नई चेतना,नई मंजिल,नया साल


नववर्ष के आगमन पर पूरी दुनियां में एक नयी उमंग और नये जोश का संचार हो जाता है। सभी को अपार संतोष होता है कि परम पिता परमेश्वर की कृपा से वे इस अवसर के गवाह बने हैं। बीते साल में क्या अच्छा था, क्या त्रुटियां रहीं, उन सभी की समीक्षा के बाद नए भविष्य की रूपरेखा तय होती है और हमेशा प्रयत्न रहता है कि इस नए साल में पहले से अधिक उपलब्धियां हासिल हों। हिंदू कैलेंडर पर आधारित भारतीय नववर्ष का शुभारम्भ अलग-अलग मान्यताओं के मध्यनजर अपने-अपने  हिसाब से मनाया जाता है, लेकिन 'ग्रेगोरियन कैलेन्डर' आधारित यह नव वर्ष का जश्न 'वसुधैवकुटुम्बकम' को चरितार्थ करता है। विश्व में घटित होने वाली हर घटना का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देर सवेर सभी पर प्रभाव पड़ता है। गत वर्ष, भारत के लिए 'जीसटी' का लागू होना और 'रियल एस्टेट रेग्युलेरटी  बिल' का आना सबसे बड़ी उपलब्धियां रहीं। इस अंक में कुछ विशेष पहलुओं पर ध्यान  देंगे जो हमें एक सफल जीवन की ओर अग्रसर होने के साथ एक जागरूक नागरिक की भूमिका प्रदान करने में भी सहायक होंगे।  
विद्वानों का कहना है, कि इंसान अपनी परिस्थितियों का नहीं बल्कि अपने निर्णयों का उत्पाद होता है। भगवान श्रीकृकृष्ण के सखा और परम भक्त उ(व जी ने अपने मन की शंकाओं के समाधान हेतु श्रीकृष्ण से पूछा कि आप द्युतक्रीडा में मामा शकुनि की धूर्तता से पांडवों को बचा सकते थे लेकिन आपने ऐसा नहीं किया? द्वारिकाधीश मुस्कराकर कहते हैं, सृष्टि का नियम है कि विवेकवान ही जीतता है। दुर्योधन के पास उस क्षण में विवेक था और धर्मराज के पास अहम्...इसलिए युधिष्ठर की पराजय हुई। दुर्योधन ये जानता था कि उसके पास धन है लेकिन पासे खेलने की कला नहीं, इसके लिए उसने शकुनि का उपयोग किया। यही विवेक है। तुमको क्या लगता है, अगर वही विवेक      धर्मराज युधिष्ठर ने दिखाया होता तो परिणाम क्या होता? इस संसार में हरेक का जीवन उसके द्वारा किये गये कर्मों के आधार पर संचालित होता है। मेरा इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता। मैं केवल एक 'साक्षी' हूँ। यही ईश्वर का धर्म है। इंसान में 'चयन' करने की सबसे बड़ी ताकत है। इसी विवेक के आधार पर वह अपने निर्णय लेता है और परिणामों का भागीदार बनता है। अतः नए साल का संकल्प हो कि परस्थितियां जैसी भी हों लेकिन निर्णय लेने में अत्यधिक संवेदनशीलता दिखाते हुए इससे उत्पन दूरगामी  परिणामों को ध्यान में रखना ही समझदारी होगी।
हमारे देश में हजारों सालों से संतों ने समय-समय पर समाज को शिक्षित करने का काम किया है, उन्हीं में से एक संत हुए 'तिरुवल्लुवर'। करीब दो हजार साल पहले उन्होंने जीवन के हरेक पहलु पर शाश्वत और सटीक लिखा। उनके अनुसार जीवन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण पहलू आर्थिक पहलू है। मनुष्य के लिए अभावग्रस्त जीवन सबसे बड़ा अभिशाप है, अतः इसे दूर करना ही जीवन का पहला लक्ष्य होना चाहिए। गरीबी में जी रहे इंसान हो या राष्ट्र दोनों के पास कोई गौरव नहीं होता है, गरीबों को सभी हेय दृष्टि से देखते हैं, गरीब जब उचित साधनों से समृ( बनता है तो सभी