अब इस दुनिया को बदलना चाहिए


देवभूमि उत्तराखण्ड की आपदा सेे सम्पूर्ण राष्ट्रवासियों और विशेषकर उत्तराखण्ड के लोगों के लिए गहरे गूढ़ार्थ हैं। इस बार आपदा का केन्द्र वह पावन तीर्थ बना जहाँ सारे विश्व के लोग अपनी-अपनी सांसारिक आपदा के निवारण हेतु आते हैं। जिस केदार महालय से लोग हँसते-हँसते शिवम् का वरदान पाकर लौटते थे, आज उस तीर्थ से वे शव बनकर लौटे। निःसन्देह यह एक राष्ट्रीय शोककाल है जिसने जीवन की क्षणभंगुरता और महाप्रकृति के समक्ष आदमी के अस्तित्व के मूल्याकंन का एक  और अवसर हमें प्रदान किया है...दूर मध्य हिमालय से छूटी ठण्डे पानी की इस बौछार को हम ललकार भी समझ सकते हैं और पुचकार भी। दुःख, विछोह और वेदना से उपजा ही सही, उत्तराखण्ड हिमालय के लोगों के लिए जीवन का यह एक निर्णायक पड़ाव है। अगर हमारे पूर्वजों के संस्कार हममे जीवित होंगें तो ठण्डे पानी की यह बौछार हमारे अन्तःकरण को निर्मल बनाकर पुनः हमें शिव का प्रियपात्र बना लेगी और अगर अनाचारों की कलुषता हमारा चिर अंलकरण बन गई है तो हिमालय का सारा पानी एक साथ बरसकर भी हमें पावन नहीं कर सकता। अपनी संस्कृति, देवी-देवताओं और देवत्व संस्कारों से कट जाने वाला समाज कितना असहाय, दारूण और अनाथ हो जाता है, इसकी स्पष्ट झलक आजकल उत्तराखण्ड के लोगों के चहेरों पर साफ पढ़ी जा सकती है...। 
श्री केदारनाथ की आपदा के व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए गम्भीर मायने हैं। जिस प्रकार एक बालक बेफिक्री में अपने आँगन और गाँव की गलियों में खेलता है, लगभग उसी बेफिक्री, मस्ती और सुरक्षा के साथ मेरा बचपन श्रीकेदारनाथ की मनोरम बुग्याली वादियों में गुजरा है। महज सात माह की अवस्था में अपने पिता को खोने के पश्चात महादेव के विराट वात्सल्यमय पितृत्व में ही मैंने जीवन को जिया, जाना और समझा है। जिन्दगी के 12 साल तक अपनी पढ़ाई का खर्चा मैंने गर्मियों की छुट्टियों में बाबा भोलेनाथ के चरण की सेवा करके ही जुटाया है...सच कहूँ तो मेरे गाल पर जिन्दगी में पहला सनसनाता झाँपड़ भी केदारनाथ की वादियों में ही पड़ा है। बिना गलती के झाँपड़ सहना, बिना बात की गाली सुनना और तपती रेत पर नंगे पाँव पैदल चलना क्या होता है, यह हर किसी को नहीं समझाया जा सकता...जाहिर है मेरे पास श्रीकेदारनाथ की वादियों में सीखे गए सुख-दुःख के बेहिसाब किस्से हैं और प्रत्येक किस्से का अपना कथ्य है। इन कथ्यों और सत्यों की अनगिनत परतें सहजते हुए ही मैंने देवादिदेव महादेव की कृपा करूणा को निकटता से महसूस किया है। तभी तो आज आस-पास गूँजती वेदना की प्रति         ध्वनियों को बेहद साफ-साफ सुनकर भी मेरे लिए यह यकीन कर पाना बेहद कष्टकर और कठिन है कि आज उस रेतस कुण्ड का अस्तित्व ही मिट गया है जिसके पास दोस्तों की मण्डली के साथ जाकर जोर से 'बम-बम भोले!' का नाद करते हम एक-दूसरे से प्रतिस्पद्र्धा करते थे कि देखें किसके शब्दनाद पर ज्यादा बुलबुले ऊपर उठते हैं। 