ज्ञान कर्म और भक्ति का समबाहु त्रिभुज

मनुष्य का जीवन ज्ञान, कर्म और भक्ति के उस समबाहु त्रिभुज के  समान है जिसके 60-60 अंश के तीनों अन्तःकोणों का योग 180 अंश है। इस समबाहु त्रिभुज के तीनों अन्तःकोण हैं-ज्ञान, कर्म और भक्ति। हमारा जीवन ज्ञान कर्म और भक्ति की त्रिपुटी से प्रेरित होता है। स्थायी शान्ति और व्यवस्था के लिए इन तीनों में सन्तुलन आवश्यक है, अन्यथा समाज में अशान्ति और अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी। इस त्रिभुज के किसी भी कोण में यदि किसी प्रकार से भी परिवर्तन हो तो सन्तुलन भंग हो जाएगा और त्रिभुज की तीनों भुजाओं का समबाहुत्व भी नष्ट हो जायेगा। मानवसमाज की चतुर्दिक उन्नति के लिए यह सन्तुलन नितान्त आवश्यक है।
ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिपुटी में ज्ञान का स्थान सर्वोपरि है। ज्ञान के अभाव में अन्धश्रद्धा, कुरीतियंा और गतानुगतिकता की प्रवृत्ति बढ़ती है। अन्धश्रद्धा और अन्धविश्वासों से विज्ञान का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। धर्म और विज्ञान में परस्पर विरोध नहीं रहा। विषय को समझने के लिए पश्चिम का उदाहरण देना सहायक होगा। यूरोप के इतिहास के मध्य युग तक वहां भूकेन्द्रिकता  पर दृढ़ विश्वास था। इस विश्वास के अनुसार पृथ्वी स्थिर है और सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है। किन्तु मध्ययुग की समाप्ति होते-होते वहां प्राचीन ग्रीक और रोमन ज्ञान-विज्ञान के आलोक में वैचारिक मन्थन हुआ और ईसाई मान्यताओं और अन्धविश्वासों को चुनौती दी जाने लगी। ब्रूनो ने सिद्ध किया कि पृथ्वी स्थिर और चपटी न होकर गोल पिण्डाकार है और यह अपनी कीली पर घूमती है। कौपर्निकस और गैलिलियो ने अन्तरिक्ष में किए गए अनुसन्धानों के द्वारा सिद्ध किया कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता और इसके विपरीत पृथ्वी और चन्द्रमा आदि ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। इस प्रकार भूकेन्द्रिकता के सिद्धान्त के स्थान पर सौर केन्द्रिकता  के सिद्धान्त की स्थापना हुई। इस सिद्धान्त से ईसाई धर्मजगत में खलबली मच गई। ईसाई चर्च ने इन वैज्ञानिकों का सामाजिक बहिष्कार करके उन्हें दण्डित करने की आज्ञा दी। मध्यकालीन यूरोप में चर्च द्वारा बहिष्कृत व्यक्ति को राज्य द्वारा भयंकर अमानुषिक, शारीरिक और सामाजिक यन्त्रणाएं दी जाती थी। सारा यूरोप ईसाईयों के धर्मगुरू पोप की अष्टापदीय पकड़ से जकड़ा हुआ था। धर्म अन्धविश्वासों का पर्याय बना हुआ था। पुनर्जागरण  के उदय होने तक यूरोप ऐसे ही अन्धकार में डूबा हुआ था। फलतः चर्च के आदेश पर राज्य ने इन महान वैज्ञानिकों में किसी को जीवित ही अग्नि की ज्वालाओं में झोंक दिया अथवा किसी को करागार में डाल कर अमानुषिक यन्त्रणाएं दी गई। परन्तु इन वैज्ञानिकों ने मरते-मरते अपने अनुसंधान- जन्य वैज्ञानिक सत्य का परित्याग नहीं किया।