उसका सम्मान करते हैं। जो खुद में समृ( है उसकी बात की कीमत होती है, जबकि दूसरों पर आश्रित व्यक्ति की कीमती बात का भी कोई मूल्य नहीं होता। संत तिरुवल्लुवर लिखते हैं कि बु(िमता, दूरदर्शिता और महानता, ये तीन जब राष्ट्रीय धन सम्पदा के अधिकारी बनते हैं तो उस राष्ट्र का वैभव उस गांव के सामान होता है जिसके मध्य में पीने के पानी से भरी झील है, फलों से लदा वृक्ष है और कभी निष्फल न होने वाली औषधि का पेड़ है। अर्थात वह देश भूख, प्यास, और रोग से मुक्त होता है। यहाँ पर 'समृ(' शब्द का अर्थ भौतिक विलासिता से बिलकुल नहीं है। तिरुवल्लुवर स्वयं बहुत साधारण जीवन जीते थे। हमारे देश में कई ऐसे सर्वसम्पन्न व्यक्तित्व रहे हैं, जिनके सामने दुनियां के भौतिकवादी लोग भी छोटे पडं़े। ईश्वरचंद विद्यासागर, सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया, श्री अरविन्दो, डा॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन, महामना मदनमोहन मालवीय और भी कई भारत रत्न थे जिनकी अमीरी से अंग्रेज भी नतमस्तक थे क्यूंकि उन्होंने अपनी आवश्यक्ताएं सीमित रखीं और अपनी बौ(िक और आर्थिक क्षमता का उपयोग समाज की बेहतरी के लिए किया। भारत में आज भी ऐसे कई साधारण दिखाई पड़ने वाले अमीर मिल जायेंगे और बहुत सारे ऐसे धनाड्य दिखने वाले गरीब भी मिल जायेंगे। एक रोमन दार्शनिक के अनुसार, वह व्यक्ति गरीब नहीं है जिसके पास थोड़ा बहुत ही है। गरीब तो वह है जो ज्यादा के लिए मरा जा रहा है। कोई व्यक्ति कितना  धनी है इसका मूल्यांकन उसके द्वारा किये गये भौतिक वस्तुओं के संग्रह से नहीं बल्कि  उन विशेषताओं के आधार पर होता है, जिन्हें धन से नहीं खरीदा जा सकता है। 
आपने भी ये महसूस किया होगा की जब हमारे पास पैसा आता है तो हम ऐसी वस्तुएं खरीदते जाते हैं जो अनावश्यक होती हैं। ये चीजें जरुरत की न होकर मन में जागी इच्छाओं की तुष्टि हेतु होती हैं। दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में  गिने जाने वाले 'वारेन बफेट' का मानना है कि  हमें अपनी जरुरतों और अभिलाषाओं  में फर्क  करना आना चाहिए। आवश्यकता के लिए ही मेहनत से कमाए, धन को खर्च करना चाहिए। इन दोनों में अंतर समझने वाला व्यक्ति ही सही मायनों में जीवन में सफल हो पाता है। क्यूंकि जरुरतें तो पूरी की जा सकती हैं, लेकिन अभिलाषाएं कभी खत्म नहीं होती हैं। यह एक श्लोक काफी है, जीवन के इस सत्य को जानने के लिए।
   भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः,
   तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । 
   कालो न यातो वयमेव याताः 
   तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।
अर्थात, हमने भोगों का सेवन नहीं किया बल्कि भोगों ने ही हमें क्षय किया है।  हमने इच्छाओं की तृप्ति के लिए अनेक यत्न किये मगर स्वयं ही तप्त हो गये। काल समाप्त नहीं होता बल्कि  हम ही समाप्त हो जाते हैं, तृष्णा जीर्ण कभी नहीं हुई, पर हम ही जीर्ण हो जाते हैं। नए साल में हम पर्यत्न कर सकते हैं कि अपनी इच्छाओं का विश्लेषण कर उन्हें  सीमित रखा जाय , कठोर परिश्रम और बु(िमता को मानव जीवन की सफलता की कुंजी माना जाता है। सफलता हासिल करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका व्यक्ति के सकारात्मक रवैये की होती है। इसे पाजिटिव ऐटिटूड भी कहा जाता है। यदि इंसान के पास बु(ि, बल और पैसा है भी लेकिन नजरिया नकारात्मक है, तो ऊँचाइयों से गिरने में जरा भी देर नहीं लगती। इन्सान होने की खूबसूरती यही है कि वह परिपूर्ण नहीं है।  