!!सांस्कृतिक क्षरण का दुष्परिणाम हाथरस दुष्कर्म!!

 

पश्चिमी प्रभाव के कारण चारित्रिक मूल्य निर्माण विद्यालयी पाठ्यक्रमों से हाशिये पर चले जाने से सांस्कृतिक क्षरण हुआ जिसके दुष्परिणाम से दुष्कर्म बढ़े!....

बीते दिनों उत्तर प्रदेश के हाथरस में एक युवती के साथ हुई दुष्कर्म जघन्य हिंसा से सम्पूर्ण देश के जनमानस का उद्वेलित होना स्वाभाविक है।  यह एक कड़वी हकीकत है कि बीते एक-डेढ़ दशक से देश में दुष्कर्म के मामले बढ़ते जा रहे हैं। इन दिनों भी देश के विभिन्न हिस्सों से दुष्कर्म के मामले सामने आ रहे हैं। स्त्रियों के साथ हिंसा,जिसकी चरम परिणति दुष्कर्म के रूप में होती है,ये सभी घटनाएं मुख्य रूप से सामाजिक,मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक क्षरण से जुड़ी हुई है। क्षरण की इन परिस्थितियों से पूरा देश ग्रसित हो रहा है। इसलिए दुष्कर्म जैसी घटनाएं केवल एक क्षेत्र या वर्ग तक सीमित नहीं। अब तक देखा गया है,कि दुष्कर्म की जितनी भी घटनाएं होती हैं वे वास्तव में पारिवारिक कमजोर आर्थिक-सामाजिक स्थिति के कारण इसका शिकार कमजोर वर्ग या जाति की स्त्रियां सबसे अधिक शिकार होती हैं।

देश के सभी हिस्सों से दुष्कर्म या यौन उत्पीड़न की घटनाएं सुनने में आती रहती हैं। ऐसे में देश की आधी आबादी की इस खतरनाक समस्या के समाधान के लिए इन घटनाओं के पीछे के समाजशास्त्र और मनोविज्ञान को समझना जरूरी है। समाज-मनोविज्ञानियों के अनुसार स्त्रियों के साथ हिंसा-दुष्कर्म की सबसे बड़ी वजह पुरुष की वर्चस्ववादी सोच का होना है,जिसमें स्त्रियों को हेय दृष्टि से देखने के साथ ही उन्हें उपभोग की वस्तु माना जाता है। इसीलिए कई बार रंजिश में भी औरतों को निशाना बनाया जाता है।

 दुष्कर्म की स्थिति केवल मजहब,जाति,वर्ग एवं क्षेत्र तक सीमित नहीं है। बल्कि इसके लिए सामुदायिकता की भावना का उत्तरोत्तर कम होना भी है।

अगर हम अपने बचपन के दिनों को याद करें तो हमारा गांव समाज,मोहल्ले-कस्बे  एक विस्तृत परिवार की तरह होते थे,जहां लोग अपने सुख-दुख के साथ अपने अन्तर्मन की बातें एक-दूसरे से साझा किया करते थे। वर्तमान मूल्यहीन भौतिकतावादी आधुनिकता, अनियंत्रित नगरीकरण, एकाकीपन,चरम वैयक्तिकता और आगे बढ़ने की होड़ ने हमारी सामूहिकता की भावना को कमजोर किया है। लोगों में सामाजिक दबाव और डर कम होने से भी पाशविक प्रवृत्ति बढ़ी है।

वर्तमान समय में लोग टीवी, वीडियो गेम आदि में सिमटते जा रहे हैं लोग इन हालातों में संचार की दुनिया में दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं ने आग में घी डालने का काम किया है। तकनीक प्रभावित नई जीवन शैली में बच्चे और युवा सामूहिकता की भावना को मजबूत करने वाले शारीरिक खेलों की जगह टीवी और वीडियो गेम आदि में सिमटते जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न उत्पादों के विज्ञापनों में भी भारतीय नारी को कामुक ढंग से पेश किया जाना भोग्या रूप में स्थापित करने की कुचेष्टा है।

सांस्कृतिक क्षरण को बढ़ावा देने में इंटरनेट और सोशल मीडिया भी है। देखा जा रहा है,कि ऑनलाइन अश्लीलता अपरिपक्व मन को दूषित कर रही है। यह अनायास नहीं कि दुष्कर्म की शिकार सिर्फ युवा स्त्रियां ही नहीं, बल्कि वृद्धा और अबोध बालिकाएं भी हो रही हैं। इन घटनाओं पर रोक लगाने में कानून और पुलिस-प्रशासन की भूमिका की एक सीमा है। देखा जा रहा है कि ऐसी घटनाओं में पुलिस का रवैया भी प्राय: असंवेदनशील रहता है। जिस कारण न्याय प्रक्रिया ढुलमुल ही रहती है। ।

दुष्कर्म की घटनाओं को रोकने के लिए लोगों की मानसिकता में परिवर्तन और इसमें मूल्यपरक शिक्षा के साथ-साथ नई पीढ़ी को परिवार एवं समाज के स्तर पर दिए जाने वाले संस्कारों की भी बड़ी भूमिका है। इसके लिए विद्यालयी शैक्षणिक और शिक्षणेतर पाठ्यक्रम में विशेष ध्यान देना होगा और सिविल सोसायटी को बेहतर समाज बनाने की चिंता करनी होगी। पश्चिमी प्रभाव में आकर चारित्रिक मूल्य निर्माण को विद्यालयी शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में हाशिये पर रख दिया गया है। स्कूली छात्रों के प्रोजेक्ट के विषय इस तरह से निर्धारित किए जाने चाहिए, जो नारी के प्रति छात्रों के शिक्षणेत्तर क्रियाकलाप संवेदनशीलता और उच्च भावों को भरने वाले हों। ।

देश में नई शिक्षा नीति-2020 लागू होने जा रही है। एनसीईआरटी नई ‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा’ पर विचार भी कर रही है। ऐसे में यही अपेक्षा की जा सकती है कि पाठ्यचर्या और पाठ्य पुस्तकों के निर्माण में उन सभी बिंदुओं को भी समाहित किया जाना चाहिए। जिससे सांस्कृतिक क्षरण न हो।