16-17 जून को श्रीकेदारनाथ सहित लगभग सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में आयी भीषण आपदा ने राष्ट्र का अन्तर्मन झकझोर दिया है। अपनी समझ और चिन्तनधारा के हिसाब से अलग-अलग विचार सरोवर इसे क्रमशः दैवीय, प्राकृतिक और मानवजन्य आपदा घोषित कर रहे हैं। जो इस बात को रेखांकित करता है कि आपदा से निपटने का हुनर तो दूर, आपदा के उपरान्त प्रतिक्रिया करने तक का शऊर अभी हमने नहीं सीखा है, अन्यथा शब्दों और संवादों की सामथ्र्य से गहरी इस पीड़ा को हम अपने-अपने वैचारिक खाँचों में ढालकर इतनी तत्परता से व्याख्यायित करने की बचकानी कोशिश कभी नहीं करते। आपदा-आपदा है और यह तो आपदा की भी आपदा है। अलग-अलग चश्मों से देखने-परखने के बाद भी इसकी भयावहता कम नहीं होगी और न वह दर्द कम होगा जिसने जीवन के प्रति हमारी आस्थाओं को ही झकझोर दिया है। दुःख की इस आपदा का जवाब, धैर्य की सम्पदा के द्वारा ही दिया जाना चाहिए। हर बार जब मुझे किसी घटना से बेहद पीड़ा पहुँचती है तो अपनी वेदना से पार पाने के लिए मैं दो तरीके अपनाता हूँ-गुरूदेव श्रीअरविन्द की रहस्यमय कविता-'सावित्री' का पाठ अथवा स्व0 जगजीत सिंह की आवाज में रामधुन का दीर्घकालिक श्रवण। श्रीकेदारनाथ की भारी तबाही का मंजर किसी खंजर की तरह सीने में चुभा और मेरी आँखे सावित्री के पृष्ठों में इस दर्द का निदान खोजने लगी। योग के पर्व में महायोगी ने लिखा है- 
मैंने ही सबका सृजन किया है
और मैं ही सबका संहार करूँगी
मैं मृत्यु हूँ-जीवन की संहारक, 
भयानक महाकाली 
मैं माया हूँ और संसार मेरा ही खेल है 
मैं एक फूँक मारकर आदमी की 
खुशियाँ छीन लेती हूँ
मैं उसके जीने का संकल्प हर लेती हूँ 
उसके सारे सपने चर लेती हूँ...
ताकि सब कुछ मिटकर पुनः 
महाशून्य बन सके 
और केवल एक सनातन ईश्वर ही 
चेतना में ठहर सके। (पृ. 535)
श्रीकेदारनाथ  में जो भी तबाही हुई उसकी भूमिका विगत दो दशकों से बड़ी तत्परता से गढ़ी जा रही थी और धाम से जुड़े सभी लोग इस पटकथा को बड़ी आत्ममुग्धता के साथ लिख रहे थे। अफसोस इस बात का है कि हमने उस शिव से कपटता दिखाई जो अत्यन्त निष्कपट, निष्कलंक और भोले देवता हैं। अपने भोलेपन के कारण ही शिव भोलेनाथ कहलाए। प्रकृति में संसार के लिए जो कुछ भी भयानक और अरूचिकर तत्व है, इस भोले-भाले देवता ने उसे बड़ी सहजता और समरसता के साथ स्वीकार किया। गले में लिपटा भुंजग, कमर में बाघम्बर, जटाओं में ठहरी प्रचण्ड गंगा और भूत-प्रेतों का अहर्निश साथ, महादेव की इस सर्वसमावेशी समरसता की साक्षी है। संसार के कल्याण के लिए उन्होनें विषपान किया और श्मशान में डेरा जमाकर इस डरावने स्थल को भी तीर्थ बनाया। हमारे धर्मग्रन्थ इस बात के प्रमाण हैं कि संसार के कल्याण के लिए जितना त्याग और बलिदान शिव ने किया है उतना किसी दूसरे देवता ने नहीं किया। 
उत्तराखण्ड का सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र शिव का मूलस्थान है इसलिए यहाँ के लोग मूलतः शिव के उपासक हंै। हिमालय का जन-जीवन, यहाँ की रीति-नीति पर बड़ी गहराई से शिवत्व का रंग चढ़ा है...