नारी का स्थान


'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते ,रमन्ते तत्र देवता।'
भारतीय संस्कृति में नारी सदैव ही पूजनीय रही है। हमारे ऋषि-मुनियों एवं मनीषियों ने अपनी सूझबूझ से गर्भधारण से लेकर मृत्यु पर्यन्त संस्कारों का प्रावधान कर भ्रूण ह्त्या जैसी घृणित सोच से समाज को बचाने का प्रयास किया है। कन्या पूजन, बालिकाओं के प्रति सम्मान का प्रतीक तथा प्रत्येक धार्मिक एवं शुभ कार्य में पत्नी या महिला की अनिवार्यता, नारी को समाज का अभिन्न व महत्वपूर्ण हिस्सा बनाये रखने का सार्थक प्रयास  किया गया। कालांतर से आज तक बिना स्त्री की सहमति के घर-परिवार में कोई कार्य संपन्न नहीं होता। विडम्बना यह है की विज्ञान से विकास का सपना देखते देखते हमने सामाजिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विकास को तो किनारे कर दिया और मात्र भौतिक सुख को ही विकास मान लिया। बात हो रही है नारी अस्तित्व की यानि माँ, बहन, बेटी, प्रेयसी, संस्कारों की संरक्षिका, प्रचारक व पोशक, ममतामयी शिक्षिका, प्रेरणा स्त्रोत आदि जो भी सृष्टि में संभव है, उस नारी की। फिर आज नारी अस्तित्व संकट में क्यों? नारी अस्तित्व पर मंडराते तथाकथित संकट को समझने के लिए हमें कुछ विरोधाभाषी बातों को समझना होगा। आज प्रत्येक क्षेत्र में नारी अग्रणी है, ज्ञान से विज्ञान तक उसका परचम फहरा रहा है, जमीं से आसमान तक उसका साम्राज्य है-
पढ़ लिख कर बेटी आगे बढ़ी है, सत्ता के शीर्ष तक बेटी चढ़ी है 
इस जमीं की बात क्या करें हम, बेटी चाँद तारों से आगे बढ़ी है।
फिर वह कौन से कारण हैं कि कुछ नारियां अपने को असुरक्षित व अस्तित्वहीन मानती हैं। समाज के संपन्न परिवारों से आने वाली ये महिलायें अखबार, टेलीविजन, रेडिओ, पत्रिकाओं, सभा गोष्ठियों के माध्यम से 'नारी अस्तित्व पर संकट'  विचार को प्रसारित कराती हैं। इनमे से कोई भी महिला भारतीय समाज के संयुक्त परिवार ढाँचे पर न तो विचार करती हैं और न ही गाँव-देहात में रहने वाले गरीब परिवारों की जीवन शैली जानती हैं। ये नहीं जानती कि इनके घर पर काम करने वाली बाई भी नारी ही है। जिनके घरों में गरीबी के बावजूद दुःख-सुख सहते हुए भी न तो संस्कारों का अभाव है और न ही कहीं नारी अस्तित्व को खतरा।/जहाँ रुखी रोटी खाकर भी हंसता बचपन है /परिवार जनो की सेवा कर स्त्री का गौरव बढ़ता है /जहाँ सबके सुख -दुःख एक दूजे के होते हैं /जहाँ भूखे रहकर भी संस्कृति को ढोते हैं।
घर-परिवार व समाज कुछ निर्दिश्ट नियमो पर चलता है। यदि कोई भी नियमों के विरुद्ध अपनी सुविधानुसार चलना चाहेगा, निश्चित रूप से समस्याएँ पैदा होंगी ही। नए नियम बनाये जा सकते हैं लेकिन उनका पालन करना होगा। यानी जिस परिवार में सब अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए आगे बढ़ेंगे वहां नारी का सम्मान होगा और उसका अस्तित्व भी बरकरार रहेगा। कमोबेस यह स्थिति मध्यम एवं निम्नवर्ग में संरक्षित व पोषित है। इसके विपरीत स्वतंत्र अस्तित्व की तलाश करती महिलायें अक्सर अस्तित्वविहीन देखी जाती हैं। संतुष्टि का स्तर घटते ही अहं की भावना जन्म लेती है और शुरू होता है अस्तित्व संकट का डर। बहुधा सुनने में आता है कि प्रत्येक सफल मनुष्य के पीछे नारी का योगदान होता है। इसके विपरीत प्रत्येक सफल नारी अपनी सफलता का श्रेय किसी से बांटना नहीं चाहती अपितु अहंकारवश मात्र अपनी मेहनत का ही प्रतिफल मानती है।
