अध्यात्म ही है भविष्य का विज्ञानं


आस्ट्रेलिया के क्रिकेटर और भारतीय टीम केे पूर्व कोच ने  कुछ वर्ष पूर्व क्रिकेट के बहाने भारतीय संस्कृति पर आपत्तिजनक कटाक्ष किया है। उन्होंने कहा कि हम भारतीय माता-पिता, शिक्षक की ऊंगली पकड़ कर चलने वाले लोग हैं...हम इस कारण जिम्मेदारी से भागते हैं...हम नेता होना नहीं जानते...और इन सबका दोष उन्होंने भारतीय संस्कृति पर डाल दिया है...यह चैपल की शिक्षा का दोष है...पश्चिम में संस्कृत अर्थात् शुद्ध होने की परिभाषा भारतीयों से एकदम उलट है...ग्यारहवीं सदी तक भी पश्चिम, चर्च के पंजे में था...चर्च की मान्यतायें ही उनके कानून थे...स्त्री को मत देने का अधिकार नहीं था...उसे 'परसन' नहीं समझा जाता था बल्कि उसकी हैसियत मात्र एक दासी की थी...विज्ञान-उदय के अपने आरम्भिक काल में भी अनेक दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, खगोल वैज्ञानिकों, गणितज्ञों को पश्चिम में अनेक यातनायें सहनी पड़ीं...परन्तु धीरे-धीरे जब पश्चिम का परिचय ग्रीस और भारतीय मेधा से हुआ तो उसने नई करवट ली...वैज्ञानिक अविष्कारों से चमत्कृत समाज ने विज्ञान को अपना नया धर्म मान लिया...चर्च हाशिये पर चला गया...पश्चिमी समाज ने मान लिया कि दुनियां में विज्ञान ही अन्तिम सत्य है क्योंकि वह प्रत्यक्ष है और धर्म एक पाखंड है...विज्ञान की यह बात वैश्विक समाज को अपील कर गई...सारी दुनिया के लोग विज्ञान के पीछे गोलबन्द होने लगे...विज्ञान पश्चिम की संस्कृति का प्रतिनिधि बनकर छा गया और अध्यात्म क्योंकि जनसाधारण की बौद्धिक क्षमताओं से अत्यन्त दूरी पर खड़ा था...तो सभी ने उसे एकसुर में पोंगापंथी कहकर डस्टबिन में डाल दिया...चैपल उसी जनसाधारण की संस्कृति के यात्री हैं...इसी कारण वे भारतीय संस्कृति के उस विराट वृक्ष पर पत्थर फेंक रहे हैं जो इस विश्व के भविष्य का एकमात्र विज्ञान है...
चैपल के इस वक्तव्य को समझने के लिये हमें पश्चिम के वैज्ञानिक दर्शन की एक झलक देखनी होगी...डार्विन, माक्र्स और फ्रायड ने पश्चिमी समाज को सर्वाधिक आन्दोलित किया...ये सभी विचारक मानते हैं कि जगत का विकास निम्न से श्रेष्ठ की ओर हो रहा है यानि हमारा अतीत पिछड़ा था और हमारा भविष्य और विकसित होगा। अर्थात् हमारा उद्गम छोटा व अविकसित है और अन्त का शिखर श्रेष्ठ होगा...लेकिन भारतीय मनीषा इससे एकदम उलट है...गीता के अध्याय-15(1) में कहा है...'उध्र्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्...' (जिसका मूल ऊपर की ओर तथा शाखाएं नीचे की ओर है, ऐसे संसार रूप पीपल के वृक्ष को अविनाशी कहते हैं-तथा आगे की पंक्ति में कहा है कि इस वृक्ष के पत्ते ज्ञान है...आदि) गीता कहती है कि सत्य उल्टा खड़ा है...हमारा मूल ऊपर है यानि श्रेष्ठ है...पेड़ की जड़ स्रोत है...उसी से जीवन आता है...और जो पेड़ उससे विकसित हुआ है उसे हम पतन कहते हैं...और ज्ञान रूपी पत्ते तो और भी दूर है...अगर पश्चिमी दार्शनिकों की बात माने तो सारा जगत जब पूर्ण विकसित होगा तो अपने शिखर (परमात्मा) पर होगा...लेकिन भारतीय दृष्टि कहती है कि परमात्मा प्रथम है और जो संसार दिख रहा है वह विकास नहीं पतन है...