यहाँ का एक-एक कण शिव के रंग में रंगा है। हिमालय की प्रत्येक चोटी शिवलिंग जैसी ही वन्दनीय है और इसके हिमशिखर हमारी देव संस्कृति के आध्यात्मिक टावर हैं जिनसे हमारे जीवन को गति-मति मिलती है। हम हिमालय के बिना अपने पहाड़ी जीवन की, अपने नुकीले सपनों की कल्पना भी नहीं कर सकते। कहना न होगा कि जब तक हमारे हिमालय में विराजमान शिव प्रसन्न हैं, तब तक हिमालय लोक का जन-जीवन हँसता मुस्कुराता रहता है किन्तु चेतना के शिखरों पर विराजमान शिव के रूष्ठ होते ही हमारे जीवन में अनिष्टांे की शुरूआत हो जाती हैै। मुझे लगता है कि श्रीकेदारनाथ की वर्तमान त्रासदी को इसी आलोक में देखने समझने की जरूरत है। इससे इतर कोई भी दृष्टिकोण हमें पुनः भटकाव की ओर ले जाएगा और सिवाय मशीनी निष्कर्षों के हमारे हिस्से कुछ नहीं आएगा। विगत कुछ दशकों में उत्तराखण्ड में स्थित चारधाम के निवासियों की अर्थलिप्सा इस कदर बढ़ी कि तीर्थयात्रा हमारे लिए 'अर्थयात्रा' बन गई। केवल अर्थ के लिए किया गया कर्म प्रायः अनर्थ के दरवाजे पर ले जाकर पटकता है, तभी तो एक-एक करके हम अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित तीर्थ परम्पराओं को लांघते गए...। 
कंकर-कंकर में शंकर के दर्शन करने जैसी देव परम्परा को बदलकर हमने साक्षात शंकर को भी कंकर समझ लिया। हमने मान लिया कि हम अपने हिसाब से मौज-मस्ती भी करेंगें और प्रातःकाल शिव को एक लोटा पानी चढ़ाकर आसानी से पटा भी लेंगें। चरित्र और आचरण का यह पतन हमारे तीज-त्योहारों, परम्पराओं, मान्यताओं, आचार-विचार और भाषा संस्कृति में साफ-साफ झलकने लगा। अतीत की गौरवशाली परम्पराओं को भुलाकर हम यात्रियों से किसी काॅरपोरेट बाॅस की तरह 'डींलिंग' करने लगे-विशेष पूजा की डीलिंग, लाइन से बचाकर चुपके से दर्शन करवाने की डीलिंग, भगवान के चन्दन प्रसाद की डीलिंग, बगैरह...बगैरह। इन डीलिंगों में जो लोग माहिर हुए वे रातोंरात 'ऐसे-वैसे' से 'कैसे-कैसे' बन गए और जो इस दौर में पिछड़ गए उन्हें 'कैसे-कैसे' के स्तर से 'ऐसे-वैसे' तक पहुँचने में कोई समय ही नहीं लगा। विडंबना देखिए इतना कुछ होने पर भी हम पहाड़ी लोग उम्मीद कर रहे हैं कि देवता आकाश से हमारे ऊपर बिजली के बजाय फूलों की बरसात करें। श्रीकेदारनाथ में फैलते अनाचार को लम्बे समय तक करीब से देखने के उपरान्त इन पंक्तियों के लेखक ने प्रतिष्ठित प्रकाशनों में 'श्रीकेदारनाथ की पवित्रता को रौंदने का आँखों देखा हाल लिखकर मध्य हिमालय स्थित इस तीर्थ में व्याप्त बुराईयों के प्रति हिमालयी सरोकारों से वास्ता रखने वाल नागरिकों  और नीति-नियन्ताओं का ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश की थी। मैंने लिखा था-'...महादेव के इन जयकारों की आड़ में अपसंस्कृति का एक बाजार भी पनप रहा है, जिसे यथााशीघ्र गम्भीरता से न लिया गया तो परिणाम घातक और चिरकाल तक कचोटने वाले हो सकते हैं'।  किन्तु अज्ञान और अंहकार में चूर होकर स्वयं को ही केदार समझने वाले लोग यदि ऐसी बातों को गम्भीरता से लेते तो सचमुच बड़े आश्चर्य की बात होती। फिर भी मुझे सन्तोष है कि मैंने निरपेक्ष होकर सच बोलने की हिम्मत की। 
