मूक वेदना का कालजयी कथानक (पुस्तक समीक्षा )


कविता की एक किताब डाक से प्राप्त हुई है। अगर किताब के बारे में पहले कुछ नहीं पढ़ा होता तो इसके शीर्षक और साइज़ को देखकर निश्चित ही इसे उपन्यास समझ बैठता। नाम है मूक वेदना का कालजयी कथानक। कवि चरणसिंह केदारखण्डी हैं। जोशीमठ महाविद्यालय में अंग्रेजी के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। महर्षि अरविंद के प्रसिद्ध महाकाव्य सावित्री पर शोध-उपाधि प्राप्त किए हैं और स्वयं भी दर्शन-अध्यात्म  की गूढ़-गंभीर और रहस्यमयी गलियों में आवागमन करते रहते हैं।


        कविता-संग्रह के प्रारम्भ में कविता के बारे में कवि ने 15 पेज की, उदाहरणों-उद्धरणों    से पुष्ट अपनी बात लिखी है। कविता और कवि को समझने के लिए ये लेख किताब से अलग हटकर भी पठनीय है। एक रास्ता है कि कविता को आप परिभाषाओं के जरिए समझने का प्रयास करें। दूसरा रास्ता है कि आप सारी परिभाषाओं को भूल जाएं, सारे कवियों को दिमाग से निकाल दें और अपनी आत्मा के गर्भगृह से निकलते स्वर को शब्दों में आकार दें। बशीर बद्र के प्रसिद्ध  शे'र का संकेत भी यही है-


आप जमाने की राह आए


वरना सीधा था रास्ता दिल का।


            जीवनदर्शन, प्रकृति और अध्यात्म तीन खण्डों में फैली 95 कविताएँ, कवि के चिंतनक्षेत्र की सीमारेखा को स्पष्ट करती हैं। छात्रजीवन से लेकर नवीनतम तक, डायरी के लगभग सभी पृष्ठों पर अंकित कविताओं को कवि ने संग्रह में शामिल कर दिया है। रचनाओं को छोड़ने का लोभसंवरण सभी नहीं कर पाते पर यह बहुत जरूरी है।  अक्सर अतीत में लिखी गयी कविता से कवि आगे चलकर स्वयं भी संतुष्ट नहीं रहता है।


          संग्रह की कविताओं की औसत लम्बाई सामान्य से अधिक है। कदाचित् ये महाकाव्य पर शोध का प्रभाव हो पर इस प्रभाव का दुष्प्रभाव कई कविताओं को भाषण, बयान या उपदेश में बदल देता है। शाब्दिक मितव्ययिता एक प्रमुख काव्यगुण है जिसे निरंतर अभ्यास से अर्जित किया जा सकता है। बहुत सारी कविताएँ तात्कालिक प्रतिक्रिया के रूप में भी हैं जिन्हें परिवर्द्धित किया जा सकता था। सहज-सरल होना अलग बात है पर सपाट होने से कविता, काव्यत्व से दूर हो जाती है।



           निश्चित रूप से रचनाकार फितरत से ही कवि है और सामान्य बात को भी कविता-सी सरस बनाकर कहने में समर्थ है। बावजूद इसके किताब और अधिकतर कविताओं के शीर्षक लापरवाही और नीरस तरीके से चुने गए हैं।


हुल्लड़बाजी में तब्दील होती हुई कविता और कवियों का भावप्रवणता से दूर होकर रंगमंचीय विदूषकों-से व्यवहार से केदारखण्डी के व्यथित होने से साफ है कि  कविता उनके लिए साध्य है साधन नहीं। और प्रमाण हैं उन्हीं की कविता के समीक्ष्य -संग्रह से  कुछ अंश -


 


        शहर और शहरियों की विडंबना को को कवि ने खूबसूरती से पकड़ा है -


इस शहर में  / कुछ लोग हैं  / जिन्हें कभी भूख नहीं लगती / और कुछ लोग ऐसे हैं /  जिनकी भूख आज तक मिटटी ही नहीं।


एक थी नदी.....एक था शहर दो पृष्ठों तक ठीक-ठाक चलती है पर तीसरे पृष्ठ पर पहुँच कर पता चलता है ये झेलम-श्रीनगर की बाढ़ पर लिखी गयी है और स्पेसिफिक हो गयी है। इसी कविता से मैंने अपनी पसंद का एक हिस्सा लिया जो किसी भी नदी किनारे बसे शहर के लिए यूनिवर्सल ट्रुथ है -


नदी हर रोज़ चीखती है / पर कोई नहीं सुनता / शहर एक रोज़ सिसकता है /


और सब सुन लेते हैं। / शहर इसी तरह डूबते हैं / चुल्लू भर पानी में।


 


कहीं कुछ नहीं बचता / कहीं कोई नहीं टिकता / जब अपना रुख बदल कर /


बदलती है एक नदी -/ भूगोल को इतिहास में / इतिहास को अवसाद में /


अवसाद को आर्तालाप में / वेद को वेदना में / तरल को गरल में /


काल को महाकाल में ...



