गुण मिलाकर विवाह न कीजो

चाहो सफल गृहस्थ तो, गुण मिला कर विवाह कभी न करना      शीर्षक को देखने से पाठकों को लग सकता है कि हम 'गुण       विरोधी' अर्थात् अच्छाइयों के विरोध में अपनी बात कह रहे हैं। वस्तुतः ऐसा नहीं है। वास्तव में, यहाँ गुण से हमारा तात्पर्य कपोल-कल्पित नक्षत्रों और संस्कृत अथवा हिन्दी वर्णमाला के अतिरिक्त ली गई वर्णमाला से निर्धारित तथाकथित ३६ गुणों से है जो विवाह मेलापक के लिये लिये गये हैं। हम अनुरोध ही नहीं आग्रह पूर्वक स्पष्ट करना चाहेंगे कि ज्योतिष ही नहीं समाज के कल्याण के लिये गम्भीर उत्तरदायित्व को समझते और निभाते हुये यह लेख प्रस्तुत कर रहे हैं। जिसको भावनात्मक तरीके से नहीं अपितु ज्योतिष के यथार्थ संज्ञान युक्त विवेक से लिया जाये। 
ज्योतिष में दृष्टि, सर्वाधिक व्यक्ति पर केन्द्रित होती है। धर्ममय जीवन यापन करते हुये अर्थ उपार्जन कर काम और मोक्ष सिद्धि हेतु दाम्पत्य जीवन में प्रवेश करने से पूर्व वर-वधू के गुणों का आकलन तथा ग्रह मेलापक विधान ज्योतिष शास्त्र (शास्त्र विज्ञान) में निरूपित किया गया है। यदि जन्मपत्री वैज्ञानिक आधार पर न बनी हो, नकली हो, मात्र नाम से मेलापक किया गया हो, विद्वान और चरित्रवान ज्योतिषी द्वारा निष्कर्ष न लिया गया हो तो मेलापक अशुद्ध माना जायेगा। दैवज्ञ श्रीराम ने शाके १५२२ में मुहुर्त चिन्तामणि नामक ग्रन्थ की रचना की, वे ज्ञान की नगरी काशी के विद्वान थे। उन्होंने मुहुर्त चिन्तामणि के गोचर प्रकरण, संस्कार प्रकरण, विवाह प्रकरण, वधू- प्रवेश प्रकरण, द्विरागमन प्रकरण में मुहुर्तों को पृष्ठभूमि में रखकर वर-वधू चयन पर सूक्ष्म गवेष्णा की है। हमने हिन्दी मासिक 'हलन्त' के दिसम्बर 2013 के अंक में प्रकाशित 'ज्योतिष और जीवन' लेख में उपरोक्त विचार बिन्दुओं का संज्ञान लिया है। आइये, देखिये कि कैसे इन बिन्दुओं पर कुछ स्वाभाविक प्रश्न उपजते हैं- 
  यदि जन्मपत्री वैज्ञानिक आधार पर न बनी हो..तो क्या जन्मपत्री  
अवैज्ञानिक भी हो सकती है?    
  विद्वान और चरित्रवान ज्योतिषी..श्रद्धा से भरा जातक कैसे जान सकता है कि जो व्यक्ति उन्हें जन्मपत्री और तद्विषयक मार्गदर्शन दे रहा है, वह विद्वान और चरित्रवान भी है? स्वभाविक है कि जब तक देश की शासन व्यवस्था जन्मपत्री और उसके व्यावसायिक प्रयोग हेतु मानदण्ड स्थापित नहीं करती तब तक न तो जन्मपत्री की वैज्ञानिकता की परख हो सकती है और ना ही ज्योतिषी की योग्यता की। 
  दैवज्ञ श्री राम ने शाके १५२२ में मुहुर्त चिन्तामणि नामक ग्रन्थ की रचना की...प्रश्न यह है कि यदि शाके १५२२ में उपरोक्त ग्रन्थ रचना के बाद ही वर-वधू चयन पर सूक्ष्म गवेषणा हुई है तो क्या  क्या शाके १५२२ से पूर्व के विवाह बिना सूक्ष्म गुण मेलापक के ही होते थे अतः क्या वे आज की अपेक्षा अधिक असफल भी होते थे? 