अपनी अनियंत्रित इच्छाओं की समयपूर्व सफलता में पुरुषों को      बाधक मान कर कोसना  'पुरुष प्रधान समाज', 'पितृ सत्ता' जैसे जुमले उछालना, मंचों पर वाह-वाही लूटने के हथियार बन गए हैं। वह भूल जाती हैं कि उसको आगे बढाने में जिस पति, पिता, पुत्र, भाई या दोस्त ने सहयोग किया, वह भी पुरुष ही था। आज नारी यह भी नहीं समझ पा रही है कि उसने शीघ्र स्वंतत्र ( जिसका मुख्य    आधार आर्थिक स्वतन्त्रता से है ) होने की चाह में स्वयं को उपभोक्ता वस्तु बना डाला है और जब आप वस्तु बन जाते हैं तब अस्तित्व का प्रश्न  ही कहाँ ? आर्थिक स्वतन्त्रता पाने के लिए, महिलाओं ने आज रिश्तों को बेमानी कर दिया है पति का घर इस शहर, पत्नी का उस नगर हो गया है। पैसों की खातिर शादी होते ही पति-पत्नी अलग हो गए हैं माँ बाप, भाई-बहन सब पैसों की चमक में कहीं खो गए हैं। आज विश्वास की नींव इतनी खोखली हो गई है कि नवयौवना अपना वर्तमान नहीं भविष्य खोजती है। कुछ हो गया पति को मेरा क्या होगा शादी से पहले वह सोचती है।
भारतीय वेद सृष्टि के प्राचीनतम ग्रन्थ माने जाते हैं। जिनमे नारी के महत्त्व एवं योगदान को चिन्हित किया गया है। विदुषी विश्वनरा, अपाला, लोपामुद्रा तथा घोषा जैसी नारियों ने ऋग्वेद के सूक्तों की रचना की और मैत्रियी, गार्गी, अदिति जैसी अनेक विदुषी महिलाओं ने अपने ज्ञान का परचम फहराया। लक्ष्मी, सरस्वती, पारवती, दुर्गा सीता, राधा, रुकमनी ने देवतुल्य स्थान प्राप्त किया तो शास्त्र से शस्त्र, धर्म-अध्यात्म सबमे, महिलाओं ने अपने अस्तित्व का बिगुल बजाया। रानी चेन्नमा, लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई, बेगम हजरत महल, उदा देवी, सरोजिनी नायडू, सावित्री बाई फुले, वेद कुमारी, आग्यावती, नेली सेन गुप्ता, नागरानी गुन्दुदाल्यु, प्रीटी लता वादेयर, कल्पनादत्त, शांति घोष, सुनीति चैधरी, बीना दास, सुहासिनी आची, दुर्गा देवी, आदि अनेकोनेक के योगदान और अस्तित्व को क्या कभी नकारा जा सकता है? यह स्वयं आज की नारी को ही विचारना  होगा कि वह मात्र नदी बनकर सागर में समाकर अपना अस्तित्व खोना चाहती है अथवा अपने गुणों, व्यवहार, आहार-विचार से पोषित करने वाली गंगा के समान बनकर, सागर में समाने पर भी सागर को गंगा सागर बनाना चाहती हैं। उसे समझना होगा कि मात्र आधुनिकता व विकास की दौड़ में अपना धरातल खोना चाहती है अथवा जमीं से जुड़ी रहकर समाज व परिवार के योगदान से अपनी पहचान बनाना चाहती हैं। नारी अस्तित्व के लिए बुनियादी पहलू है कन्या भ्रूण का होना, बचे रहना। हमारी संस्कृति में नारी सदैव ही पूजनीय व वन्दनीय रही है। छोटी बालिकाओं को देवी के समान पूजना, नारी के प्रति हमारे दायित्व का बोध कराता है। फिर भ्रूण ह्त्या की कल्पना कैसे की जा सकती है? इस बात को सिरे से खारिज तो नहीं किया जा सकता कि कन्या भ्रूण हत्याएं नहीं होती होंगी मगर समाज में निरंतरता के साथ किया जा रहा प्रचार भारतीय समाज को कन्या भ्रूण की शत प्रतिशत ह्त्या का भयावह रूप दिखाता प्रतीत होता है और हमारे चरित्र व चिंतन को दुनिया के समक्ष बौना अवश्य बना देता है। क्या वास्तव में देष में भ्रूण ह्त्या का यह भयावह रूप है? इस बात को जाने के लिए हमें थोड़ा निम्न तथ्यों पर गौर करना होगा- 
अर्थशास्त्रियों के मुताबिक भारत की आबादी का 40प्र0 लोग प्रतिदिन 20रू0 से 25रु0 कमाता है, 20प्र0 आबादी की आय 100रू0 प्रतिदिन तक है, 20प्र0 जनसंख्या निम्न मध्यम है जिसकी मासिक आय 8000रू0 से 10000रू0 तक है। 10प्र0 लोग वह हैं जिनकी आय 25000 से 30000रू0 प्रतिमाह तक है, इसके अलावा बचे 10प्र0 लोग उच्च मध्य व उच्च आय से सम्बंधित हैं।