आश्चर्य है कि उन्हीं दिनों पोप की शक्ति को चुनौती देने वाले प्रौटेस्टेंट (च्तवजमेजंदज) पादरी मार्टिन लूथर ने भी बाइबल के प्रति अपनी अन्धश्रद्धा के कारण इन क्रान्तिकारी महान वैज्ञानिकांे को दण्डित करने का समर्थन किया। परन्तु अब यूरोप के सभी राज्य मध्यकालीन अन्धकार से मुक्त होकर धीरे-धीरे पोप निरपेक्ष अथवा धर्मनिरपेक्ष होते गए। प्रस्तुत सन्दर्भ में भारत की स्थिति मध्ययुगीन ईसाई यूरोप से सर्वथा भिन्न थी। भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग गुप्तों के शासन में प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् और खगोलशास्त्री आर्यभट्ट के उदाहरण से अपने विवक्षितार्थ को स्पष्ट करते हैं। पृथ्वी को आकर्षण शक्ति से युक्त और ज्योतिपिण्डों के परस्पर गुरूत्वबल के कारण अधर में अवलम्बित सिद्ध करने पर आर्यभट्ट का किसी ने विरोध नहीं किया। तब भी ऐसे लोग निश्चित रूप से रहे होंगे जिनका विश्वास था कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है। परन्तु किसी भी भक्त को बेचैनी नहीं हुई। आर्यभट्ट के अनुसार-
 आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् 
 स्वस्थं गुरू स्वाभिमुखं स्वशक्त्या।
 आकृष्यते तत् पततीव भाति 
 समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
अर्थात् यह पृथ्वी आकर्षण से युक्त है। पृथ्वी के द्वारा उसके सम्मुख विद्यमान पदार्थ गुरूत्वबल से खींचा जाता है। खींचा जाता हुआ पदार्थ गिरता हुआ सा प्रतीत होता है। वस्तुतः वह पदार्थ गिरता नहीं प्रत्युत खींचा जाता है। (सभी दिशाओं में ज्योतिष्पिण्डों से खींची जाती हुई) यह पृथ्वी आकाश में गिरे तो कहाँ गिरे?  यह त्रिशंकु की भांति अधर में लटक रही है। न्यूटन से हजार वर्ष पूर्व आर्यभट्ट ने गुरूत्वबल की व्याख्या की।
भारत में धर्म और विज्ञान पश्चिम के विपरीत परस्पर विरोधी न होकर पूरक रहे हैं। इसका मुख्य कारण ज्ञान कर्म और भक्ति का सन्तुलन था। ज्ञान के पश्चात् कर्म का महत्व है। विश्व में कोई भी समाज कर्म अर्थात कठोर परिश्रम के बिना समृद्ध नहीं हो सकता। कर्म का दूसरा नाम कृत है। कर्म करने से समाज कृती होता है और कर्म से ही समाज कृतयुग में प्रवेश करता है। इसीलिये हमारे वैदिक मनीषि पुरखों ने कहा था कि -'कृत में दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहितः।' अर्थात मेरी दांयीं मुट्ठी में कृत है तो बांयीं मुट्ठी में जय अर्थात सफलता। कर्म व्याख्या के सन्दर्भ में निम्न उदाहरण अप्रासंगिक नहीं होगा। स्वातन्त्र्योत्तर भारत में पंजाब और बंगाल दोनों प्रदेश खण्डित हुए। विभाजन की यन्त्रणा भी इन प्रदेशों को सर्वाधिक झेलनी पड़ी किन्तु आज दोनों प्रदेशों की वर्तमान दशा पर विचार करें। पंजाब प्रदेश कर्मण्यता का पर्याय है। पंजाबी यदि सोचता है तो सोचने के साथ-साथ जी तोड़ कर्म भी करता है। वहां सरकार किसी भी राजनीतिक दल की हो परन्तु पंजाबवासियों की