इसलिये यदि अन्तिम को पाना है तो मूल की ओर यात्रा करनी होगी...पश्चिम, जगत का विकास रेखाबद्ध मानता है...हम उसे वर्तुलाकार मानते हैं। वर्तुलाकार संसार तरंग की तरह (भैरव) सदा घूमता रहता है...जन्म और मृत्यु विकास और पतन का वर्तुल है यह संसार...इस तरह से संसार भी अविनाशी है...परमात्मा भी अविनाशी है परन्तु वह संसार की तरह जन्म नहीं लेता। डार्विन ने जिस रैखिक विकास की बात की है, वह एक कमजोर व्याख्या है...माक्र्स स्वयं कहता है कि यह संसार गत्यात्मक है, द्वन्द्वान्तमक है...लेकिन उसे अपने सिद्धान्त से इतना मोह था कि वह कहता है कि सब कुछ बदल रहा है पर जब समता आयेगी तो वह नहीं बदलेगी...यह अवैज्ञानिक निष्कर्ष है।        संसार के विकास को अविनाशी और वर्तुलाकार मानने के कारण, हमारा प्रथम ही अंतिम भी होता है...वैसे विज्ञान इसकी हंसी उड़ायेगा..कि वृक्ष तो बीज का विकास है, अभिव्यक्ति है और उपनिषद इस जगत को उल्टा वृक्ष कहता है यानि हम जितना संसार की ओर बढ़ेंगे उतना परमात्मा (मूल) से दूर होते जायेंगे...हमारा पतन होगा...परन्तु यह वृक्ष भले ही उल्टा हो पर अपने मूल (परमात्मा) से जुड़ा है...पत्तों शाखाओं का मूल से अलग होने का कोई उपाय नहीं है। संसार विपरीत हो सकता है परन्तु परमात्मा का अभिन्न हिस्सा है। इसी कारण पूरब संसार को पतन कहने के कारण त्यागवादी तो हुआलेकिन वह परमात्मा को संसार का शत्रु भी नहीं मानता...क्योंकि मूल से ही जीवन और रस-रसायन आ रहे हैं...ओशों कहते हैं कि परमात्मा अगर उल्टा खड़ा हो जाये तो संसार है और संसार अगर सीधा खड़ा हो जाये तो परमात्मा है...जबकि पश्चिम में संसार और पदार्थ ही विकास का प्रतीक है। इसी दार्शनिक फीडबैक के कारण वहां 'इकट्ठा' करना विकास है, सत्य कहीं भविष्य में है...और इस संसार को ही अत्यन्त विकसित होकर एक दिन सत्य और परमात्मा तक जाना है...इस दार्शनिक दृष्टि में मूलभूत अंतर होने के कारण ही पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों का विकास हुआ है...दोनों समाजों की जीवन दृष्टि में मूलभूत अंतर आ गया है...पूरब सदा ही माता-पिता को आदर देता है, पश्चिम में वैसा नहीं है, क्योंकि हम मूल को श्रेष्ठ मानते हैं...मूल से ऊपर जाने का कोई उपाय नहीं है...कोई बेटा कितना ही बड़ा हो जाये उसे अपनी मां के चरण छूने हैं...परन्तु पश्चिम में मूल तो दबा हुआ है, शाखायें तनकर खड़ी हैं...वे अपने फैलाव को ही विकास मानती हैं...मूल से स्वयं को श्रेष्ठ मानने के कारण ही वहां माता-पिता का आदर नहीं है...माता-पिता जिस तरह हमारे मूल हैंे उसी तरह इस जगत का मूल परमात्मा है...पश्चिम ने उसे अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों के वृक्ष के नीचे जमीन में दबा दिया है...इस कारण वह ब्रह्माण्ड के स्रोत को भी चुनौती दे रहा है। तात्कालिक उपलब्धियों के कारण वैश्विक समाज सभी प्रश्नों के हल के लिये विज्ञान का मुंह ताक रहा है। वह अपने स्रोत से कट रहा है। ज्ञान रूपी पत्तों में भटक रहा है। ज्ञान तो वासना से भी दूर है...और पश्चिम ज्ञान के अहंकार में ही जी रहा है...ईश्वर को नकारने वाला पिता को क्या मानेगा?    चैपल ने शायद फ्रायड को पढ़ा होगा...