प्रथम 80प्र0 लोग जनसंख्या वाले घरों में तीन-चार या पांच बच्चों का होना आम बात है और उसमे भी कन्याओं का प्रतिशत किसी भी प्रकार कम नहीं है। अक्सर यह भी देखने में आता है कि एक ही परिवार में 3-4 लड़कियां हैं लेकिन वहां लडके की चाह के बावजूद कन्या भ्रूण की ह्त्या का विचार ही नहीं है, अपितु ईश्वर की कृपा, इच्छा मानकर स्वीकार किया जाता है। अब बाकी 20प्र0 जनसंख्या के परिवारों का आकलन करें तो वहां एक-दो बच्चों की मानसिकता ही पायी जाती है। इससे स्पष्ट है कि केवल उच्च 20प्र0 लोगों की मानसिकता ही न्यूनतम परिवार की है। अब भ्रूण ह्त्या का दूसरा रुख भी विचारनीय है। भ्रूण ह्त्या के लिए आधुनिक तकनीक यानी अल्ट्रा साउंड का प्रयोग आवश्यक है, जिसका न्यूनतम खर्च भ्रूण परीक्षण  के लिए 8000रू0 से 10000रू0 रुपये तक है और यह सुविधा अभी तक भी दूर देहात, गाँव में उपलब्ध नहीं है, फिर सफाई का खर्च यानि भ्रूण ह्त्या जिस पर भी 10000रू0 से 25000रू0 तक है। तब बताएं कि देश की 80प्र0 जनता जो दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष रत है, भ्रूण ह्त्या की बात कैसे सोच सकती है? हाँ 20प्र0 लोगों की बात, उनकी मानसिकता पर कोई प्रश्न चिन्ह मैं नहीं लगा रहा हूँ, वह स्वयं विचार करें और अपना मूल्यांकन करें।
भ्रूण ह्त्या के सम्बन्ध में अनेक सर्वे किये जाते रहे हैं जिनमे अधिकतर प्रायोजित ही होते हैं, मगर एक सर्वे ने नए तथ्यों को भी रेखांकित किया है। उसके मुताबिक 'अपने उज्जवल भविष्य की चाह में वर्तमान पीढ़ी में देर से शादी का प्रचलन बढ़ा है, उन्हें बिना शादी संग रहना (लिव इन रिलेशनशिप ) पसंद है, मगर शादी करना नहीं। वह दायित्वों के    बंधन से आजादी चाहते हैं। बिन विवाह संग रहने के दौरान अथवा देर से शादी के बावजूद आज की युवती गर्भ धारण से बचना चाहती है। अगर किसी कारण से वह गर्भवती हो भी गई तो बिना लिंग जांच कराये गर्भपात कराने में भी उसे गुरेज नहीं है। तो यहाँ भ्रूण ह्त्या तो है मगर कन्या भ्रूण ह्त्या जैसी कोई बात नहीं। वर्तमान बेटी का रूप भी दृष्टव्य है-
आज बेटी हुनर बंद हो गयी है 
पढ़ लिख कर पैरों पर खड़ी हो गयी है 
जो होती थी निर्भर सदा दूसरों पर
आज माँ-बाप का सहारा हो गयी है।
साहस से अपने दुनिया बदलकर 
हर कदम पर बेटी विजयी हो गयी है।
क्या खोया क्या पाया, जरा यह विचारें
आज बेटी जहाँ मंे बेटा हो गयी है।
वात्सल्य और मातृत्व सुख को भुलाकर
पैसों की दौड़ मे बेटी खो गयी है।
चाहती नहीं वह माँ बनना देखो
आज बेटी बंजर धरती हो गयी है।
बनाये रखने को अपना शारीरिक सौंदर्य
बेटी ही भ्रूण की हत्यारिन हो गयी है।
चाहती आजादी सामाजिक मूल्यों से 
आज बेटी खुला बाजार हो गयी है।
बिन ब्याह संग रहना और नशा करना
आधुनिक बेटी की शान हो गयी है।
जिस घर मे बेटी ब्याह कर गयी है
उस घर मे खड़ी दीवार हो गयी है।
थे प्यारे जो माँ, बाप, भाई, बहन अब तक
आज निगाहें मिलाना दुश्वार हो गयी है। अगर आप वास्तव में नारी अस्तित्व को बनाए रखने की बात करते हैं तो मात्र भ्रूणह्त्या पर रोक लगाना प्रयाप्त नहीं अपितु सारगर्भित, संस्कार परक एवं विकासशील शिक्षा की आवश्यकता है जिससे नारी खुद को गौरवान्वित महसूस कर सके।
चाहें बेटी नित नए मुकाम पाए 
ज्ञान से विज्ञान परचम  फहराए 
धर्म के शीर्ष पर छा जाये बेटी 
पिता की भी शान बेटी बन जाए 
सिखाएं बेटी को खुद पर भरोसा 
संस्कारों की सीख जीवन में रखे।
अपने साहस व हुनर से जाए शिखर तक 
दुनिया को बेटी अपने कदमों में रखे।