दिन दूना और रात चैगुना परिश्रम करने की प्रवृत्ति पर किसी का भी प्रभाव नहीं पड़ता है। यही कारण है कि आज पंजाब समृद्धि के क्षेत्र में भारत के अग्रगण्य राज्यों की प्रथम पंक्ति में खड़ा है। परन्तु इसके विपरीत विभाजनोपरान्त बंगाली ने जितना सोचा है उतनी कर्मण्यता का परिचय नहीं दिया। भारत के महत्वपूर्ण और सस्यश्यामल बंगाल नें अपनी गौरवशाली परम्परा और अमूल्य ऋक्थ से मुंह मोड़ कर विवेकानन्द, अरविन्द और सुभाष जैसे मनीषियों को त्याग कर अपनी नकेल मर्कस बाबा (क्षमा करें, माक्र्सवादी विद्वान महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी एक रचना में कार्लमाक्र्स को 'मर्कसबाबा' के नाम से ही अभिहित किया है) के गुबरैल चेलों के हाथ में दे दी है। जब बंगाल अपने मनीषियों को छोड़ कर मर्कस्बाबा की चिन्तन पद्वति में भटक गया तो परिणाम हमारे सम्मुख है। बंगाल दरिद्र से दरिद्रतर होने की दिशा में है। नन्दीग्राम और सिंगूरा में घटी पिछले दिनों की घटनाएं इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। कर्म अर्थात् कठोर परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है- ऐसा प्रत्येक भारतीय को समझना होगा। कर्म कोई भी छोटा बड़ा नहीं होता है। कर्म में कुशल होना ही योग है। कर्म में निष्णात और दक्ष व्यक्ति सच्चा योगी है। गीता में 'योगः कर्मसु कौशलम' कहकर भगवान कृष्ण ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। भारतीय इतिहास के स्वर्ण गुप्तकालीन साहित्य में जहां देवता को प्रकाश लक्षण बताया है वहीं मनुष्य को कर्मलक्षण बताया गया-'प्रकाश-लक्षणा देवा मनुष्याःकर्मलक्षणाः'। कर्मण्यता मनुष्य का धर्म है।
ज्ञान और कर्म के कोणों के पश्चात् समबाहु त्रिभुज का तीसरा कोण है- भक्ति। भक्ति अनन्य प्रेम और निष्ठा का दूसरा नाम है। भक्ति और निष्ठा के बिना हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती है। परन्तु भक्ति का उद्रेक त्रिपुटी के सन्तुलन को बिगाड़ सकता है। सन्तुलन के बिगड़ जाने पर समाज में अशान्ति, अव्यवस्था और हिंसा का नग्न ताण्डव उपस्थित हो सकता है। यदि हमारा समाज इस हिंसा और अशान्ति से बचना चाहता है तो हमें इनके मूल कारण को समझना होगा। मूल कारण अवगत होने पर उसे दूर करना होगा।' छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्।' धर्म के क्षेत्र में भक्ति ने जब-जब मर्यादा का उल्लघंन किया तब-तब निर्दाेषों की हत्या से भयंकर रक्त-पात हुआ। भारत के पिछले हजार वर्षो का इतिहास हिंसा के इस नग्न ताण्डव का साक्षी है। हमारे देश में सर्व धर्म समभाव का राग अलापने वाले सेकुलर विद्वानों को विश्व के सभी धर्माे का तुलनात्मक अध्ययन करने की आवश्यकता है। इस प्रकार के अध्ययन में सभी धर्मो की चारित्र्यगत विशेषताओं को रेखांकिंत करना होगा। विश्व के प्रमुख धर्म या तो मध्य पूर्व के सेमिटिक मूल से जन्मे हैं या दक्षिणपूर्व एशिया में भारत