16-17 जून की भयानक तबाही वास्तव में बड़ा क्रूर चहेरा लेकर आई। आफसोस की बात है कि हेलीकाॅप्टर सेवाआंे के विरोध में स्थानीय लोगों की हड़ताल के बावजूद रात-दिन करके पैदल चलते यात्रियों के रेले को रोका नहीं गया जबकि 15 जून से ही चारधाम सहित सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में रात-दिन बारिश हो रही थी। इसका नतीजा यह हुआ सीतापुर, रामपुर, सोनप्रयाग, गौरीकुण्ड, जंगलचट्टी, रामबाड़ा और श्री केदारनाथ, यात्रियों से खचाखच भर गए। मन्दिर के आसपास के कुछ भवनों को 15-16 जून की रात से ही भारी नुकसान हुआ। फिर 16 जून की शाम को 6 बजे दो हिस्सों में बंटकर आया मलवा हैलीपेड को बहाकर ले गया। 16 जून की रात तक मन्दाकिनी का जलस्तर अचानक बढ़ा और पंचगंगा संगम के दोनों पुल बह गए। साथ ही नदी किनारे बने आधा दर्जन विश्राम गृहों का भी नामोनिशान मिट गया। किन्तु फिर भी केदारपुरी में रह रहे लोगों को 17 जून की प्रातः मचने वाली तबाही के स्वरूप की कल्पना नहीं रही होगी अन्यथा वे कम से कम भैरव बुग्याल जैसे निकटवर्ती सुरक्षित स्थान पर जरूर जाते। इसके उपरान्त लगभग पौने 8 बजे शिवलोक में 10 मिनट तक महाविनाश की जो ताण्डव लीला हुई, उसे शब्दों में बयां करना मेरे बूते से बाहर की बात है और न उसकी जरूरत है। इतनी तबाही के बाद भी जिन लोगों ने समझदारी दिखाई उन्होने श्रीकेदारनाथ में ही रूककर मदद का इन्तजार किया और वह देर-सबेर ही सही, अपने घर लौट आए। किन्तु हजारों की संख्या में मजदूरों, स्थानीय लोगों और यात्रियों ने अफरा-तफरी में बुग्याली रास्ता पकड़ा और घबराहट, आॅक्सीजन की कमी, शरीर में पानी की कमी जैसी परेशानियों के कारण मौत के शिकार बन गए। रामबाड़ा, जंगलचट्टी, भीमचट्टी, और गौरीकुण्ड में भी जिन लोगों ने बचने के लिए जंगली रास्ता अपनाया उनमें बहुत कम अपने घरों तक पहुँच सके। हजारों की संख्या में ऐसे लोगों के शव आज भी त्रियुगीनारायण और केदारनाथ के बीच के जंगल में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। अफरा-तफरी से उपजी इस ना समझी के कारण सैंकड़ों घरों के एकलौते चिराग बुझ गए...बहनों के सुहाग असमय उजड़ गए और दर्जनों घर हमेशा के लिए वीरान हो गए। इस बीच इन्सानियत को शर्मसार करने वाली कुछ लूटपाट एवं महिलाओं से अभद्रता की खबरें सामने आयी, जो बेहद पीड़ादायी थी। इस कृत्य में मूलतः नेपाली मजदूरों का हाथ था जिनके साथ कुछ स्थानीय लोगों ने भी अपने लिए नर्क का टिकट पक्का किया। अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति में नेपाली किस कदर आक्रामक और हिंसक हो सकते हैं, इसका विस्तार से उल्लेख हो चुका है।
आपदा की इस वेदना ने हम केदारघाटी के लोगांे को एक दुनियाँ से दूसरी दुनियाँ में पटक दिया...मुझे आश्चर्य नहीं होगा अगर इस तबाही के बाद घाटी के सैकड़ों चेहरों पर कभी मुस्कुराहट न दिखे। 
आज जब पर्यावरण संरक्षण की बात करना एक फैशन हो गया है तब दुनियाँ के सामने इस तथ्य को रखना जरूरी है कि पर्यावरण संरक्षण तो उत्तराखण्ड की हिमालयी संस्कृति के जनजीवन का एक अभिन्न हिस्सा रहा है। गाँव-गाँव में भूम्याल और क्षेत्रपाल की स्थापना, फलदार वृक्षों को न काटने की परम्परा और वट-पीपल के वृक्षों का पूजन व संरक्षण इसी गौरवशाली जीवन संस्कृति का परिचायक है। धार-खालों में, नदी तटों पर और बुग्यालों में देवपूजन की परम्परा, ऋतु चक्र के अनुसार जीवनचर्या का पालन और प्रकृति के विधान के अनुसार आत्मविकास हमारी संस्कृति रही है। हमारे पूर्वजों का जल, जंगल और जमीन से बेहद आत्मीयता भरा नाता था। प्रकृति और पर्यावरण के प्रति 'प्रेम' जगाने के लिए उन्हें कभी भी पंजीकृत बुद्धिजीवियों और रातों-रात अपनी खाल बदलकर महान बने टोकन धारी पर्यावरणविदों की जरूरत कभी नहीं पड़ी...