अड़ोस पड़ोस (गढ़वाली व्यंग्य )


गढ़वाली साहित्य के एक मात्र स्थापित व्यंग्यकार (और भी हों लेकिन मेरे अध्ययन में नहीं आये) नरेन्द्र कठैत का यह समीक्ष्य व्यंग्य संकलन 'अड़ोस-पड़ोस' संयमित आकार तथा विविध स्वादों भरे 20 निबंधों का उपहार है। उपहार इस मायने में कि 'अड़ोस-पड़ोस' में संकलित निबंधों में अभिव्यक्त विचार पूरे मानव-समाज को अपने विगत वर्तमान और भविष्य के संबंध में सोचने पर मजबूर करते हैं। 'द्वी शब्द' में नरेन्द्र कहते हैं- ''अड़ोस-पड़ोस'' रिस्तों कि बुनियाद छ।...हर क्वी खास छ।... अड़ोस-पड़ोस छ त् हमारि साँस छ,साँस दगड़ि मनख्यात छ।''/...जंजाल छ पर जेल नी छ।... अड़ोस-पड़ोस दुख तकलीफ मा भगवान छ।... इसी कारण नरेन्द्र अपने से ज्येष्ठ साहित्यकारों को विनम्रता से स्मरण करते हुए अपने 'द्वी सब्दों' को विराम देते हुए लिखते हैं- ''अड़ोस-पड़ोस भरसक कोशिश करीं छ।... क्वी कमी रैग्ये होवु त् आशा चा आप अपड़ा सुझौ जरूर लिखल्या।../पवांण (श्रीगणेश) अर्थात् भूमिका शिवराज रावत 'निःसंग' द्वारा लिखी गई है। भूमिका के अन्त में निःसंग जी लिखते हैं...सब्बि निबंध मनखि/समाज तैं दिशा देण वाळा छन...यूं व्यंग्यात्मक रचनाओं की आत्मा तैं गैर से समझणे आवश्यकता छ' आदि...
संकलन के पहले निबंध ''घोड़ा अर गधा'' के माध्यम से नरेन्द्र का मानना है कि अंग्रेजों के जमाने में जो क्लर्क थे वे आज भी अंग्रेजियत ढो रहे 'घोड'़े हैं और जिनसे याने आम जनता जो उस समय अनपढ़ खेतिहर या सैनिक आदि थे आज भी ''गधे'' की तरह जीवन यापन कर रहे हैं। इसीलिए सब कुछ समझते हुए भी आम आदमी दर्द व्यक्त कर रहा है -''जु पैली घोड़ा छा वु आज बि घोड़ा छन गधा त हौरि फुण्ड चल गैनी।'' याने मंहगाई, बेरोजगारी, प्रदूषण आदि की मार गधों को ही सहनी पड़ रही है। कुल मिलाकर गोरे अंग्रेज चले गये अब काले अंग्रेजों की शोषणनीति बरकरार है। ''स्पीड'' के माध्यम से नरेन्द्र कहते हैं 'चाल' ही नहीं उत्पादन, भ्रमण, भ्रष्टाचार, प्रदूषण, ऐश-आराम और यहां तक कि मृत्यु भी 'स्पीड' पकड़ चुकी है। द्रष्टव्य है- ''आम आदिमा पेट फाड़ि सड़क चैड़ी अर लदोड़ खैंची लम्बी ह्वे गैनी। तौंका अरमान कुर्ची हम 'स्पीड' तक पौंछ ग्यां।'' (भ्रष्टाचार/प्रगति)।...गिच्चु बन्द कैकि बि कब तक रखण। क्वी नि पुछणु तब बि गिच्चू खुल जान्दू। इलै गाड़ी जख पिटरौळ पेणी छन हम धुवां सपोड़ना छाँ'' (प्रदूषण/टूरिज्म)।...''सि हमतैं सड़का फैदा गिणाणा छा कि भेल उन्द लमड़ी पराण छोड़ल्या त् एक लाख, अधमरा रैल्या पच्चास हजार अर मामूली चोट फटाक मा दसेक हजार कक्खि नि जन्दन'' (इंश्यारेंस/टूरिज्म) ''भोटबैंक'' तीसरा निबंध है। ''वोट'' प्राप्त करने हेतु कोई भी नेता उसका ऐजेन्ट कितना भी पतित हो सकता है। वह पशु क्या मनुष्य के प्राण भी हर सकता है। हर रहा है।