         कवि छात्र जीवन में वामपंथ में  दीक्षित  हुआ था जिसकी झलक उसकी कुछ कविताओं में साफ दिखती है -


मैं किसान हूँ /तुम समझते हो / धरती पर फसल मैंने उगायी है /और जमीन मेरी है/


पर मैं जानता हूँ- / मैं स्वयं जमीन हूँ और बीज बन कर /


खुद उतरा हूँ धरती के   ज़िगर में / आशंकाओं का अंधेरा चीरकर /


उम्मीद का अंकुर बनकर / मैं  ही लहलहाया हूँ / गंगा के मैदानों में /


अपने बदन पर सुनहली चादर ओढ़कर।


       मात्र दो साल की अवस्था में पिता को खो चुके कवि उनको एक मार्मिक कविता में अनुभूत करने की कोशिश करता है। शुरू और आखिरी की दो-दो पंक्तियाँ ही दो पृष्ठों की लम्बी कविता का मज़मून बता देती हैं-


नेह आपका पा न सका मैं / टीस है यही तात थे कैसे! /


गुमसुम सरोज की आशाओं पर / नेह लुटाया है मैंने।


      रास्ते क्यों जरूरी हैं? तार्किक ढंग से एक कविता में समझाया गया है जिसमें चुक गई भूख, बिम्ब का प्रयोग दर्शनीय है -


रास्ते इसलिए जरूरी हैं / क्योंकि जब नहीं होती मंज़िलें / तब भी होते हैं रास्ते /


रास्तों का सबके लिए खुला रहना / रास्तों का समाजवादी होना /


उनके अस्तित्व के स्वीकार को / उनकी अग्रपूजा को / जरूरी बना देता है। /


रास्ते इसलिए जरूरी हैं।


 


मंज़िलों पर कुछ नहीं टिकता / मंज़िलों पर कुछ नहीं मिलता /


मंज़िलों पर कुछ नहीं खिलता / मंज़िलें सूखी दूब होती हैं /


मंज़िलें चुक गई भूख होती हैं। / भूख का एहसास रास्तों पर होता है /


रास्ते इसलिए जरूरी हैं।


पहाड़ी नारी की वेदना कवि कैसे महसूस करता है -


पहाड़ी नारी  / तुम्हारे असमय अवसान पर / क्रूर अन्तर्धान पर / रूठकर कहीं खो गया है / दूर जाकर सो गया है / मुझसे मेरे हिस्से का पहाड़।


प्रकृति सेक्शन की सुकून कविता वास्तव में सुकून प्रदान करती है -


शुक्र है / तितलियां पहन सकती हैं / हर तरह के कपड़े / भँवरे गा सकते हैं /


जीवन का कोई भी गीत / परिन्दे समझा सकते हैं / लय और प्रलय का अन्तर /


कितना अच्छा है कि / बादलों, नदियों, बुग्यालों / उजालों और हवा के झोंकों पर /


आदमी का हुक्म नहीं चलता।


अध्यात्म सेक्शन की ईश्वर और आदमी का अन्तर कविता में दोनों का रोचक तुुलनात्मक आकलन किया गया है -


ईश्वर ने केवल / जंगल, पहाड़, नदियां / झरने, झील और मैदान बनाए /


आदमी ने कंटीले तारों से / सुलगती सरहदें बनायी / आकाश की हदें बनायी /


यातना शिविर बनाए / कैदखाने, कत्लखाने जमाए।  


      कबीर की सहज-समाधि और उलटबाँसी से प्रेरित अंतिम आवरण पर दिया गया कवितांश निश्चित ही कवि की मास्टरपीस कविताओं में से है।


          कवि ने शोध के लिए जिस लेखक को चुना उनके जीवन के साथ एक साम्यता भी दर्शनीय है और वे ये कि जिस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन में गरम दल के प्रतिनिधि अरविंद घोष आगे चलकर दर्शन-अध्यात्म की ओर मुड़ गए थे लगभग वैसा ही परिवर्तन समीक्ष्य कवि के जीवन में  भी दिखता है। समीक्ष्य संग्रह में बहुत सारे कवितांश पाठक को झकझोरते हैं, उद्वेलित करते हैं। विचार, दर्शन, संवेदना, निसर्ग-निमग्नता और अंतर्मन के उजले पक्ष के उन्नयन की कामना उनके काव्य में सर्वत्र है। भटकाव से बचकर और विस्तार को नियंत्रित कर अगर कवि अपनी भावी कविताओं को निर्ममता से परिवर्द्धित करते हैं तो पाठकों को उनसे सुगठित, अर्थगौरवपूर्ण, कल्पनाशक्तिसंपन्न और गहरी अनुभूति की कविताएँ पढ़ने को मिलेंगी।


         कवि ने जिस मूक वेदना को आॅब्जर्व करके  सफलतापूर्वक काव्य रूप में अभिव्यक्त किया है उसी ने कालजयी कवि प्रदान किए हैं। सहज-साधना और काव्यानुरूप जीवनशैली से चरणसिंह केदारखण्डी के लिए ये लक्ष्य सहज संप्राप्य है।


श्री अरविन्द अध्ययन केन्द्र जोशीमठ द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य मात्र रु.300 है।


 


कृति   -  मूक वेदना का कालजयी कथानक


लेखक   -  चरणसिंह केदारखण्डी


प्रकाशक  -  श्री अरविन्द अध्ययन केन्द्र जोशीमठ


मूल्य   -  रु0 300/-