आज के 'भाई' लोगों की तरह पेट में एक-एक किलो मल-मूत्र संजोकर 'कलाइमेट चेंज' पर बड़े-बड़े भाषण देना उन्होंने सीखा ही नहीं। भाषणवीर बनकर विचार गोष्ठियों में बकवास करने के वजाय उन्हांेने अपने खेतो में हल चलाना ज्यादा बेहतर समझा। आज जब दारू पीकर स्त्री-पुरूष डी0 जे0 पर देवजागरों को बजाकर कामातुर होकर नृत्य कर रहे हैं 
तो मैं इस सांस्कृतिक पतन को किसी भी प्राकृतिक आपदा से बड़ी आपदा मानता हूँ। इसलिए असली सवाल आज हिमालय को बचाने का नहीं है, स्वयं को बचाने का है। हमने अपना आत्मबोध और ईमान खो दिया है...हमने स्वयं को बेचकर बहुत कुछ खरीदा है...जब से हम दलाल हुए हैं, तब से मालामाल हो गए हैं।
श्री केदारनाथ में बड़ा राक्षसी खेल चल रहा था और बड़ी बेशर्मी से चल रहा था। अन्याय और अनाचार का खुला खेल तीर्थयात्रा की आड़ 
में चल रहा था। शराब, शबाब और कबाब की बस्ती में बदल गया था महादेव का दरबार। केदारनाथ त्रासदी से बचकर आये गाँव और क्षेत्र के जिस भी व्यक्ति से मैंने इस आपदा पर चर्चा की उसका अपराधबोध से भरा एक सीधा सा उत्तर था-'कभी न कभी यह ताण्डव तो होना ही था'। मुझे यह भी पता चला कि विगत कुछ वर्षों से केदारनाथ में 'घोड़ापड़ाव' की अधिकांश दुकानें युवा नेपाली औरतें 
चला रही थीं जिनके अनाचार में शामिल होने के प्रमाण हैं। कच्ची नेपाली दारू जो पहले 'घेनुड़पाणी' में बनाकर रात को गुपचुप तरीके से धाम में लायी जाती थी, उसे कुछ वर्षों से केदारनाथ में ही बनाया जा रहा था...स्थानीय लोगों के अतिरिक्त यात्री के भेष में आए मौज-मस्ती के शौकीन पर्यटक हमारे तीर्थों को हनीमून स्पाॅट की भाँति इस्तेमाल कर रहे थे। अन्य धामों की तरह श्रीकेदारनाथ में भी बेहद अनियोजित और अवैधानिक तरीके से कंकरीट का जंगल खड़ा कर दिया गया। धाम में स्थित ज्यादात्तर विश्राम गृहों और धर्मशालाओं का मलमूत्र सीधे मन्दाकिनी में प्रवाहित किया जाता था, भले ही दिखाने के लिए शौचालय पिट बना दिए गए हों। इतना ही नहीं स्थानीय भेड़पालकों द्वारा नियमित रूप से केदारपुरी में मांस की आपूर्ति की जाती थी...पूजा-भोग की सदियों पुरानी परम्पराओं का उल्लंघन कर अपने-अपने तरीके से पूजाएं सम्पन्न की जाने लगीं। देवतीर्थों की मर्यादाओं का उल्लघंन करने में मन्दिर समिति के कर्मचारियों और तीर्थ पुरोहितों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी जबकि केदारतीर्थ के गौरव को बचाने का गुरूत्तर भार सबसे ज्यादा इसी वर्ग 
के कन्धे पर था। केदारपुरी से बचकर लौटे मेरे मित्रों ने बताया कि मन्दिर के आसपास इतने शौचालय बन गए थे कि जिस पावन 'उदककुण्ड' में श्रीकेदारनाथ जी का चरणामृत बहकर आता था, उस कुण्ड से मलमूत्र आने लगा। कुछ लोगों द्वारा 12 से 16 जून के     मध्य हड़ताल की आड़ में बार-बार मन्दिर की पूजा व्यवस्था में अड़चने डाली र्गइं...कुछ ने दुर्मति के शिखर पर जाकर मन्दिर का मुख्यद्वार तक बन्द करने की कोशिश की...