ईश्वर का विज्ञान


यह महत्वपूर्ण आध्यात्म लेख महर्षि दयानन्द जी के सिद्धान्तों व आर्य समाज की मान्यताओं के आधार पर आर्ष ग्रन्थों के प्रमाण द्वारा संक्षेप में लिखा है...जां महानुभाव ईश्वर को साकार में मानते हैं और विभिन्न मनुष्य रूपों में ईश्वर की पूजा करते हैं  उनकी जानकारी के लिये यह लेख महत्वपूर्ण है क्यांकि सृष्टि में साकार पदार्थों में चेतना शक्ति तो हैजिस कारण कि उनका विकास और विनाश होता है। उसमें परमात्मा तो है किन्तु आत्मा नहीं है औा प्राणीमात्र में आत्मा का निवासकर्म करने और फल भोगने के लिये है।प्राणियों में केवल मनुष्य शरीर की आत्मा ही ईश्वरानुभूति कर सकती है। सूक्ष्म आध्यात्म दार्शनिक विषय है।
 अपाणिपादो जवनी ग्रहीता 
 पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः
 स वेत्ति वेद्यंन च तस्यास्ति वेत्ता 
 तमा हुरग्रयं पुरूषम् महान्तम।
                       (श्वेतश्वेताश्वरो उपनिषद्)
उपनिषद का ऊपर जो उद्धरण दिया गया है उसमें स्पष्ट कहा गया है कि ईश्वर के न हाथ हैं, न पांव हैं, वह बिना हाथों व बिना पांवों के गति करता है और उसके न आंख हैं न कान हैं।  वेदों में साफ लिखा है कि ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं अपितु शक्ति है किन्तु उसमें पदार्थों की तरह अचेतन शक्ति नहीं है अपितु ईश्वर चैतन्य शक्ति है। ईश्वर की सिद्धि में विशेष युक्ति है कि सृष्टि में सृजनात्मक चेतन शक्ति का होनाऔर सृष्टि क्रम में नियमबद्धता का होना। सृष्टि में विशालता का होना, स्थायित्व का होना, यह लक्षण सभी दृश्य जगत में पाये जाते हैं।ईश्वर के दर्शन हां सकते हैं या नहीं, या प्रश्न बार-बार उठते रहते हैं। किन्तु आंख से तो ईश्वर के दर्शन हो नहीं सकते। यदि ध्यान को पांचों ज्ञानेन्द्रियों की तरह छठी ज्ञानेन्द्रिय मान लिया जाये तो ध्यान द्वारा ईश्वर की अनुभूति हो सकती है। ईश्वर का अस्तित्व है पर अभिव्यक्ति नहीं है, मात्र अनुभूति है। ईश्वर की यह अपूर्व सृष्टि ही ईश्वर की अनुभूति है। ऋग्वेद में कहा है कि अमीबा की सूक्ष्म दशा से लेकर महाबुद्धि सम्पन्न मनुष्य के शरीर तक में आत्मा रहता है क्योंकि अमीबा की देह में जैसी गति, मति और चेष्टा रहती है उसी में उसकी स्थिति भासने लगती है। गज के विशालकाय शरीर और अन्य प्राणियों में आत्मा स्वकर्मानुसार शरीर के अनुसार हो जाता है। उसका यह रूप आत्मा का प्रत्यक्षीकरण ही तो है।मनुष्य ही केवल वह प्राणी है जो अपनी देह में रहकर भी ईश्वर तत्व की अनुभूति कर सकता है।
विभिन्न मतों की विवेचना में न जाकर हम वेद एवं वैज्ञानिक   आधार पर ईश्वर का मानव रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। क्योंकि अगर ईश्वर मानव जैसा होगा तो किसी स्थान विशेष में रहेगा और स्तुति-उपासना करने से खुश और गाली देने से नाखुश हो जायेगा। इसलिये सम्पूर्ण आर्षशास्त्रों व वैज्ञानिक आधार पर वी ईश्वर अनादि है, अनन्त है, आनन्दमय है सर्वव्यापी है। यदि उसका भौतिक शरीर होगा तो परिछिन्न होगा और उसके जन्म और मृत्यु भी होगी, फिर वह अनादि और अनन्त कैसे होगा? इसलिये हमने अपने छोटे से दिमाग म ईश्वर को पुरूष विशेष मानकर उसकी पूजा करनी शुरू कर दी। ईश्वर व्यक्ति विशेष नहीं, शक्ति विशेष है। और यह सत्ता भौतिक न होकर चैतनय स्वरूप है। वैसे तो जड़ में शक्ति है क्योंकि परमाणुओं का विश्लेषण करते-करते वे भी धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत कण ही रह जाते हैं जो कि शक्ति के ही रूप हैं। क्योंकि जड़ शक्ति प्रकृति कहलाती है और चैतन्य शक्ति परमेश्वर।  