कटारमल का सूर्य मंदिर


उसके ढ़लते अंधेरा हो जाना और उगते ही उजाला फैल जाना, यह वाकई चमत्कार से कम नहीं। इसलिए सूर्य हर युग में कौतुहल का विषय रहा है मनुष्यों के लिए। पृथ्वी पर जब सूरज की रोशनी के अनगिनत फायदे अंकुरित हुए तो मानव सभ्यता ने इसे देवता मान लिया । चौंसठ करोड़ देवी-देवताओं के नाम जानने में भले ही अब किसी को दिलचस्पी ना हो लेकिन सुबह उठकर सूर्य को प्रणाम करना और जल से अर्घ्य देने की परंपरा में कमी बहुत कम आई है।  देश में विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग राजाओं द्वारा समय-समय पर सूर्य मंदिरों का निर्माण किया गया । इस तरह देश में सूर्य के बारह मंदिर हैं। स्थापत्य के अद्वितीय उदाहरण उड़ीसा के कोणार्क मंदिर से कौन अपरिचित होगा भला ! वहीं  विदेश में कंबोडिया,अंकोरवाट के सूर्य मंदिर को भी खासी ख्याति प्राप्त है। 
     हमारे उत्तराखंड के राजवंशों में भी सूर्य पूजा का बहुत महत्व रहा होगा, इसकी गवाही देता हुआ अल्मोड़ा जिले में एक मंदिर है कटारमल का सूर्य मंदिर। अपने गौरवशाली इतिहास से आने वाली पीढ़ी को परिचित कराने के प्रयत्न में राज्य का यह प्रयास रहता है कि यदि अल्मोड़ा में आयोजित होने जा रहे हैं तो एनसीसी के दस दिवसीय कैंप में एक दिन कैडेट्स को कैंप स्थल से कटारमल के सूर्य मंदिर तक की ट्रैकिंग करवायें। रास्ते में इक्का-दुक्का इंसानों और चीड़, देवदार के लंबे-लंबे अनगिनत वृक्षों के सिवा और कुछ नहीं मिलेगा। कहां जा रहे हैं और क्यों जा रहे हैं का जवाब मिलता है जब जाने कितने किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद थकान से बंद होती आंखें अचानक पलक झपकाने से मना कर देंगी ।  सामने होगा, एक बहुत बड़ा मंदिर समूह, और समूह के मध्य स्थित मुख्य मंदिर के तो कहने ही क्या ! 
       मेरे मुंह से बेसाख़्ता निकला था- कोणार्क का सूर्य मंदिर? 
हम तो अल्मोड़ा के हवालबाग से चले थे। तो क्या बीस किलोमीटर लंबी ट्रैकिंग की थकान से छाई बेहोशी में हम उड़ीसा पहुंच गए? 
 कोई कहीं से भी आए, एकबारगी सबको लगता ही है  कि यह तो कोणार्क का सूर्य मंदिर है। 
  मंदिर के पुजारी जी ने बताया था कि मंदिर पूर्वाभिमुखी है और निर्माण में  खास सावधानी बरती गई है कि सूर्य की पहली किरण मंदिर के गर्भ गृह में स्थित सूर्य देव की मूर्ति को स्पर्श करे। 
कोणार्क का सूर्य मंदिर भी इसी नियम से बनाया गया है। हजारों किलोमीटर की दूरी पर स्थित दो मंदिरों के बीच स्थापत्य का ऐसा मौलिक स्थानांतरण अद्भुत है।
कटारमल के सूर्य मंदिर का निर्माण नौवीं शताब्दी में कत्यूरी राजवंश के राजा कटारमल ने किया था। निर्माण के पीछे कई कहानियां प्रचलित हैं।  वहीं कोणार्क के प्रतिस्थापन का श्रेय सर्वप्रथम भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब को जाता है। बाद में तेरहवीं शताब्दी में राजा नृसिंह देव ने इसका निर्माण पूर्ण करवाया था। 
कटारमल की मुख्य बात यह है कि सूर्य की उपासना का भारत में संभवत यही सबसे पुराना मंदिर है। इसका निर्माण कोणार्क से भी दो शताब्दी पहले हुआ था । मंदिर में भगवान भास्कर की मूर्ति बड़ के पेड़ की लकड़ी से बनाई हुई है। बड़ अर्थात बरगद। उत्कीर्ण की हुई लकड़ी का प्रवेश द्वार भी इसकी प्रमुख विशेषता रही । जागेश्वर मंदिर में अष्टधातु की कई मूर्तियों के चोरी हो जाने के बाद से एहतियात के तौर पर अब यह द्वार दिल्ली संग्रहालय में है, और इसके साथ ही मंदिर समूह में स्थित धातु की अन्य कई मूर्तियां भी। 
लेकिन सभ्यता निवास करती है जिन पत्थरों पर उन्हें भला कोई कैसे चुरा सकता है ? चवालीस अन्य छोटे-छोटे मंदिरों की बिरादरी समेटे जाने कितनी सदियों से यह शान से खड़ा है एक ऊंची पहाड़ी पर। बिना किसी रखरखाव इसके पाषाणों में बसी आवरणविहीन स्थापत्य कला की प्राचीनता ही इसकी नित नवीन शोभा है। 
 खेद इस बात का है कि किसी जमाने में वीरान हो चुके कोणार्क के सौंदर्यीकरण ने उसे विश्व धरोहर में शामिल करवा लिया, जबकि कटारमल से उत्तराखंड के निवासी भी पूरी तरह से परिचित होंगे,इसमें शक है।
 कोणार्क को देखकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था - "यहां के पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठ है"।  कटारमल कहां कोणार्क से कम है ? फिर क्यों इस पर सब मौन साधे हुए हैं ?