और चीन में जन्मेे हैं। चीन-जापान में ताओ, कन्-फू-शस्, शिन्तो और झन् (ध्यान सम्प्रदाय) धर्माे का उदय हुआ। तो भारत में ब्राह्मण और भ्रमण धर्मो का, आचार्य नरेन्द्र देव ने भारत के समस्त चिन्तन को दो धाराओं-ब्राह्मण और भ्रमण धाराओं मंे ंविभक्त किया है। वेदों को प्रमाण मानने वाले वैष्णव, शैव, शाक्त आदि सभी धर्म ब्राह्मण धारा में हैं तो वेदों को प्रमाण न मानने वाले बौद्ध, जैन और चार्वाक आदि भ्रमण धारा में। हमें आचार्य नरेन्द्रदेव जी द्वारा किया गया यह विभाजन सर्वाधिक युक्तिसंगत और वैज्ञानिक प्रतीत होता है। भारत और चीन जापान में जन्मे धर्मो में भक्ति ने अपनी मर्यादा का उल्लंघन करके ज्ञान के मार्ग को अवरूद्ध नहीं किया। ब्राह्मण धारा और भ्रमण धारा के बौद्धधर्म की महायान शाखा में भक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है। किन्तु इस भक्ति ने ज्ञान और युक्तिवाद का विरोध नहीं किया। यहां शास्त्रार्थ द्वारा खण्डन-मण्डन का आधार ''वादे वादे जायते तत्वबोधः' और 'युक्तियुक्तं वचो ग्राहृम्' रहा है। इन धर्मो में छल-कपट, प्रलोभन या तलवार के बल पर बलात् धर्मान्तरण की निन्दनीय मनोवृत्ति का सर्वथा अभाव है। पौर्वात्य चिन्तन में भक्ति ने कभी ज्ञान का गला नहीं घोंटा। हम बुद्धि को भक्ति और आदर की भावना से 'भगवान बुद्ध' कह कर संबोधित करते हैं। किन्तु बुद्ध अपने भक्तों और अनुयायियों को इस प्रकार सावधान करते हैं-
तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितः।
परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यंमद्वचो न तु गौरवात्।।    (तत्त्वसंग्रह)  
अर्थात् हे भिक्षुओं! चतुर और कुशल व्यक्ति सोने की शुद्धता की परीक्षा जिस प्रकार अग्नि में तपा कर बीच-बीच में कहीं काटकर और अन्त में कसौटी पर कस कर करता है। अच्छी प्रकार से परख कर यदि सोना खरा है तो ग्रहण करता है और यदि खोटा है तो ग्रहण नहीं करता है। तुम भी उसी प्रकार मेरे वचनों को भली भांति परखो। यदि ये वचन खरे और निर्दोष लगें तो ग्रहण करो। यदि खरे नहीं लगते तो इनको ग्रहण मत करो। परन्तु मेरे वचनों को इसलिए ग्रहण मत करो कि बुद्ध महान है तो इनके वचन विश्वसनीय हैं। अब बुद्ध की तुलना बिब्लिक ढांचे  पर आधारित सेमिटिक धर्म प्रवर्तकों से कीजिये।इन धर्मप्रर्वतकों ने भोलीभाली जनता को बताया कि(1) उस धर्मप्रवर्तक द्वारा बताया गया ईश्वर ही केवल सच्चा ईश्वर है(2)वह धर्मप्रवर्तक ही ईश्वर का एकमात्र और अन्तिम प्रतिनिधि या संदेश वाहक है। (3)केवल उसी धर्म प्रवर्तक के अनुगामियों को ही संसार में जीने का अधिकार है। मध्य पूर्व के यहूदी ईसाई और इस्लाम तीनों सेमिटिक धर्माे में परस्पर आज भी 'अहिनकुलम्' भाव है। सांप और नेवले का सम्बन्ध है। एक दूसरे को मिटाने के लिए वे कटिबद्ध हैं। पाठक स्वयं ही विचारें कि पौर्वात्य (भारत, चीन तथा जापान के) और सेमिटिक धर्मो में आकाश-पाताल का कितना अन्तर है!