/''इन्द्रन दधीच्या हडगोन बज्र बणैकि जुद्ध लड़ी पर जुद्ध जितणा बाद महिर्षिस्या हड़गा फुण्ड धोल देनी। इन्द्रन, न दधीच्या हडगों कु मोल समझी अर न तौंकी त्यागै भावना जाणि। रौत जी बि सर्रा जिन्नगी ढाँगै ताकत खैंची मोह माया जोलमा रौंस खिलणा रैनी। अर बुढेन्ददां ढाँगू खौरि खाणु छोड़ दे।'' - ये पक्तियां ''रौतु ढांगु मोरि बल अपड़ि खुसिन'' निबंध की है।
उत्तराखण्डियों की स्थिति भी आज रौतु (बूढ़े बैल) जैसी ही है। जिन लोगों ने स्वतंत्रता से लेकर उत्तराखण्ड बनने तक जान की बाजी लगाई वे आज ढाँगू (बूढ़े बैल) की तरह उपेक्षित हैं। पांचवे निबंध ''तीर तिकड़म'' में कठैत ने नाप-तौल के निचोड़ा कि ''सर'' और 'कर' आमजन का ही शोषण करते हैं। यथा-''हाँ भूला! बोल्यूं बि त च-गरीबै जोरू सब्यूं कि बौ।'' बहुत ही व्यंग्याात्मक नाटकीय शैली में गढ़वाली बुद्धि विचार पर गुदगुदी ली है ''रूजगार काँ नै है'' निबंध में। स्पष्ट किया है कि गढ़वाल उत्तराखण्ड में बहुत-बहुत रोजगार है पर स्वयं को अन्वेषित तो करो। ''कुत्ता'' मनुष्य की स्वार्थपरता पर व्यंग्य है ''उमाल'' में टूटते परिवार और उजड़ती खेती पर चिंतनीय चिंतन है। आज समाज इस कदर विभ्रंशित है कि किसी की मदद करना भी अपने लिए आफत मोल लेना है। यही कुछ विचार ''इमरजन्सी'' में अभिव्यक्त है और राजनैतिक विद्वेष की भावना पर गहरी चोट करते हैं, ''अपड़ा-अपड़ा देश निबंध में। 
''क्या मिली?'' में भौतिक सुख की तरफ दौड़ने वाले रामलाल की तरह धोखा ही खायेंगे और उसके नालायक लड़कों की तरह धोखे में ही जीते रहेंगे। ''सांड'' भी लगभग इसी विचार का वहन करता है।
तेरहवें क्रम पर ''रूजगार गारन्टी '' में ग्रामीण मजदूरों को सही पारिश्रमिक मिलने की कोई गारन्टी नहीं है। सरकारी चोर मूसे कहीं न कहीं से कुतर ही जाते हैं। इसी तरह ''हमारा अगल-बगल'' में यह विचार उभरे हैं कि उत्तराखण्डी अपनी भाषा-संस्कृति को बिसराकर दूसरों की जूठन खाकर मूंछें ऐंठ रहें हैं। प्रजातंत्र में नककटे ही शायद तंत्र को चला रहे हैं ज्ञानवानों को मूर्ख बनाकर ऐश कर रहे हैं। जिसकी लाठी उसकी भैंस की उक्ति चरितार्थ हो रही है ''बगछट दिदा घमसट बौ'' अभिव्यक्ति दे रही है। जबकि हम छोटी-मोटी में ही फँसे रहते हैं और चीन जापान आदि देशों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात आशातीत उन्नति करली है ''सुलार म्यरू ब्यो त्यरू'' स्पष्ट करता है।
