अहिंसा के हिंसक अनुयायी


गांधी अपने हीरो कभी नहीं रहे। विद्यार्थी जीवन में जब प्रत्येक छात्र अपना एक वैचारिक शरीर खड़ा कर उसे ओढ़ता है तो उसमें जीवन के प्रति चैबीस कैरेट की शुचिता होती है...वह समाज, राष्ट्र के लिये अर्पित होने को आतुर होता है...उन दिनों अपने कमरे में सुभाष, भगत सिंह और आजाद के फोटो होते थे...सावरकर के चित्र उपलब्ध नहीं होते थे परन्तु दुश्मन के चंगुल से निकल समुद्र में तैरकर भागने के कारण सावरकर का जाप मन ही मन चलता था... गांधी को अपन सरकारी संत कहते थे...कांग्रेसियों ने अपने आदर्श परिवार के प्रथम पुरूष नेहरू का अनुसरण करके गांधी की टोपी पर खरबों की बतोलेबाजी की...शरीर की हत्या करना यदि अपराध है, तो विचार की हत्या तो महापातक है। सच यही है...कि नाथूराम गोड्से से बहुत-बहुत पहले ही नेहरू, गांधी की हत्या कर चुके थे, गांधीवाद़ को टोपी पहना चुके थे, गांधी के ग्रामीण-स्वराज्य को इंगलिश बूटों के नीचे रौंद चुके थे। कांग्रेस की इस दुकानदारी को भांपने के कारण बचपन से ही गांधी के विचार हम बच्चों के नायक नहीं बन सके। गांधी पाकिस्तान को पांच सौ करोड़ दिलवाने के लिये कड़क हो गये, भारत विभाजन के प्रश्न पर नरम हो गये, सुभाष केे अध्यक्ष बनने पर, जलियांवाला बाग और लाजपत राय की हत्या से उपजी स्वावाभिक हिंसा पर वे कड़क रहे...और विभाजन के बाद हुयी हिंसा पर वे नरम हो गये...तुर्की के खलीफा के समर्थन में उतरने वाले कठमुल्ला अली भाईयों की पीठ पर गांधी ने हाथ क्यों रखा? साम्प्रदायिक एकता का जो बीज वे फूल समझ कर बो कर गये हैं, वह कंटीली झाड़ी बनकर राजनीति को अगम्य क्षेत्र बनाता जा रहा है। वयस्क होने पर गांधी की अनेक राजनीतिक भूलों के कारण गांधी की अहिंसा अपशब्द लगने लगी परन्तु उस समय के आमजन के व्यवहार में गंाधी के कारण जो एक देशीपन था, उस स्वयंबोध के कारण भारतीय मनीषा का जो पुनर्जागरण हुआ, गांधी का अपना निस्वार्थ जीवन जिस तरह राजनीति में एक सार्थक हस्तक्षेप करता दिखता था...उस कारण गांधी की प्रतिमा के आगे मन भीगता था/गांधी ने स्त्रियों की क्षमता का जो पुनर्मूल्यांकन किया, छुआछूत, धार्मिक-पाखण्ड का विरोध कर भारतीय मेधा को ऐन उस समय झकझोरा जब विश्व इतिहास एक नई करवट ले रहा था...परन्तु नेहरू ने राष्ट्र को अपनी करवट नहीं लेटने दिया, गांधी के स्वावलम्बन और स्वदेशी दर्शन की जड़ उन्हीं के सामने काट दी गयी/विलक्षण मेधा वाले देश को कांग्रेसियों ने गुड़मण्डी बना दिया/नेहरू को भारतीय राजनीति का केन्द्रीय स्वर बनाना गांधी द्वारा किया गया जघन्य अपराध था/गांधी के नाम पर कांग्रेसियों ने जो अरबों-खरबों का तन्त्र खड़ा किया, राष्ट्र की राजनीतिक भूमि को गांधी ब्रान्ड रसायन छिड़क कर जिस तरह बंजर बनाया गया। नेहरू परिवार ने लोगों को मूर्ख बनाने के लिये गांधी-एक्सप्रेस चलाकर देश की स्वतंत्रता को जैसी गाली  दी है, वह क्षमा योग्य नहीं है...यह उन करोड़ों भारतीयों का अपमान है जिन्होंने इस वैदिक राष्ट्र की अस्मिता के लिये अपना सर्वस्व दिया...सिंध के राजा दाहिर से लेकर साध्वी प्रज्ञा तक चलने वाले इस यज्ञ को नष्ट करने वाले कांगे्रसियों के चेहरे के ऊपर पहने इस गांधी के मुखौटे को हमें उतारना होगा
गांधी ने सत्य और अहिंसा को अस्त्र बनाकर स्वतंत्रता का बिगुल बजाया...सत्य बहुत नग्न शब्द है...वह या तो पूरा समझ में आता है जैसे कि भारतीय ऋषियों, अवतारों, सन्तों ने इसे समझा या बिलकुल नहीं आता...सत्य के साथ खिलवाड़ करना आत्मघात है...गांधी के उस सत्य को टोकरी में सजाकर नेहरू परिवार ने सत्ता का मछली बाजार खड़ा कर दिया...गांधी जब तक सत्य को छू पाते, कांग्रेसियों ने पूरी सच्चाई से राजनीति के सभी कपड़े उतार दिये...आज संसद में जब कभी भाई लोग इकट्ठा होते हैं तो दुःशासन याद आने लगता है। गांधी का दूसरा हथियार अहिंसा था...