जहां तक वैज्ञानिकता की बात है तो हम पाठकों को कुछ आधार 
बिन्दु स्पष्ट करना चाहते हैं-  
अथर्ववेद के 19/7/2-5 में 28 नक्षत्र स्पष्ट हैं जबकि फलित  ज्योतिष में, गणितीय सुविधा के कारण से, 27 ही स्वीकार किये हैं। वैदिक, सनातन या हिन्दू जनों आदि कुछ भी कहें, के लिये वेद स्वतः प्रमाण, सर्वोपरि स्वीकार्य एवं व्यक्तिगत अथवा सामाजिक व्यवहार के नियामक हैं। प्रश्न उठता है कि हम वेद के विरूद्ध क्यों चले? और चले तो इस एक कारण बिन्दु से क्या हम वेद विरूद्ध नहीं हो जाते हैं? मनुस्मृति तो स्पष्ट करती है कि 'नास्तिको वेद निन्दकः'। सूर्य सिद्धान्त एवं आधुनिकी की वेधशालाओं द्वारा स्पष्ट दृश्यमान स्पष्ट प्रमाण करता है कि नक्षत्र समान विस्तार वाले नहीं हैं। प्रश्न है कि प्रत्येक नक्षत्र 800 कला का क्यों लिया गया है? जिस प्रकार कल्पित अग्नि से हाथ नहीं जलता उसी प्रकार क्या ये कल्पना से गढ़े गये नक्षत्र और पुनः उनके काल्पनिक चरण तथा तदनूरूप उनके काल्पनिक गुण क्या किसी भी तरह से वैज्ञानिक हो सकते हैं? क्या ऐसे अयथार्थ नक्षत्र युक्त फलित ज्योतिषीय आकलन किसी भी वास्तविक जातक के जीवन को प्रभावित कर सकता है? महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक 'दर्षन-दिग्दर्शन' के पृष्ठ 560 में स्पष्ट किया है कि 'भारत ने यूनानी ज्योतिष से 12 राशियां, होरा (=घण्टा), फलित ज्योतिष का होडाचक्र सीखा, होड़ाचक्र की वर्णमाला भारतीय  वर्णमाला (क-ख-ग.) नहीं अपितु यूनानी (अल्फा-बीटा-गामा) है। ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान शास्त्री भोलादत्त महीतौल्य कहते हंै ंकि 'होड़ाचक्र' में अक्षरों का वितरण एकदम व्याकरण विरूद्ध है। संस्कृत व्याकरण को पाणिनी, कात्यायन और पतंजली ने इतने निर्दोष रूप से संवारा है कि अध्येता चमत्कृत हो उठते हैं। लघु सिद्धान्त कौमुदी में वर्णों के उच्चारण स्थान, अन्तर्बाह्य प्रयत्न और अकारादि स्वरों के सभी भेदों का वर्णन किया गया है। उक्तानुसार सभी वर्णों के उच्चारण में दो प्रकार से प्रयत्न होते हैं, पहला इनके स्पष्ट रूपेण उच्चारित होने से पूर्व और दूसरा उच्चारण क्रिया के उपरान्त जिनको क्रमशः आभ्यान्तर और बाह्य प्रयत्न कहते हैं। पाणिनि के 'तुलास्यप्रयत्नं सवर्णम' सूत्रानुसार जिन दो या अधिक वर्णेंा के उच्चारण स्थान और आभ्यान्तर प्रयत्न एक जैसे होते है वे सभी वर्ण, सवर्ण कहलाते हैं और भिन्न्ा प्रयत्न वाले परस्पर असवर्ण कहलाते हैं। इस नियम के अनुसार केवल भरणी, आश्लेषा, मघा, विशाखा,          अनुराधा, श्रवण और धनिष्ठा को छोड़कर शेष सभी नक्षत्रों के अक्षर विजातीय बन जाते हैं। यह हमारे जातक ग्रन्थों की व्याकरण विरूद्ध एक विडम्बना है जिसे हम ढ़ोते चले आ रहे हैं और न जाने कब तक ढ़ोते रहेंगे? क्या लाभ ऐसे 'अवकहडा चक्र' का जिसमें ञ,ङ,ण व झ को तो स्थान प्राप्त हो किन्तु जू, जे, जो को कोई स्थान न मिला हो, ओ-औ और वो-बौ को सजातीय मान लिया गया हो? शंकर व संकर शब्दों में कोई भेद न हो और विश्वेश्वर को एक समान मान लिया गया हो? अतएव, अब समय आ गया है कि देश के पंचांगों में दिये जाने वाले नक्षत्र भोगांश, शतपदचक्र आदि को सुधार लेना चाहिये। 