बारिश के कारण धाम में ठहरे हुए तीर्थयात्रियों से रहने-खाने का मनमाना दाम लिया गया। वर्ष 2006 में अगस्त्यमुनि से पवनहंस की उड़ानों के साथ शुरू हुआ हैलीकाॅप्टर उड़ानों का सिलसिला जून 2013 तक 10 कम्पनियों तक जा पहुँचा और वन्य जीव विहार होेने के बावजूद 20 हैलीकाॅप्टर प्रतिदिन इस अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्र में 100 उड़ाने भर रहे थे। भूवैज्ञानिकों का स्पष्ट मानना है कि इस गैरवाजिब शोर का केदार ग्लेशियर पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा। जल विद्युत परियोजनाओं की आड़ में पहाड़ के सीने को छलनी करने और पानी के प्राकृतिक रास्तों के साथ मनमानी करने की कीमत भी इस आपदा में हमने चुकाई है। 
कभी जोगियों की साधनास्थली रहा गौरीकुण्ड (स्थानीय भाषा में गौरीकुण्ड को 'चुफलकटियों का गाँव' कहा जाता है) भोग और व्याभिचार की मण्डी में बदल गया था। अपने 'नजीमाबादी दोस्त' की दुकान से मोबाइल पर एक पोर्न फिल्म डाउनलोड करने के बदले हमारे पहाड़ी लड़के खुशी-खुशी 200 रूपये तक चुका रहे थे। गौरीकुण्ड में नेपाली औरतें खुलेआम अनाचार में लिप्त थीं और नेपाली लड़के बिना रोक-टोक के होटलों और ढाबों में कच्ची शराब की आपूर्ति कर रहे थे। घोड़े-खच्चर, कण्डी-डण्डी मजदूरों से लेकर रामबाडा के मालदारों तक, किसी ने अपनी तरफ से कोई कसर नहीं 
छोड़ी। और आज जब महादेव ने सबका कारोबार ठप कर दिया है तो शिव के जीवन में वे लोग अपना मूल्य खोज रहे हैं जिन्होनें अपने जीवन में शिव का कभी कोई मूल्य नहीं समझा। भंते! सृष्टि के महाविधान में अकारण, अनायास और अचानक कभी कुछ नहीं होता। हर विनाश की पटकथा आदमी लिखता है और पटाक्षेप स्वयं ईश्वर करता है। 
अब जब आपदा बीत चुकी है तो यह समय है, केदार घाटी के साथ -साथ सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के पुनर्निमाण का। जिनके सपने उनकी सांसों में धड़कते रहते हैं उनका संसार देर-सबेर संवर ही जाता है इसलिए हमे जीवन के प्रति आदमी के विश्वास को फिर से जगाना होगा। आदमी के साथ जीवन नहीं मरता और जब तक जीवन नहीं मरता तब तक कुछ नहीं मरता। हमारी असली परीक्षा अब है। केदारघाटी के लोगों! सदाशिव बाबा केदार ने हमें सबसे ज्यादा प्यार दिया है इसलिए आज जब सबसे ज्यादा मार भी हमें ही सहनी पड़ी है तो शिकायत का कोई आधार नहीं बनता। आओ! कुछ पल सम्भावनाओं की इस डरावनी असुरक्षा में जिएं क्योंकि जिन्हांेने जिन्दगी को जिया है, उनका मानना है कि असुरक्षा से बड़ी कोई सुरक्षा नहीं होती और सुरक्षा से बड़़ी कोई असुरक्षा। मीडिया के एक वर्ग द्वारा लगातार किए गए नकारात्मक चित्रण से केदारघाटी और देवभूमि का गौरव आहत हुआ है। जिसकी रही-सही कसर धर्माचार्यों के अनावश्यक और असमय दिए गए बयानों ने पूरी कर दी है। 'राहत' के द्वारा हताहत की तो मद्द की जा सकती है किन्तु 'आहत' की नहीं। आहत के लिए कोई राहत नहीं होती। आहत को तो केवल अपनत्व के द्वारा ही मनाया जा सकता है...