जिसका तमाशा विभाजन के समय पर स्वयं गांधी ने भी देखा...और दस लाख लोगों की निर्मम हत्या देखकर भी राष्ट्रपिता ने एक बार भी यह स्वीकार नहीं किया कि वे हिंसा-अहिंसा के दर्शन को समझने में ही भारी भूल करते रहे हैं। अहिंसा को धार्मिक आंदोलन का मूल स्वर बनाने वाले भगवान महावीर और भगवान बद्र्वमान थे। दोनों महामानवों की अहिंसा का व्यावहारिक जीवन से तालमेल इसलिये नहीं बैठ सका क्योंकि उनके अतिरिक्त शेष समाज साधारण गृहस्थ था...बुद्व की अहिंसा परम स्थिति प्राप्त योगी की अहिंसा है...और संसार में वह समय आक्रांताओं से लोहा लेने का था...रेगिस्तानी लुटेरों के हाथों अहिंसा की ऐसी दुर्गति होने के बाद भी गांधी ने यह मार्ग क्यों चुना ?/गांधी हमेशा गीता साथ रखते थे परन्तु उन्होंने सर्वाधिक उपेक्षा कृष्ण के सदवचनों की ही की...जो अंग्रेज हमें कुत्ता समझते थे, जिन्होंने सन सत्तावन में चार लाख से अधिक भारतीयों का कत्ल किया, उन दुर्योधनों के आगे अहिंसा का क्या अर्थ था...? सब भारतीय जानते हैं कि अर्जुन भी इसी अहिंसा की प्रशंसा में बार-बार गांडीव कंधे से नीचे रखता था...हिंसा-अहिंसा के इसी द्वन्द्व पर कृष्ण ने पूरे भारतीय चिन्तन को निचोड़ कर गीता में प्रस्तुत किया। भारत के वामपंथी भी यदि गीता को पढ़़ लेते तो वे माक्र्स के दर्शन से इतने अभिभूत न होते। कृष्ण, बुद्व और महावीर की हिंसा-अहिंसा माक्र्स के उस द्वन्द्व पर आश्रित नहीं है, जिसे माक्र्स और हीगल ने दूसरी-तीसरी सदी के द्वैतवादी आचार्यो की किताबों से टिपाया...कृष्ण मानवीय चेतना के शिखर पुरूष हैं...वे जानते हैं कि हिंसा कब धर्म का अस्त्र बनना चाहिये और अहिंसा जैसी परमावस्था की रक्षा के लिये कैसा समाज और कैसे लोग होने चाहिये। गांधी की अहिंसा और माक्र्स की हिंसा में जरा भी अन्तर नहीं है...बारूद और बन्दूक की भाषा वालों के सामने गांधी ने जिस अहिंसा का प्रचार किया वह मात्र रणनीति लगती है...आमरण-अनशन भी स्वयं पर की गयी एक तरह की हिंसा ही हैं...बल्कि कई अवसरों पर गांधी की अहिंसा माक्र्स हिंसा से भी अधिक हिंसक लगती है। गांधी की अहिंसा से हमें हिंसक हमलों से भी अधिक नुकसान हुआ। भारतीय चिंतन आहत हुआ, पथभ्रष्ट हुआ...और राजनीति को पाखण्ड रचने की एक नई कला प्राप्त हुयी।
आजकल कई नेता एक घन्टे का आमरण अनशन करते हैं....घर से पराठें खाकर कई दफ्तरों के हड़ताली कर्मचारी क्रमिक भूख हड़ताल करते हैं...और बाद में फोकट का जूस पीते हैं, मीडिया में हीरो बनते है। बचपन से अखबारों में गांधी के इस हथियार की लीलायें पढ़-पढ़कर लगता था कि गांधी असल में इन पाखण्डी राजनेताओं, हड़तालियों के ही पिता बन गये हैं...राष्ट्र की जो मूल चेतना थी गांधी उसके प्रतिनिधि नहीं बन सके...हमारे सभी देवी-देवताओं के हाथ में जो हथियार है, उनका अर्थ कौन समझायेगा...? साल भर में हिंदुओं के वे दो नवरात्र और उनकी अधिष्ठात्री वह देवी...जिसके अठारह हाथों में बज्र-कुल्हाड़े हंै...उस मां से हमारा समाज शक्ति और मंगल मांगता है...शक्ति हमारी हिंसा को मंगल से जोड़ती है। काली के पांडाल सजाने वाला बंगाल, माक्र्स की देशनाओं से इतना चकित क्यों हुआ.? सदियों अहिंसा को निर्मुण्ड होते देख कर भी यह सशस्त्र-दर्शन पढ़ने वाला समाज, गांधी की अहिंसा पर इतना लट्टू क्यों हुआ..? यह शक्तिपुत्रों की भूमि है...हम क्लीव नहीं हो सकते...परन्तु शक्ति को नक्सली मार्ग पर ले जाना भी कायरता है...बुद्व की अहिंसा का जो अर्थ गांधी और उसके चेलों ने निकाला वैसा ही अनुवाद यदि हम जगद्जननी का करेंगे...तो काली के खप्पर और आतंकवादियांे की चीनी रायफलों का अन्तर स्पष्ट नहीं हो सकेगा...राष्ट्रपिता के बन्दरों की तरह संसद से लेकर सड़क तक, अध्यात्म भी राजनीति की तरह खिलौना बना दिया जायेगा...