इन हमारे जंगलों की हरित जीवन की कथा
आग में जलती अभागिन की पहेली हो गई।
उच्च शृंगों से निकलकर, वह सदानीरा नदी
अब यहाँ परियोजना की सहेली हो गई।
प्रगति के मैदान में हैं, व्यंजनों की धूम पहुँची
बालकों की भूख रो-रो, कर के गीली हो गई।
जो कभी गुलजार थी, वह फूल की घाटी मेरी
आज कचरे से अटी, दुर्गन्ध थैली हो गई।
क्षण में फूंके झोपड़ी, जो दीन की दुःख आह की
राजसत्ता में वही, माचिस की तीली हो गईं।
मैं इसी मोह में लिखती रही कविता सदा
देखते ही देखते यह भूमि मैली हो गई।
भूमि मैली हो गई