फ्रायड कहता है कि हर बेटा अपने मां-बाप से नफरत करता है, मूल को लोग घृणा करते हैं...क्योंकि हमारा जन्म हमारी मां-बाप की वासना का प्रतिफल है...हमारा मूल एक शुक्राणु से आया है, इसी कारण हमें मूल 'हीन' लगता है...परन्तु फ्रायड यह समझने को तैयार नहीं है...कि जिस काम की वह निन्दा कर रहा है उसी से बुद्ध और कृष्ण भी पैदा हुये। क्योंकि मूल की ऊर्जा का यदि सही उपयोग हो, उसे जीवन में निरंतर स्थान मिले तो प्रत्येक व्यक्ति दिव्य हो सकता है...भविष्य में विश्वास करने वाला पश्चिम, मृत्यु का विश्वासी हो गया जबकि हम जन्म में विश्वास करते हैं...जो लोग अपने जन्म के क्षण का अनुभव कर लेते हैं वे मूल को समझ लेते हैं। उनका व्यवहार भी बच्चों जैसा निष्कलंक हो जाता है...क्योंकि बच्चा उस परम स्रोत से सर्वाधिक निकट होता है...मां-बाप का बच्चों के प्रति प्रेम सहज है...क्योंकि बच्चा उद्गम के निकट है...बच्चे को प्रेम देने के लिये मनुष्य होना जरूरी नहीं हैं...पशु भी ऐसा करते हैं...लेकिन बच्चे जब मां-बाप को प्रेम करें तो यह बहुमूल्य घटना है...यह प्राकृतिक चक्र से विपरीत घटना है...बच्चे निर्दोष और सरल होते हंै इसी कारण प्रिय होते हैं....परन्तु सभी प्राचीन संस्कृतियांे ने माता-पिता को आदर और प्रेम करने के संस्कार देने की बात कही है...यह बात चैपल को समझनी होगी कि पिता हमारा उद्गम है, शिक्षक हमारे ज्ञान का स्रोत है...उद्गम को 'ट्रेसपास' करने का कोई उपाय नहीं है...कोई भी व्यक्ति अपने उद्गम से ऊपर नहीं जा सकता...कोई भी वृक्ष अपने बीज से अधिक नहीं हो सकता...मूल से 'विकास', कभी बड़ा नहीं हो सकता। यही उपनिषदीय देशनायें भारतीयांें के संस्कार में हंै। इसी कारण वे अपने माता-पिता का आदर करते हैं...बुद्ध समस्त ब्रह्माण्ड के अधिपति होने के बाद भी सबसे पहले अपने पिता के चरण छूने घर लौटे...पिता से हमारी दूरी तीस-चालीस वर्ष होती है, और पश्चिम में जब उसी की उपेक्षा हो रही है तो अन्तर्यात्राओं से विपरीत दिशा में पदार्थ की यात्रा करने वाले पश्चिमी समाज में परमात्मा तो जैसे अरबों-खरबों वर्ष दूर हो गया है...पिता को मूढ़ मानने वाले तो ईश्वर को महामूढ़ ही कहेंगे। जिस समाज में भी माता-पिता के प्रति श्रद्धा कम हागी, उस समाज में ईश्वर का भाव अपने आप खो जाता है, क्योंकि ईश्वर तो आदि उद्गम है। चैपल के चेले अपने देश में भी कम नहीं हंै...मैकाले की बोई हुयी नर्सरी में तैयार एक पूरी पीढ़ी जो भारत में जन्म लेकर भी चैपल की तरह बड़ी हो रही है...वह एक दिन उपनिषदों की तरह मां-बाप को भी डस्टबिन में डाल देगी...उद्गम की ओर देखने और सोचने की शिक्षा देने वाला अध्यात्म तो अब भारत में 'सांप्रदायिक' हो गया है...घर अब बूढ़े माता-पिता  के कारण गरिमा नहीं पाते...बल्कि मिस्टर और मिसेज की नेम प्लेट वाली ऊंची दीवार के पीछे आज जो घर भारत में बन रहे हैं...उनमें मां-बाप से बड़े बच्चे होते हैं। उपभोक्ताओं से लैश उस घर में उद्गम का सूर्य पश्चिम में चला गया है और पश्चिम के रंग में रंगे उस नये सूर्य को अघ्र्य देने के लिये भारत की नई पीढ़ी 'क्यू' लगाये खड़ी है...पश्चिम के प्रति यह अहोभाव असल में हमारी स्मृति के नष्ट होने का संकेत है...