अभी कुछ दिन बीते
एक आदमी हमारे ही गांव का
आया था अपने गांव अजाना सा
जैसे अपने घर-गांव नहीं
किसी अजाने से
स्वप्नलोक में आया हो उसे,
ठीक-ठाक पता भी नहीं है कि
यही जो उनका पुश्तैनी मकान
खंडहर ही अवशेष हैं जिसके अब
जैसे कि वे स्वयं भी हो चुके हैं
कभी.....उनके पितरों ने
जन्म लिया था यहीं
पलाश की तरह
कभी बुरांश की सूरत
तो कभी मेहल और
फ्यूंली के मानिंद
मुस्कराता रहा था....
बना कभी मांगल
तो कभी कौथिग
कभी बग्वाल तो कभी इगास...
उन्हें अफसोस हुआ कि
लाल मृदा-गौमय से लीपे
फर्श का सपर्श और
कुणजा-गौंत-गौघृत
और ब्राह्मण का
वेद-मंत्रोच्चार/ उनके ललाट
नहीं लिखा था विधाता ने...
...बहुत-बहुत रूवांसा होकर
पश्चाताप भरे, कांपते शब्दों में
कहा था उन्होंने
इस विषाद के अनंतर भी-
मेरे भाई! मेरी मिट्टी को
मेरे पितरों की पावन
मिट्टी की महक में
गुस्ताख बोसे का भी हक नहीं...!
वरना, क्यों लौटता मैं
उसी महानगर
जो जन्म देने पर भी
मुझे 'प्रवासी' ही
पुकारता आ रहा है....
ओ प्रवासी !