मौसम और मानव


फागुन जाते जाते पुराने भले बुरे को भुलाने की सौगात लिये होली पर्व के रुप में हमें खुद को बदलने की गंध दे कहने आता हैंे। हम पुराने को याद कर रोये नहीं , सीखें मौसम की ऋतुओं से, जो विसर्जन के दुख को भार नहीं बनाती बल्कि  वसंत के आगमन के गीत गा उसकी खुशियों में झूमनें का आव्हान करती हैं । प्रकृति फूलों की बहार में हमें  उसके साथ आत्मसात होने का गुरूमं़त्र दे आनन्दमय जीवन जीने और उसे समझने का संदेश देने आती रही है। मार्च अप्रैल में नवसंवतसर के भाव के बीच जीते हुये मैने स्वयं में उतरते फागुन और चढते चैत में अपनी शक्ति और ऊर्जा के साथ क्रियाशीलता में परिवर्तन आते महसूस किया है। जिसने मुझे यह सोचने को विवश कर दिया कि ऐसा कुछ विशेष है इस वासंती मौसम में जो हमारी अन्र्तात्मा तक को झकझोर नव उल्लास भर देता है। गुडीपडवा के साथ चैत्र माह का आगाज होते ही मनोभावों में मौसम के साथ चैतन्य की प्रछन्न लहर सी दौड पडती है जो दीर्घकाल से प्रसुप्त मन को नया हो नूतन करने के लिये प्रेरित करने लगती है।हमारी संस्कृति सम्यता हमारे आदर्श हमारी आशाओं की वाहक है इसलिये हम ऋतुओं में वसंत को मौसम के नृप का आदर देते हैं। भारतीय जीवनधारा भी इन्हीं सिद्धांतों का अनुशीलन करती हुई प्रतीत होती है। चैत गया बैशाख जेठ और आषाड भी गया और जाने को तत्पर है सावन भी।यसवन की जिस झमाझम रिमझिम से हम शुरु में खुश होते जब बाढ बन कहीं जीवन अस्तव्यस्त करने लग जाती है तो उससे हम हो उतने ही दुखी भी। पर हम बीते दुख को भ्ुलाने में देर तनिक नहीं लगाते और नये आगत के स्वागतगान में अविलम्ब व्यस्त हो जाते है । हमारे मन पर वही राज कर पाता है जो हमें उल्लास दे जाये ,उमंगों की लहरों में नहलायेे ,नई आशा के दीप जलाये। जीवन की खुशियोॅं बटोरने के लिये हममें उत्साह ओज भर लाये। भारतीय संस्कृति में प्रकृति के साथ स्वसंस्कार का नियम स्वतःस्फूर्त चलता रहता हैं। स्वभावतः हम उनमें  ढले चाहे अनचाहे उसके प्रभाव में बहते चले जाते है।
बदलते मौसम के साथ हमारी आत्मा की गहराई से जुडे पर्व उत्सव का सालभर तक चलता सिलसिला हममें ऊर्जा भर हमें आल्हादित करने का काम जीवन भर करता रहता हैं। बेशक हमने उत्सवधर्मिता को युगों तक बचाये रखने के लिये कुछ कथा कहानियों का सहारा लिया हो । पर सच यही है कि परम्परागत रुप से चलकर आज तक इनकी उपादेयता बनी हुई है। हम नई फसल आने पर खुशी मनाते हैं तो जो होना था हो गया अब गले मिल कह होली मना नये साल की नये सिरे से शुरुआत करने में भरोसा रखते आये है। पुराने गिले शिकवें भूल आपस में गले मिलने की परम्परा में जीते आये हैं। हमने ही बरसात के बाहुल्य से जन्में कीडे मकोडों से स्वयं को बचाने व अपने अशुद्ध हुये वातावरण में सुबन्धि की गंध भरने के लियेे घर में रंगाई पुताई करवा मावस के अंधेरे में धूप दीप ज्योत जला दीपमलिकायें लगा अंधकार पर प्रकाश की जीत का आहवान करने की परम्परायें बनाई और निभाई है। हम ही मन के भीतर जगह पाये रावण रूपी विषाणुओं से मुक्त होने की गुहार में भीतर के सत का बिगुल बजाने जोरशोर से दीवाली मनाने निकल पडते हैं। अतः पर्व उत्सव हमारे लिये मात्र समाज के महत्वपूर्ण लोगों की स्मृति में घोषित तिथियों का केवल समाहार मात्र नहीं हैं। इनके निर्धारण के पीछे हमारे पूर्वजों ज्ञानी ऋषि मुनियों मनीषियों की गहरी सोच जिलाने की शक्ति काम करती रही है। जिसने हमें प्रकृति और जलवायु में तालमेल बिठाकर परिवार में बडे