ओ गंगापुत्रों!


सुनों फेसबुक के 
कागजी योद्धाओं..!
जनमंच के कर्कश भोंपुओं..!
राजदरबार के 
विषयासक्त चारणों...!
गंगा बहती रहेगी तो
मुर्दाें की इस भीड़ से
'भड़' निकलते रहेंगे
पहाड़ी स्वाभिमान के 
गढ़ संवरते रहेंगे
हमारी इन निर्जन वादियों में
शंकर बिचरते रहेंगे
हमारे शैल-शिखरों पर
कंकर महकते रहेंगे
हमारे उन्नत भाल पर
रजतशिखर चमकते रहेंगे
भावना और विचार के
भास्कर दमकते रहेंगे....
सुनों गंूगे-बहरे लोगों..!
दोष तुम्हारा भी कम नहीं है
तुम कैसे 'जनार्दन' हो?
तुम्हारी जुबान पर पसरा
ये खौफनाक सन्नाटा
और तुम्हारी सूकरबस्ती की 
ये खामोशी
इतिहास की अदालत में 
मुखर होकर
तुम्हारी कायरता के 
डरावने राज खोलेगी
तुम्हारी येे लम्बी खतरनाक तटस्थता
तुम पर 'डायनामाइट' बनकर बरसेगी
तुम्हारी आने वाली पीढ़ियां
खुशी में सहज छलकने वाले
आंसू को तरसेगी...
कभी कलकल करती
हर पल चलती थी जो
उस गंगा के छोर पर पसरा
ये डरावना सन्नाटा
तुम्हारे अन्तर्मन के 
रीतेपन की निशानी है
तुम्हारी आंखों के सामने
गंगा के चीरहरण की
एक खौफनाक कहानी है।