सृष्टि की रचना विज्ञान के अनुसार नेब्युला अर्थात जिसको वेद में हिरण्यगर्भ कहा गया है, यानि जिसके गर्भ के अन्तराल में सुवर्ण जैसी चमक है। अन्तरिक्ष में इतने ही तारे हें जितने समुद्र तट पर रेत के कण। जैसे हमारे सौरमण्डल में गति हैवैसे ही सम्पूर्ण अस्तित्व भी गति करता है। नभ मण्डल में हो रही इस अबाध गति में कोई किसी से टकराता नहीं है। ये सब अग्नि के पुंज हैं। पृथ्वी भी किसी समय अग्निमय थी, धीरे-धीरे अग्नि ठंडी होती रही और जीवन अपने अस्तित्व में आया। वैशेषिब तथा न्याय दर्शन ने पाश्चात्य विचार के धनात्मक तथा ऋणात्मक इलेक्ट्रॅान, न्यूट्रॅन तथा प्रोटोन, जो कि जड़शक्ति के मूलभूत विद्युतमय अणु हैं, से जब सृष्टि का निर्माण होता है तब दो अणु मिलकर द्वयणुक को उत्पन्न करते हैं, इसके बाद तीन द्वयणुक मिलकर एक त्रसरेणु उत्पन्न करते हैं  जिसमें कि छह आणुओं के मिलने के बाद स्थूलता आ जाती है। पाश्चात्य विचार के अनुसार सबसे पहले 'नेब्युला', उसके बाद धनात्मक तथा ऋणात्मक विद्याुतमय तीन अणु इलेक्टाªन, प्रोटोन, तथा न्यूट्राॅन के मिलने से सृष्टि बनी। दोनों में भाषा अलग-अलग है पर विचार मूलतः एक ही है। भारतीय आस्तीक विचार यह है कि जड़ में यह गति-विकास अपने आप नहीं हो सकता, अगर अपने आप हो सके तो जड़ ही चेतन हो जाये। परन्तु जड़ कहीं चेतन नहीं दिखता क्योंकि बिना चेतन शक्ति के जड़ में विकास व गति नहीं हो सकती।
दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या वनस्पतियों में भी आत्मा है? वनस्पति आदि में चेतना तो है क्योंकि उसमें विकास और ह्रास होता है परन्तु क्या उसमें आत्मा भी है, को समझने के लिये हमें आत्मा और चेतन में फक्र समझना होगा।चेतन शक्ति विश्व के कण-कण में कतृत्व भाव से सर्वत्र व्याप रही है और उसी वजह से वनस्पति तथा वृक्ष का बीज पृथ्वी में डालने के बाद गुरूत्वाकर्षण नियम से बंधा होने के बावजूद नीचे की बजाय ऊपर की ओर अंकुरित होता है। किन्तु यह सचेतन शक्ति के कारण होता है...वनस्पति में केवल परमात्मा है आत्मा नहीं है। आत्मा वह है जो शरीर में आकर कर्मो को करता है और उनका भोग करता हैै। वनस्पति और वृक्ष में चेतना वह है जो वनस्पति के विकास व विनाश का कारण है किन्तु आत्मा की तरह कर्म नहीं करती है और न उसका कर्मफल भोगती है।
देखने में आता है कि सृष्टि में सृजन हो रहा है, विकास व गति हो रही है। पृथ्वी, सूर्य चन्द्र आदि ग्रह-उपग्रह अपनी परिधि में करोड़ों वर्षों से नियमित घूम रहे हैं। सूर्य-चन्द्र ग्रहण किस दिन, किस घड़ी होगा, इस बात की भविष्यवाणी की जा सकती है। इसी प्रकार वनस्पतियों के उत्थान-पतन का निश्चित नियम है। आश्चर्य है कि जैसे जड़ जगत का नियम निश्चित है वैसे ही प्राणी जगत के अपने नियम निश्चित हैं। सृष्टि की हर वस्तु का प्रयोजन है, किसी उद्देश्य से उसका निर्माण हुआ है। प्रयोजन का होना सिद्ध करता है कि उसके निर्माण के पीछे कोइ्र चेतनय शक्ति है, वही ईश्वरीय शक्ति है। 
पृथ्वी की परिधि पच्चीस हजार मील है, पृथ्वी से तेरह लाख गुणा बडी परिधि सूर्य की है, सूर्य पृथ्वी से साठ हजार गुणा बड़ा है। ब्रह्माण्ड में असंख्य तारे हैं और पृथ्वी से लाखों गुणा बड़े हैं। इस सम्पूर्ण विराट अस्तित्व का यह र्बिाध भ्रमण किसी शक्ति से संचालित होना ही चाहिये। ईश्वर को साकार मानने के कारण आज देश में भगवानों की बाढ़ आई हुई है। गीता के सातवें अध्याय में ईश्वर निर्गण रूप व सगुण रूप व अशरीरी रूप का वर्णन किया गया है। कृष्ण कहते हैं-हे अर्जुन देख यह मुझ अशरीरी निर्गुण का शरीर। मैं पानी के रस में, सूर्य-चन्द्र के तेज में, वेदों के ओंकार में, आकाश की ध्वनि में, पुरूषों के पराक्रम में, पृथ्वी की गंध में, प्राणीमात्र के जीवन में, तपस्वी के तप में, बुद्धिमान की बुद्धि में,आसैर बलवान के बल में हूं। सब में हूं और सब मेरे सहारे टिके हैं। फिर भी मन्दबुद्धि लोग मुझे जानने का प्रयास नहीं करते हैं। इसलिये जो इस जड़ सृष्टि में प्राणभूत सत्ता के दर्शन कर लेता है, वह ईश्वर को समझ लेता है।