भारतीय शिक्षा का संस्कृति से परस्पर सम्बन्ध


भारतीय शिक्षा और कला का उद्देश्य मानव-हृदय को उदात्त बनाकर उसमें करुणा,संवेदना,संवेदनशीलता
का सृजन करना है।संस्कृति की विशेषताओं को शिक्षा और कला के विविध कौशलों द्वारा भावी पीढि में संस्कारों को समाहित करते हुए भारतीय शिक्षा में संस्कृति बोध को जाग्रत करना है।....


 समाज से निकले हुए लम्बे अनुभवों से कुछ विशेषताएं बन जाती हैं। जिन अनुभवों को हम सांस्कृतिक भी विशेषता कहते हैं। हमारे समाज में संस्कारयुक्त व्यवहार से ही संस्कृति की विशेषता उत्पन्न होती है।तो मन में जिज्ञासा पैदा होती है कि यह संस्कार क्या है?संस्कार के संदर्भ में हमारे पूर्वजों ने संस्कार की एक विशेष प्रकार से व्याख्या की है। हमारे पूर्वज कहते हैं कि मानव स्वभाव में विशेष गुणवृद्धि होना ही संस्कार है। भारतीय संस्कृति को एकता के सूत्र में पिरोने वाले आद्य शंकराचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य के अंदर संस्कार को और अधिक विस्तृत रूप से व्याख्यायित किया। उन्होंने ‘’दोषापनयेन गुणाधान संस्कार:’’ के रूप में संस्कार शब्द की परिभाषा की है। वे लिखते हैं कि हमारे जीवन में जो भी दोष हैं,कमियाँ हैं, उनको निकाले और जो सद्गुण हैं उनको ग्रहण करें, दोषों को निकलना और सद्गुणों को ग्रहण करने की प्रक्रिया ही संस्कार है। इसी संस्कार के माध्यम से समयाकूल हमारे जीवन के व्यवहार की विशेषताएं प्रकट होती हैं इसलिए जब हम भारतीय संस्कृति की विशेषताओं के सम्बन्ध में जो भी विचार प्रस्तुत करते हैं वहीं संस्कार हैं।भारतीय जीवन में संस्कार की अनेकों बातें हैं जैसे:-
 ‘मातृवत् परदारेषु’,अर्थात् पराई स्त्री को माँ के समान समझो। यह भी एक संस्कार है।‘परद्रव्याणि लोष्ठवत्’ अर्थात् दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझो। यह दूसरा संस्कार है।‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ सभी को अपने जैसा या अपनी आत्मा से जुड़ा समझो। हम देखते हैं कि हमारी इन विशेषताओं ने भारतीय समाज-जीवन को अनेकों ऊँचाई प्रदान की। आजकल का जीवन भले ही कुछ अलग हो गया है परन्तु लगभग 1000 साल पहले की हमारी संस्कृति का भारत में आने वाले ज्यादातर विदेशी समाज के लेखकों ने जो वर्णन किया है, अगर आज हम पढे़गे तो पाएंगे कि यह सारी विशेषताएं उन्होंने जीती-जागते रूप में हमारे समाज में देखीं। हमारे समाज में विद्यमान संस्कारों- यथा अतिथि-सत्कार, दया ,करूणा,न्याय,नैतिकता आदि का रूप जैसा 1000 वर्ष पूर्व के लेखकों ने देखा, उन्होंने उसका वैसा वर्णन किया। यदि हम आज वैसा ही समाज जीवन बनाना चाहते हैं तो समाजिक जीवन में हमें संस्कृति का बोध होना आवश्यक है।
 समाज के अंदर पीढी दर पीढी स्थानांतरित अथवा हस्तांतरित करने का माध्यम अनेक प्रकार की कलाएं है।हम देखते हैं कि सामान्यतः अक्षरज्ञान की जो शिक्षा प्राप्त होती है, उसका सीधा सम्बंध बुद्धि से होता है,कला का संबंध हृदय से होता है। एक प्रकार से देखा जाए तो बुद्धि और हृदय का परिष्कार करने के लिए हमारे यहां पर साहित्य है, संगीत और कला के द्वारा इनको जीवन में बहुत महत्व दिया गया है। संस्कृत के एक सुभाषित में कहां गया है कि:-
 ‘‘साहित्य, संगीत, कला विहिनः
  साक्षात पशु पुच्छ विषाणहीनः’’