मनुष्य में गुण और दोष-दोनों होते हैं। किसी एक में गुणों का प्राबल्य है तो दूसरे में दोषों का। किन्तु सर्वथा निर्दोष और पूर्ण तो केवल ब्रहम ही है। भारत में माता और पिता के पश्चात् तीसरा स्थान गुरू अर्थात् आचार्य का होता है। माता-पिता के पश्चात गुरू भी देवता के समान पूज्य होता है। किन्तु समावर्तन संस्कार के समय आचार्य भी अपने शिष्य को चेतावनी देता है कि तुम गुरू की अन्धभक्ति करने से दूर रहो-
'यान्यस्माकं सुचरितानि तान्येव त्वयोपास्यानि नो इतराणि।' अर्थात हे वत्स, हमारे जो अच्छे कर्म हैं तुम्हें केवल उन्हीं की उपासना और अनुकरण करना चाहिए। इनसे भिन्न अर्थात हमारे किसी भी दुर्गुण की उपासना या अनुकरण मत करो। भारत के मध्ययुग को तुर्कांे (तुगलक, खिलजी, लोधी और मुगल आदि विदेशी शासकों) का युग न कह कर भक्तियुग की संज्ञा दी जानी चाहिए। इस युग में ज्ञान और कर्म के स्थान पर भक्ति का प्राबल्य हुआ। परन्तु अब शास्त्रीय ज्ञान से दीप्तमुख आचार्यो का स्थान अंगूठा छाप गुरूओं ने ले लिया। 'पढ़े लिखे बम्हन का काम भज बैरागी तू सीता राम' की विचार धारा भारतीय समाज में छाने लगी। समस्त उत्तर भारत में तुर्क शासन की चूलें गहरी ठुक जाने के पश्चात भारतीय समाज में भक्ति, पराजय की मनोवृत्ति के रूप में छाने लगी। पण्डित राज जगन्नाथ तक 'दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा मनोरथान् पूरयितुं समर्थः' कह कर दिल्ली के तुर्क शासक को ईश्वर का समकक्ष मानने लगे। भक्ति के उद्रेक ने ज्ञान और कर्म को निष्प्रभ बना दिया। हां, दक्षिण में विद्यारण्य स्वामी सायणाचार्य और समर्थ गुरू रामदास ने भारतीयों को एक बार पुनः 'उत्तिष्ठत संनहृध्वम् ' के वैदिक घोष से उद्बोधित करते हुए भारतीय समाज को तत्कालीन भक्ति की, मोहनिद्रा में डूबने से बचाकर ज्ञान, कर्म और भक्ति की त्रिपुटी को धर्म, अर्थ और काम की त्रिपुटी के समान सेवनीय बनाया।
आज के सन्दर्भ में हमारा कर्तव्य है कि समाज के सर्वांगी़ण विकास केे लिए ज्ञान कर्म और भक्ति को सन्तुलित करें। भक्ति के उदे्रक को संयत करें। बालगंगाधर तिलक जैसे उद्भट विद्वान ने अपने सुप्रसिद्ध गीता रहस्य और कर्मयोग में एक महत्वपूर्ण श्लोक निम्नशः उद्धृत किया है-
अपहाय निजं कर्म कृष्ण कृष्णेति वादिनः।
ते हरेद्र्वेषिणः पापा धमार्थ जन्म यद्धरेः।।
उक्त श्लोक में अपने कर्म को तिलांजलि देकर हरे राम हरे कृष्ण की धुन में डूबे व्यक्ति को भगवान हरि का शत्रु और पापी तक बताया गया है। वे भूल गए कि भगवान का अवतरण धर्म की स्थापना और दुष्टों के विनाश के लिए होता है।
आज का आतंकवाद ज्ञान कर्म और भक्ति के असन्तुलन का दुष्परिणाम है। प्रतिदिन निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हंै। राष्ट्रीय अखण्डता का शत्रु 'सूच्यग्रं नैव दास्यामि' की मुद्रा में ताल ठोंक रहा है। आश्चर्य है कि आज धान्य से परिपूर्ण खलिहान का स्वामी ही मुट्ठी भर अन्न की आशा मंे दैन्य भाव से टुकुर-टुकुर देख रहा है। हमारा समाज 'उत्तिष्ठत संनह्यध्वम् ' अथवा 'उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत' के महत्व को कब समझेगा?