जो कभी बहुत जरूरी थीं, वह अगली-पिछली बातें भूलते जाना बढ़ती उम्र की निशानी है। वो भले ही अपना नाम-पता भी भूल जायें, लेकिन हमारे मन में रचे-बसे रहते हैं एक उम्र की तरह।
सच है, बुजुर्ग कभी अकेले नहीं आते। उनके साथ-साथ चलती हैं वह कहानियां जो हमने कभी उनसे सुनी थीं ,या जिनके बगैर उनका ज़िक्र अधूरा सा लगता हो।
तो चलिए आज मैं आपको एक ऐसी अनोखी पहचान वाली बुजुर्ग से मिलाती हूं जो अंग्रेजी लेखक रस्किन बॉन्ड की दादी थीं। रस्किन बॉन्ड की कई कहानियां,उपन्यास और कविताएं भारतीय विद्यालयी कक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल हैं । इसलिए उनके नाम से शायद ही कोई अपरिचित हो। वर्तमान में वे मसूरी (उत्तराखंड) में रहते हैं।
तो ..रस्किन अपनी एक कविता Granny's tree climbing (ग्रैनी'स ट्री क्लाइबिंग) में लिखते हैं कि उनकी दादी जीनियस थीं। जीनियस इसलिए कि वह किसी भी पेड़ पर चढ़ सकती थीं,चाहे वह फैला हुआ हो कि लंबा हो। बासठ वर्ष की उम्र में वह आखिरी बार किसी पेड़ पर चढ़ी थीं। ईश्वरीय वरदान की तरह ही यह हुनर उन्हें बचपन से ही प्राप्त था। पेड़ पर चढ़ने से उन्हें अंदरूनी खुशी मिलती थी, ना कि लिफ्ट पर चढ़ने से।
जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती गई तो लोगों ने उन्हें समझाना शुरू कर दिया कि-"हमें इज़्ज़त के साथ बूढ़े होना चाहिए। अब इस उम्र में पेड़ों पर चढ़ती तुम अच्छी नहीं लगती हो । लोग हंसते हैं तुम्हारी इस हरकत पर" ! तो इस बात पर रस्किन की दादी भी हंसकर उल्टा जवाब देती हैं कि "मैं बिना इज़्ज़त के बूढ़ी हो जाऊंगी, लेकिन पेड़ पर चढ़ना नहीं छोडूंगी। मैं तो इस काम को अब और अच्छा कर सकती हूं, क्योंकि जितनी मेरी उम्र बढ़ रही है उतनी ही मेरी कुशलता भी तो बढ़ रही है पेड़ों पर चढ़ने की" ।
हमारे घर के आस-पास जितने पेड़ थे, उनमें से ऐसा कोई नहीं जिस पर वह कभी चढ़ी ना हों। उन्होंने अपने प्यारे भाई से पेड़ पर चढ़ना तब सीखा था, जब वह छह साल की थीं। ।
एक दिन रस्किन और उनके माता-पिता का किसी काम से शहर जाना हुआ तो सबको यह डर था कि कहीं पीछे से वह पेड़ पर चढ़ गई, और गिर गईं तो ... ?
डर तो सच साबित हुआ, लेकिन परिणाम कुछ और ही मिला। वह पेड़ पर चढ़ तो गईं मगर नीचे नहीं उतर पाईं। परिवार वालों ने मिलकर उन्हें उतारा और डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने सलाह दी कि अब एक हफ़्ते तक उन्हें बेडरेस्ट करना पड़ेगा।
चैन की सांस लेते हुए हमने उन्हें चादर से अच्छी तरह ढ़ांप दिया और बेड पर लिटा दिया । दादी के लिए यह एक हफ़्ता, थोड़ा समय नरक में बिताने जैसा था। डॉक्टर ने उन्हें जो सलाह दी थी, वह एक तरह से जेल जैसी थी।
गर्मी का मौसम है। हवा दादी के कानों में खुसुर-पुसुर कर रही है। पत्ते हवा में नाच रहे हैं । लेकिन दादी तब तक बिस्तर पर टिकी रहीं जब तक कि उन्होंने खुद को मजबूत महसूस नहीं कर लिया।
जब उन्हें अपने शरीर में ताकत महसूस हुई तो वह बोली कि -"मैं यहां अब और नहीं लेट सकती"। और उन्होंने बिना हिचकिचाहट पूरे हक़ के साथ मेरे पिता को कहा कि मुझे एक ट्री टॉप हाउस बनावा दो। ट्री टॉप हाउस का मतलब है कि पेड़ पर लकड़ी का घर। मेरे पिता जिम्मेदार इंसान थे । एक आज्ञाकारी बेटे की तरह उन्होंने मेरी दादी से कहा- "मैं आज से ही काम शुरू कर देता हूं, मेरी प्यारी मां" ! ।
मेरे विशेष सहयोग से आखिरकार उन्होंने पेड़ पर लकड़ी का घर बना ही दिया। उसमें खिड़कियां थीं और दरवाजे भी । दादी अपने घर में चली गईं। अब हर रोज उनके ट्री टॉप हाउस पर मैं ट्रे में वाइन और दो गिलास लेकर जाता हूं । पूरे पेड़ पर अब उनका हक होने के भाव के साथ एक खास अदा में वह महारानी की तरह अपने घर में बैठती हैं, और वाइन की चुस्कियां लेकर सेलिब्रेट करती हैं अपने सपनों का घर पा जाने को।
वाकई ! कितना किफायती था ना रस्किन बॉन्ड की दादी का सपना ! जो उनके पिता ने पूरा करके अनमोल बना दिया।
'लोग क्या कहेंगे' की झिझक के परदे से परे मन की मालकिन रस्किन बॉन्ड की दादी मुझे इसलिए याद आई कि आज अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस है। यह दिन अपने माता-पिता, सास-ससुर, दादा-दादी के बारे में लिखने मात्र या उन्हें याद कर भर देने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए । आज के युवा ही भविष्य के बुजुर्ग हैं। वर्तमान में अपने बुजुर्गों के प्रति उचित जिम्मेदारी निभा कर ही हम तय कर सकते हैं कि हमारा बुढ़ापा ट्री टॉप हाउस जैसे अनोखे शौक पूरा करते हुए बीतेगा या कि टी.वी. पर आ रहे 'कैडबरी -डू नथिंग' वाले विज्ञापन की उन आंटी की तरह, जिनके सामने खड़ा लड़का उनकी नीचे गिर गई छड़ी उठा लेने को हामी तो भरता है, लेकिन इत्मीनान से चॉकलेट खाना छोड़कर उनकी छड़ी उठा देने की उसे कोई जल्दबाजी नहीं।
दो बार अनुरोध करने के बाद बेंच छोड़कर जब वह खुद ही छड़ी उठाने उठती हैं तो लड़के को भी कहना नहीं भूलतीं- "थैंक यू बेटा ! अच्छा हुआ, तुमने कुछ नहीं किया" ।