अर्थात् जिस किसी मनुष्य की  जीवन में अगर साहित्य,कला,संगीत आदि किसी में भी रूचि नहीं है वह मनुष्य पशु की बिना पूंछ के समान है। अगर हम साहित्य की बात करते हैं तो उसमें कथा,कहानी,कविता, उपन्यास आदि अनेक तरह से विभिन्न रूपों में विचार और भावना की अभिव्यक्ति करनी होती है। अगर हम संगीत की बात करते हैं तो स्वरों के द्वारा मुंह से गाए हुए रागों से वाद्ययन्त्रों के माध्यम से स्वरों के जो स्पन्दन निकलते हैं उसकी भी एक दुनिया है।
आजकल इस पर बहुत विश्लेषण किया ज़ा रहा है कि यह जो भारतीय शास्त्रीय संगीत है वह सुकून देता है, मनुष्य तन्मय हो जाता है,तनाव निकल जाता है, क्यों है ऐसा? यह जो भारतीय संगीत है, राग है उसके स्पन्दन ऐसे हैं कि वह दिमाग में तनाव लाने वाली जो बातें है उन सबको हटा देता है। धीरे-धीरे आदमी तन्मय हो जाता है।एक बार इटली के मुसोलिनी जो कि उस समय तानाशाह था,भारतीय संगीतज्ञ पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के साथ पत्रकार वार्ता हुई। उस समय मुसोलिनी को बताया गया भारतीय संगीत में सुबह का राग है,शाम का राग है, दुःख का राग है, सुख का राग है, तो मुसोलिनी ने कहा मुझे पता नहीं है, पर मुझे कुछ दिन से नींद नहीं आ रही है। क्या आपके पास कोई ऐसा राग है जिसे सुनकर मुझे नींद आ जाए। कोशिश करता हूँ यह कहकर ठाकुर जी ने राग बजाना प्रारंभ किया और 15-20 मिनट के अंदर मुसोलिनी गहरी नींद में सो गया। दो दिन तक सोता रहा। तो संगीत की भी एक दुनिया है – दो पेड़ लगा करके अरविन्द आश्रम में प्रयोग किया गया कि एक के सामने माइकल जैक्सन और मैडोना वगैरह का पॉप संगीत बजाया गया और दूसरी तरफ भारतीय संगीत। प्रभाव देखिये कि जिसके सामने भारतीय संगीत बजा उस पेड़ के पत्ते बड़े अच्छे थे और जहाँ पॉप म्यूजिक बज रहा था उसके पत्ते बहुत कटे-फटे और खंडित। लम्बे समय में पॉप संगीत मनुष्य के व्यक्तित्व को आंतरिक रूप से खण्डित करता आ रहा है। इसलिए पॉप म्यूजिक के जितने पॉप स्टार वर्ल्ड में हुए वे तनावग्रस्त हुए,या फिर जेलों में गए या उन्होंनेआत्महत्याएं की है।
इसी प्रकार रंगो और रेखाओं के द्वारा चित्रकला की भी अपनी एक अलग ही दुनिया है-चित्रकला,मूर्तिकला,कार्टून आदि आजकल की ऐसी चित्ररेखाएं हैं जो बहुत कुछ कह देते हैं। अगर हम मूर्तियों का निरीक्षण करेंगे तो हमें जीवन के सभी रंग वहां दिखाई देंते हैं। जैसे रंगों और रेखाओं की एक दुनिया है, वैसे ही भाव और भंगिमाओं की भी एक दुनिया है। दृष्टि इधर की उधर होने से अर्थ बदल जाता है। दृष्टि या नजर अर्थात् देखना। आंख से हम जो कुछ भी देखते हैं। या हम आंखों को जिधर भी घुमाते हैं,उसका एक अपना अलग मनोविज्ञान है। आप बीजगणित का नियम देख लीजिए कोण बदलने से उसका अर्थ अथवा भाव बदल जाता है। उर्दू की पंक्ति के अनुसार:-
‘‘नजर ऊंची की तो दुआ बन गई
 नजर नीची की तो हया बन गई।’’
 
अगर कुछ लज्जास्पद काम कर दिया तो नजर नीची हो जाती है। ‘‘ नजर तिरछी की तो अदा बन गई, नजर फेर ली तो कजा बन गई।’’ एक ही दृष्टि है,कोण बदल गया तो अर्थ बदल गया, भाव बदल गया। इसीलिए कहते हैं कि भाव भंगिमाओं की भी एक दुनिया है। भरतमुनि का पूरा नाट्य शास्त्र इसी विषय पर केन्द्रित है। यह संसार भी एक नाटक है, हमारे यहाँ सारे ब्रह्मांड के अंदर शिव का तांडव नृत्य उसका प्रतीक है। नटराज का चित्र सारे ब्रह्माण्ड के सृजन और विध्वंस की कहानी है, उसके अंदर ही ध्वंस भी है और संतुलन भी। कला इसकी वाहक होती है और इन सबका अधिष्ठान अध्यात्म है। उसकी बहुत व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है।
हमारे पूर्वजों ने कहा है कि मूलतः एक ही तत्व है उसे सर्व खलिव्दम् ब्रह्म कहा होगा ईशावास्यमिदं सर्वं कहा होगा और उस एक ही मूल तत्व से विविध तत्व बने और इसलिए विविधता में एकता है, इन विविध तत्वों के आपस में सम्बन्ध हैं और इस आधार पर आपसी सम्बन्धों की परिवार संकल्पना के रूप में परिभाषित किया। इस नाते मनुष्य का शरीर भी इन्द्रियां,मन,बुद्धि यह भी एक परिवार है। फिर अपना घर भी परिवार है। कुल भी परिवार है बाकि सब परिवार है। परिवार की संकल्पना से जुड़ना और तब फिर परस्पर सहयोग और परस्पर आश्रितता की भावना स्वभाविक रूप से उसमें से निकलकर आती है। करूणा और संवेदना के बिना यह जुड़ाव संभव नहीं हो पाता है और इसलिए कहा गया है कि हमारी शिक्षाओं का, हमारी कलाओं का उद्देश्य मानव-हृदय को उदात्त बनाना और उसमे करुणा का सृजन करना है। संवेदना,संवेदनशीलता की व्याप्ति बढ़ती चली जाए और इस नाते से यह जो हमारा एक आधारभूत अधिष्ठान है, जो अधिष्ठान संपूर्ण विश्व को एक परस्पर सहयोगी रूप प्रदान करने के अंदर एक आधार देता है,उसका बोध होना। उस बोध के प्रकाश में दीर्घकाल के प्रवाह में बनी हुई संस्कृति की विशेषताओं को शिक्षा और कला के विविध कार्यक्रमों के माध्यम से आने वाली पीढियों के अंदर संक्रमित करते हुए उन सबके मन के अंदर संस्कृति बोध को जाग्रत करना, यह हम सबका उद्देश्य होना चाहिए।
                   कमल किशोर डुकलान
                           रुड़की (हरिद्वार)