छोटे के आचरण को मर्यादित कर स्वस्थ जीवन जीने की राह दिखाई है। जलवायु परिवर्तन के साथ हमारा खानपान का भी मौसम के अनुसार बदलना आयुर्वेद की पृष्ठभ्ूामि रचता दिखाई देता है। सदियोंॅं तक अनेक आक्रान्ताओं के आक्रमण के प्रहारों ने यद्यपि भारतीय जीवन शैली को काफी प्रभावित किया है किंतु फिर भी इनका प्रभाव हमारे जीवन की समग्रता को अपने घेरे में नहीं ले पाया। हाॅं बदलते समय के साथ इसके पीछे के विशद अर्थ प्रभाव की समझ हममें अवश्य कुछ कम हुई है। हमारे पूर्वज जानते थे कि प्रकृति के तालमेल के साथ जीते हुये ही जीवन आक्सीजन पाता है। परन्तु काल का प्रवाह बहुत कुछ धुंधला भी कर देता है। समय के साथ अन्तस में जड जमाई संकीर्णतायें हमारी उत्सवधर्मिता के पीछे के रहस्यों की उन तहों तक पहॅंुचने में हमें समर्थ नहीं रहने देती जो इनके मूल में हमारे पूर्वजों के मन में थी। फिर भी आजतक हम स्वस्थ परम्परा के प्रतीक पर्वो को तहेदिल से स्वीकार मनाना नहीं भूल पाये ंहैं। वे आज भी हमारे जीवन को संस्कारित करते आ रहे है।
आरोग्य में शाकाहार की प्रधानता के पीछे भी देवर्षियों की अहिंसक समाज की रचना की अवधारणा काम करती आई है जिसने हमें न केवल पंचमवेद के रुप में आयुर्वेद दिया, प्रकृति अनुकूल जीवन जीने की समझ पैदा कर अहिंसा परमों धर्म का मंत्र भी दिया औरं जीवहिंसा से बचाये रखने की उत्कट प्रेरणा भी दी। जिसके प्रभावस्वरुप हमने जीवों पर दया करना सीखा। हमने शाकाहार को श्रेष्ठ माना। शाकाहार ने आदमी अधिक कारूणिक, अधिक संवेदनशील ,दयावान और सहिष्णु बना खुशियों को लौटाने की प्रेरणा दी। हमे आत्मसयंम के साथ ऊँचा मनोबल प्रदान किया। विश्व ने भी माना कि शाकाहार न केवल शरीर को निरोग रखता है, हमें लम्बी आयु भी प्रदान करता है। संयम ओज उल्लास संघर्ष की कुछ अतिरिक्त ऊर्जा शक्ति प्रदान करता है। हम अभाव में भी जिंदगी को खुशगवार बनाने की प्रवृत्ति पाने में सफल हो जाते है। मौसम के प्रतिकूल जीवन जीने की जिस आधुनिक शैली को अपनाकर आज हम उसका घनिष्ठ अंग बनते जा रहे हैं वह हमें तात्कालिक सुख तो प्रदान करती है किंतु ऋतुओं के अनुसार ढलने की हमारी क्षमता को क्षीण कर देती है। अतः ये आदमी के दीर्घकालीन जीवन के हित में नहीं है। इंसानी जीवन और प्रकृति के मध्य एक दीवार खडी कर हमें एक दूसरे के विरुद्ध प्रमिकूल हो जाने के लिये उकसाती जाती है। हमें हर मौसम खलते हैं जाडा आता है तो हम जाडे के लिये रोते हैं गर्मी आती है तो गर्मी को कासते हैं बरसात आती हैं उसको भी भला बुरा कहने में नहीं हिचकते हम। सच तो यह है कि मौसम के अनुसार हमारी तैयारी अपूर्ण होती है। हम अपनी लापरवाहियों का ठीकरा प्रकृति पर फोड स्वयं अपनी गल्तियों से बचने का उपक्रम ढूंढते नजर आते है। हम सुविधाओं के इस बाजार से बहुत कुछ पाया है तो खोया भी कम नहीं है। भारतीय जीवन दर्शन में हमें प्रात ईश वन्दन, मातृभूमि नमन तथा सूर्य आराधना अर्थात प्रकृति के नमन पूजन अर्चन के पश्चात ही अपने जीवन जीने की परम्परा निभाने की आधारशिला से जुडा पाया गया है। हमारे जैसे ही प्रकृति के अन्य उपांग भी जीवन जीते आ रहे हैं। यहाॅं भूमंडल का जीवन रचते जल वायु सूर्य चन्द्र तारे सबकी वन्दना की गई हैं। रज भी हमारे लिये प्रणम्य है। क्योकि देहरचना के जीवन का आधार पृथ्वी है अतः धूल के अणु कणो ंसे बनी वसुन्धरा हमारे लिये सर्वाधिक पूजनीय है हम उसे माॅं कह पूजते आये है क्योंकि उसकी रज में ही हम जीवन का सुख पाये है।