इसलिए इस आपदा में केदारघाटी में जिस किसी ने भी (विशेषकर मातृशक्ति ने) भूख, वेदना, अपमान और अवसाद झेला है, केदारघाटी का एक मामूली धूलकण होने के नाते मैं उन सभी से माफी माँगता हूँ। मैं शर्मिन्दा हूँ, वास्तविक पीड़ित न होने के बावजूद आपदा राहत की गाड़ियों पर चील कौवों की तरह टूटते और आपस में मरते-कटते देवभूमि हिमालय के लोगों को देखकर। गुरूजी डाॅ0 भगवती प्रसाद पुरोहित ठीक ही कहते हैं कि दान आदमी को नादान बना देता है। हमारे जीन में तेजी से घुसती जा रही यह मुफ्तखोरी, हिमालयी संस्कृति के लिए शुभ संकेत नहीं है। अन्त में मेरा नीति नियन्ताओं से आग्रह है कि श्रीकेदारनाथ का पुनर्निमाण बेहद सावधानी पूर्वक किया जाना चाहिए। आपदा पीड़ितों के आर्थिक भविष्य का ध्यान रखते हुए मन्दिर परिसर को उसके प्राचीन सांस्कृतिक परिवेश के अनुसार विकसित किया जाना चाहिए। मेरा यह भी मत है कि चारधाम यात्रा को उत्तराखण्ड की आर्थिकी की रीढ़ के तौर पर विकसित नहीं किया जाना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अर्थयात्रा के रास्ते एक हजार हो सकते हैं किन्तु तीर्थयात्रा का रास्ता केवल एक होता है। इस सन्दर्भ में हम दो चार बातें अपने पड़ोसी राज्य हिमाचल से सीख सकते हैं जहाँ राज्य की आर्थिकी की रीढ़ तीर्थ-मन्दिर न होकर लोगों की श्रमशीलता है। ऐसा कोई कारण नहीं कि उत्तराखण्ड में हिमाचल की तरह बागवानी, पुष्पोत्पादन, फलोत्पादन,नकदी फसलें, जड़ी, बूटी, कुटीर उद्योग और स्थानीय स्तर पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के मर्यादित उपयोग पर आधारित छोटे-छोटे कुटीर उद्योग न चलाए जा सकंे। 
इसके लिए हमारी सरकार को जीवटता के साथ मार्गदर्शन और कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करना होगा और दिनभर कैरम और ताश खेलते निठल्ले पहाड़ी लोगों को अपना हाथ पाँव चलाना सीखना होगा...मैंने सुना है कि जिस राज्य में लोगों के हाथ पैर चलते हैं उस राज्य में उनकी किस्मत उनके हिसाब से चलती है। पर्यटक स्थलों को चिन्हित कर उनका पृथक विकास और प्रचार'-प्रसार किया जा सकता है किन्तु किसी भी सूरत में तीर्थस्थलों से उनका घालमेल नहीं किया जाना चाहिए अन्यथा एक बार फिर वहीं विकृतियों का भष्मासुर खड़ा हो जाएगा जिसने हमारी आकृतियों को आतंकित कर आज हमारे जीवन का सहज उल्लास छीन लिया है...
सम्पूर्ण केदारतीर्थ में आज एक बार फिर गहरी शान्ति छा गई है...भ्रान्ति के आभासी आवरणों को चीरती, तम के अट्टाहस को लीलती, अहं के आधिपत्य को जीतती सदाशिव को यह निष्कपट शान्ति बहुत प्रिय है...शान्ति! यानी दूर अम्बर में उत्पन्न जीवन का पहला मंत्र। शान्ति! यानी वेद के उल्लास गीतों से नवसृजन की पंखुरियों को पंख देता नाद। शान्ति! यानी जगमगाहट भरे जीवन की पहली और आखरी कमनीयता। शान्ति! यानी नाना- विध हिचकोले खाते जीवन नैया के पतवारों का आखिरी गीत। संसार की प्रीति श्मशान तक और उसके बाद एकमात्र सहारा केवल शिव की शान्ति! शिवलोक में विचरने के लिए या तो शिव होना पड़ेगा या फिर शान्ति। जो शिवमय और शान्तिमय नहीं है वह सदाशिव का प्रिय पात्र नहीं है और जो शिव का प्रियपात्र नहीं है, वह जीते जी शव है, शून्य है। उठ मन! सुन गीता की धुन-'कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त प्रणश्यति'। अवगुन जो सदाशिव के द्वार पर है पर सदाशिव का नहीं है, उसका ठौर कहाँ है? केदार हो या काबा, उसे कौन बचा सकता है?