लेखक को ''पाइ'' निबंध लिखने की प्रेरणा शायद एक भारतीय पुराने सिक्के के अचानक मिलने से प्राप्त हुई। पर उससे एक 'टीस' उभरी कि आज भी रूपये की कद्र डाॅलर के समक्ष दो कौड़ी की भी नहीं! ''उठा, जागा, गाळि देण सीखा'' में आज की युवा पीढ़ी व राजनीति में जो अभद्रता व्याप्त हो गई है, उस पर प्रहार है। आखिर में दो निबंध ''हैसत'' और ''धै'' बिटि मोबाइल तक'' ये उत्तराखण्ड की अर्थव्यवस्था पर दीमक की तरह लग चुके हैं। ''हैसत'' में दारू पिलाना और पीना हैसियत है। और अब 'मोबाईल' संस्कृति को स्पष्ट करते नरेंन्द्र दिखा रहे हैं- ''अब त दिन मा गौं गाळों म गोर-भैंसा कम रमाणा, मोबाईल जादा। रात मा बिनिनारा कम बसणा, मोबाइल जादा।'' और  पोस्ट किया गया ''पोस्टकार्ड'' पते पर पहंुचेगा कि नहीं...अब इसका पता आप स्वयं करें...। शैली की दृष्टि से ''अड़ोस-पड़ोस'' के सभी निबंध लगभग संवाद शैली में लिखे गये हैं। जिससे एक पात्र स्वयं पाठक सहसा ही बन जाता है और उसे निबंध अपने से लगने लगते हैं। भाषा की तरफ गौर करें तो इन निबंधों में पौड़ी-श्रीनगर की जानी-पहचानी मयळदी बोली है। हम सलाणियों को कहीं-कहीं अटपटी सी लगती हुई भी अपनी मिठास देने में औदार्य है। नरेंन्द्र का एक स्वाभाविक गुण है कि उसकी भाषा मुहावरे व उक्तियां बुन देती हैं। इन निबंधों में भी ऐसे कई उदाहरण हैं। दृष्टव्य है...''ताकत बजन नप्दी दिमाग तिकड़म दिख्दू।''(पेज-5)
अब कहते हैं न कि ''वांद च पर भेंगि च''। किसी खूबसूरत वाला के गाल पर तिल हो तो खूबसूरती में चार चाँद लगा देता है। लेकिन साहित्य में ये सब नहीं चलता। कहने का आशय ये है कि कहीं-कहीं उलझाव भी हैं। यथा- पहले ही निबंध में पहला ही अुनच्छेद उलझाव को स्पष्ट करता है। आप किसके आगे खड़े हुए? क्यों खड़े हुए? वह आपको क्यों नहीं पहचानता? इसी प्रकार-''इमरजंसी'' में जिन किस्सों को जोड़ा गया है उनका ''इमरजन्सी'' से सीधा सम्बन्ध मुझे तो नहीं लगता! यों तो प्रतीकों व फँतासियों के माध्यम से लिखे गये व्यंग्य को समझना सामान्य  पाठक ही नहीं, अच्छे-अच्छों की बस की भी बात नहीं है लेकिन व्यंग्य लेखक को अपनी बात सरलता से ही पहंुचनी चाहिये क्योंकि व्यंग्य स्वयं में ही व्यंजनात्मक होते हैं उन्हें प्रतीकों व फँतासियों के मार्फत प्रस्तुत किया तो आम पाठक उसके रसास्वादन व शिक्षा से वंचित रह जायेगा। विशेष कर गढ़वाली भाषा तो अभी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत् है। यों भी लेखक की अपनी वैशिष्ट्यता  होती है भाई कठैत -'इश्क पर जोर नहीं..!' कुल मिलाकर नरेन्द्र कठैत की ''अड़ोस-पड़ोस का उत्तराखण्डीय पाठकों में स्वागत होगा। निबंधों की कोटि को देखते हुए मूल्य मात्र एक नोट याने त्े 100/त्र कोई ज्यादा नहीं है। आशा जी के आशीर्वाद से आभास-यथार्थ ने इसे प्रकाशित कर सुप्रसिद्ध चित्रकार बी. मोहन नेगी जी से अन्वार बनाई। जिसे पौड़ी के पब्लिक प्रिंटर्स एण्ड स्टेशनर्स ने मुद्रित किया।