गीता भी 'पूर्णता';परफेक्शनद्ध को महत्व नहीं देती है। क्यूंकि मनुष्य गलतियों से ही सीखता है। बु(िमान लोग दूसरों की गलतियों से अधिक सीखते हैं, इसलिए जीवन में कम गलतियाँ करते हुए अधिक गति से आगे बढ़ते हैं। 
हर युग में ताकतवर ने कमजोर की प्रतिभा को दबाने का काम बखूबी से किया है। राष्ट्र से अधिक व्यक्ति विशेष को आगे रखने का रवैया हमेशा से प्रबल रहा है। गुरु द्रोण का एक प्रतिभावान धनुर्धर भील बालक एकलव्य का अंगूठा गुरु दक्षिणा में माँगना सबसे प्रसि( श्रुति है। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में अपना प्रभुत्व  कायम रखने वाले लोग किसी न किसी बहाने आम इंसान की प्रतिभा का दमन करते रहे हैं। ऐसी ताकतों का उद्देश्य हमेशा से बेहतर हुनरमंद को रोकने का रहा है, ताकि इस सत्य का वजूद ही न रहे कि कोई और उनसे बेहतर भी है। सुनने में आता है कि गायन का क्षेत्र हो या खेल का मैदान इस प्रवृति ने न जाने कितनी आवाजों को दबाया है, कितने ही धोनी अपना करिश्मा दिखाने के एक मौके का इंतजार करते रहे। इसके पीछे मानसिकता यह है की जो लोग खुद का व्यक्तित्व एवं मानसिक स्तर सुधारने में नाकाम रहते हैं, वे अक्सर अपनी ताकत खुद को ऊपर उठाने के बजाय दूसरों को नीचे धकेलने और पीछे घसीटने में लगाते हैं, ताकि अयोग्य होते हुए भी  सबसे ऊपर वही दिखें। यही कारण रहा है कि हजारों ऐसे अन्वेषण हुए जिनकी उपज भारत में हुई लेकिन विश्व में मान्यता किसी और को मिली। समय बदल रहा है और गांव गली से भी प्रतिभाएं आगे आ रही हैं। नये साल में हम सभी का प्रयास हो कि हुनरमंदों को उनका मौका दिया जाय ताकि नए भारत का निर्माण हो सके।  
हमें विश्वास है कि २0१८ में हमारा देश नए आयाम हासिल करेगा। वर्तमान में, देश अपनी संस्कृति, सभ्यता और राष्ट्रवाद को लेकर, विचार मंथन के दौर से गुजर रहा है। इसमें हम सब की अपनी-अपनी भूमिका है। यहाँ पर कोई भी तटस्थ नहीं रह सकता क्योंकि दशकों से भारत माता अपमान सहते-सहते थक सी गयी है। देश वासी स्कूलों में इतिहास की उन किताबों को पढ़ते रहे जिन्हें एक षड्यंत्र के तहत हिंदुत्वाको कम आंककर दिखाया गया था और इसका परिणाम ये हुआ कि नई पीढ़ी अपनी संस्कृति को भूलती जा रही है। आजादी के बाद से भी  हिन्दुत्ववादी विचारधारा को दबाने का प्रयास रहा है। पहली बार, गत तीन साल से इस विचार    धारा को कुछ बल मिला है। पांच हजार साल पुरानी भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के इस महायज्ञ में हमारा योगदान बहुत महत्वपूर्ण होगा, ताकि आने वाली पीड़ियाँ हम पर भी गर्व कर सकें। संस्कृति ही संस्कारों की जननी है। हमारे वेद पुराण तथा धर्मग्रंथ सदियों से इनकी महिमा का बखान करते रहे हैं। 'जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी'। जय हिन्द।