प्रश्न यह है कि ज्ञान की नगरी काशी के विद्वान दैवज्ञ श्री राम को यह तथ्य क्यों नहीं दिखाई दिया कि जिस वर्णमाला को वे 27 नक्षत्रों के 108 चरणेां के लिये विभाजित कर रहे हैं, वह भारतीय नहीं है, हिन्दी या संस्कृत व्याकरण के आधार पर भी नहीं हैं। ऐसी व्यवस्था को देकर उन्होंने भारतीय जनमानस को पुष्ट किया है कि शंकास्पद किया है? सुप्रसिद्ध, वयोवृद्ध ज्योतिषाचार्य, डा०रहिमाल प्रसाद तिवारी की सुनिये, निरयन पंचांग और उनमें विहित 'अवकहडा चक्र' को मैं अवैज्ञानिक ही नहीं अपितु अत्यन्त निकृष्ट-असभ्य प्राविधान मानता हूॅं। देखिये, बालक का जन्म होते ही जातक के पिता पण्डित जी से पूछते हैं कि क्या बालक का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ है? मैं शान्ति करवा दूॅंगा। इस बालक का चुटका (जन्मपत्री, टेवा) बना दीजिये। पण्डित जी चुटका बनाकर देते हंै और उसमें लिखतें हंै-जातक का जन्म नक्षत्र 'मूल तृतीय चरण'/राशिनाम का पहला अक्षर 'भा'/ योनि-श्वान, गण-राक्षस, नाड़ी-आदि/जन्म लग्न-कर्क, राशि धनु...ह०....ज्योतिषाचार्य, ज्योतिष भास्कर इत्यादि.... 
'अवकहडा चक्र' के अनुसार नवजात शिशु को श्वान योनि का कहना क्या उस बालक को 'कुत्ते की औलाद' कहकर गाली देने के समान असभ्य और निकृष्ट आचरण नहीं है? यह अपशब्द उस बालक के माता-पिता तथा पूर्वजों के लिये भी गाली है। वह भी उस 'यजमान' के साथ जिसने कि मिठाई का डिब्बा और पचास रूपये देकर चरणस्पर्श किये हैं। प्रश्न यह है कि मूल नक्षत्र के तृतीय चरण से जुड़ा हुआ, भा-श्वान-राक्षस-आदि किसी गणितीय अथवा वैज्ञानिक आकलन के परिणाम हैं अथवा पूर्वोक्त 27 नक्षत्र एवं उनके 108 चरणों के समान ही कल्पना लोक के स्वप्न हैं। ऐसा ही निर्धारण मंगली होने या मंगली न होने का भी है। 
पृथ्वी हर समय क्रान्तिवृत्त में उपलब्ध होती है और मनुष्य पृथ्वी में। पृथ्वी के पूर्व भाग में जहाॅं सूर्योदय होता है वहां उदय हो रहा लग्न भाग (क्रान्तिवृत्त का खण्ड) लग्नोदय कहलाता है। चूंकि देखने वाला व्यक्ति चित्रा 
या किसी भी नक्षत्र में नहीं होता है, अस्तु, लग्नोदय काल जो दिख रहा है वह पृथ्वी की वर्तमान स्थिति का दृश्यमान बिन्दु होता है। स्पष्ट है कि यह बिन्दु कभी भी निरयन नहीं हो सकता। मात्र इस एक छोटे से आधार पर 
भी निरयन लग्न युक्त जन्मपत्रिका स्वयं में एक शुद्ध पत्रिका, वैज्ञानिक पत्रिका हो ही नहीं सकती। प्रश्न यह है कि विद्वान या अविद्वान जहां सभी लोग जन्मपत्र को अशुद्ध ही ले रहे हों वहां ऐसी स्थिति में गुण मिलान ही नहीं पत्रिका मिलान भी कैसे शुद्ध अथवा अर्थपूर्ण हो सकता है? जी नहीं, कभी भी नहीं। यह स्पष्ट किये जाने के बाद भी कि नक्षत्रों के गुण एक व्यक्ति ने अपने कल्पना लोक से निर्धारित किये हैं वे तर्कसंगत अथवा सैद्धान्तिक नहीं कहे जा सकते हैं। वह व्यक्ति तो जन कल्याण की छद्म भावना को अरोपित करके समाज में एक मिथ्या को स्थापित किये हुये है। 
