजूद लीसा पदार्थ इन्हे आसानी से गलने नहीे देता जिस कारण यह अन्य वनस्पतियो को उगने नहीे देती। इन पत्तियो की कई बार परत बन पाती है जो मिट्टी को भी अम्लीय बना देती है और वह किसी अन्य वनस्पतियो को उगने नही देती है।


चीड़ के पेड़ में पाया जाने वाला लीसा ही सब प्रकार से पर्यावरण के लिये हानिकारक है, इसी लीसे के कारण इसकी पत्तियां अत्यधिक ज्वलनशील होती है और इसी तत्व के कारण यह अन्य वनस्पतियों के लिये हानिकारक हो रहा है,ं इसी के पेड़ के कारण मध्य हिमालय की जैव विविधता को खतरा बताया जाने लगा है। सर्व विदित है कि जंगलो मे आग का सबसे बड़ा कारण चीड़ ही है। यदि कृषि भूमि के आस-पास चीड़ के पेड़ हो जाय तो चीड़ की पत्तियों के गिरने के कारण उन खेतों में फसल की पैदावार में कमी आने लगती है, तब मजबूरन किसान को अपने खेत बंजर छोड़ने पड़ते हैं। जिन खेतों में कोदा-झंगोरा की बढिया फसलें होती थी चीड़ की पत्तियों के कारण उनमें गहत-सोयाबीन की फसल भी नहीं हो पा रही है। जब खेतों में कुछ होगा ही नहीं, और चीड़ के घने जंगलों में जंगली जानवरों का डर होगा, तो इंसान पलायन ही करेगा। चीड़ की विकरालता पर्वतीय क्षेत्रों में पलायन को भी बढावा दे रहा है।   


आज मैदानी क्षेत्रों में यूकेलिप्टिस का विरोध भी उसके द्वारा जमीन की पूरी नमी खींच लेने और जैव विविधता के लिए उत्पन्न हो रह खतरे के कारण ही हो रहा है। पर्यावरणविद्, प्रकृति प्रेमी तथा पर्वतीय जल, जंगल, जमीन, तथा पर्यावरण के प्रति सचेत ग्रामीणांे को भी लगने लगा है कि यदि चीड़ का कोई स्थाई समाधान शीघ्र नहंी ढूंढा तो बहुत देर हो जायेगी और तब स्थिति हाथ से निकल जायेगी। वर्तमान में चीड़ के पेड़ो से लीसा निकालने का काम दिखाई नही देता है। इसके पेड़ का भी पर्वतीय क्षेत्रो मे उपयोग नाम मात्र का ही है। लेकिन चीड़ के पेड़ से फर्नीचर तथा इमारती लकड़ी बनाई जा सकती है, इसके लिये सरकार को ही योजना बनानी होगी। व्यवस्थित ढंग से किसी भी एक वन प्रभाग के किसी एक हिस्से को चुनकर वहां से चीड़ के सभी पेड़ काट कर वंहा चैड़ी पत्तियों वाले पौधो का रोपण किया जाये और चीड़ के कटे हुए पेड़ो को बाजार मे बेच कर अच्छा खासा राजस्व प्राप्त कर सकते है। इससे जहां सरकार के राजस्व मे वृद्धि होगी पर्यावरण के अनुकूल तथा स्थानीय आवश्यकताओ के अनुकूल पौधारोपण कर इस विकराल समस्या से भी मुक्ति मिल पायेगी।


आज आवश्यकता महसूस होने लगी है कि यदि उत्तराखण्ड के जंगलों एवं जैव विविधता को बचाये रखना है तो वैज्ञानिक तरीके से चीड़ को नियन्त्रित करना होगा और इसके स्थान पर चैड़ी पत्ती के स्थानीय वनों में पाये जाने वाले पेड़ों को रोप कर जंगल तैयार करने होंगें। इसके लिए इसके लिए चीड़ के वनों को धीरे-धीरे (त्मचसंबमउमदज) बदलने की प्रक्रिया को लागू करना होगा। इससे जहां पर्यावरण एवं जैव विविधता को बचाने में मदद तथा वनों को आग से बचाने में मदद मिलेगी और वनाग्नि को नियन्त्रित करने में लगने वाली शक्ति वृक्षारोपण के काम आयेगी वहीं राज्य सरकार को बहुत बड़ा राजस्व प्राप्त होगा और उद्योगों को भी कच्चा माल आसानी से उपलब्ध हो सकेगा। प्रयोग के तौर पर इसे किसी एक वन प्रभाग में आजमाया जा सकता है और परिणाम अनुकूल आने पर धीरे-धीरे पूरे उत्तराखण्ड में लागू किया


(एम.जे.एम.सी.)