बात यहीं पूर्ण नहीं  होती, मान लीजिये कि एक व्यक्ति का जन्म 05 अक्टूबर 2013 को 18ः00 बजे दिल्ली में हुआ है। प्रचलित पंचांगों के अनुसार इस बालक का जन्म नक्षत्र चित्रा, प्रथम चरण अतः तदनुसार व्याघ्र योनि, वैश्य वर्ण, राक्षस गण, मध्य नाड़ी हुआ। किन्तु वास्तव में (देखें श्री मोहन कृति आर्ष तिथि पत्रक सं0 2070 पृ0 60 तिथि पत्रक सं0 2070 पृ0 60) इस बालक का जन्म नक्षत्र तो हस्त, प्रथम चरण हुआ अतः तदनुसार महिष योनि, वैश्य वर्ण, देव गण तथा आदि नाड़ी हुई। प्रश्न यह है कि यदि इस व्यक्ति के गुण मेलापक चित्रा प्रथम चरण के जन्म नक्षत्रानुसार मिलाये जायेंगे तो मिलान का औचित्य क्या है? इस अनौचित्य का, जहाॅं गुणों की निरर्थकता और गुणों की सिद्धान्तहीनता स्पष्ट हो वहाॅं गुणों के आधार पर गृहस्थ को प्रभावित करने वाली नियामकता नहीं मानी और जानी जा सकती है। अस्तु स्पष्ट है कि यदि कोई व्यक्ति गुण मिलान के आधार पर विवाह करता और करवाता है तो यह नितान्त कल्पना लोक की वृथा सैर कर रहा है। इस सब का सत्य,सिद्धान्त, तर्क संगतता अथवा वैज्ञानिकता से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। 
राशि से नक्षत्रों का एक स्थिर सम्बन्ध नहीं है और ना ही हो सकता है। लेकिन यह स्थिर सम्बन्ध बना हुआ मानकर और पुनः नक्षत्रों से वर्ण (1 गुण), वश्य (2 गुण), तारा (3 गुण), योनि (4गुण), ग्रह मैत्री(5 गुण), गण मैत्री (6 गुण), भकूट (7 गुण) और नाड़ी (8 गुण) के कुल 36 गुणों का निर्धारण किया गया है जिसकी कि कोई आधार गणना नहीं है। नक्षत्र विशेष के भाग विशेष (अर्थात नक्षत्र के चरण विशेष) में जन्म होने से वह निर्धारित वर्ण वैश्यादि के कुल गुण ; च्तवचमतजपमेद्ध उन जातकों (लड़का या लड़की) के परस्पर मेलापक विन्दुओं की तरह स्वीकार किये जाते हैं। ग्रह मिलान, मंगली दोष और कथित ज्योतिषी की अपनी अभिरुचि की बातें, इसमें बाकी रह जाती हैं। उन पर लिखना, इस लेख का विषय नहीं है। इस प्रकार कम से कम 18 गुण मिलने पर मेलापक विन्दुओं की अनुकूलता मान ली जाती है। सच्चाई यह है कि 36 गुण मिलान वालों के गृहस्थ बर्बाद एवं 8 गुण मिलान वालों के भी बखूबी आबाद गृहस्थ देखे जा सकते हैं। परन्तु इन ज्योतिषाचारियों के तर्कजाल ऐसे हैं कि घटित घटना को सिद्ध करने के लिये, वक्त जरुरत के अनुसार कई 'रेडिमेड' जवाब रखे-रखाये होते हैं। जहां जैसी आवश्यकता हुई तदानुकूल 'जवाब हाजिर'। अधिक क्या, समझदारों को संकेत ही पर्याप्त है। 
अस्तु, ये गुण, गुण नहीं, आपको भटकाने वाले दुर्गुण हंै  जो कभी भी निर्णायक नहीं हो सकते। यदि आप चाहते हैं कि आपके पुत्र अथवा पुत्री का गृहस्थ सफल व अपने आप में परिपूर्ण हो तो उसका विवाह गुण मिला कर कभी न करना। हां, देखने को शिक्षा-दीक्षा व संस्कार जनित गुणवत्ता, आयु, आरोग्य और आवश्यक लगे तो चिकित्सकीय सम्मति पर्याप्त है। संस्कृति परक है कि नीचादपि उत्तमा विद्या, कन्या दुष्कुलादपि।