संघ गाँधी और परशुराम

अधिकांश मीडिया संघ के प्रति दुराग्रह पाले बैठा है। इसलिए मना करने पर भी संघ के कार्यकर्ताओं से वार्ता में 90 प्रतिशत प्रश्न राजनीतिक ही होते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें वे अपने मालिक की राजनीतिक दृष्टि के अनुसार व्याख्या कर प्रकाशित-प्रसारित करते हैं। यह मीडिया की मानसिक कंगाली का परिचायक है। किसी समय मीडिया देश के निर्माण में सार्थक भूमिका निभाता था, पर आज तो वह केवल गंदगी परोसकर पैसा कमाने का माध्यम बन कर रह गया है।
जहां तक संघ और भाजपा के परस्पर संबंधों की बात है, तो संघ द्वारा भाजपा पर अंकुश रखना कोई नई बात नहीं है। यह उसी श्रेष्ठ परम्परा का परिचायक है, जिसमें राजा पर धर्मदंड का अंकुश रहता था। प्राचीन राजतंत्र राजमुकुट धारण करते समय तीन बार अदंडयोस्मि, अदंडयोस्मि, अदंडयोस्मि, कहता था। अर्थात मैं दंड विधान से ऊपर हूँ। ऐसे में राजगुरू पलाश का एक दंड उसे छुआकर तीन बार धर्म दंडयोसि, धर्म दंडयोसि, धर्म दंडयोसि,कहता था। अर्थात् धर्म तुम्हें भी दंड दे सकता है। लेकिन साथ ही कुछ मर्यादाएं भी जुड़ी थी। धर्म का प्रतीक संन्यासी राज्य के दैनिक काम में हस्तक्षेप नहीं करता था। वह सदा नगर से दूर वन में कुटिया बनाकर रहता था। राजा उनके भरण-पोषण की सामान्य आवश्यकताएं पूरी करता था, लेकिन संन्यासी या गुरू सादगीपूर्ण जीवन ही गिबताते थे। राजा को जब कभी परामर्श की आवश्यकता होती थी, तो वह संन्यासी से मिलने उनके आश्रम में जाता था तथा द्वार पर ही अपना रथ, कर्मचारी और शस्त्रादि छोड़ देता था। संन्यासी के आगमन पर राजा महल के द्वार पर उनका स्वागत कर उन्हें उचित आसन देता था। दोनों अपनी मर्यादा का पालन करते थे, इसलिए भारत में लाखों वर्ष तक जनहितैषी राजतंत्र चला। दशरथ और गुरू वशिष्ठ, राम और विश्वामित्र, शिवाजी और समर्थ स्वामी रामदास चंद्रगुप्त और चाणक्य आदि के उदाहरण भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे हैं।
इसमें गड़बड़ तब हुई, जब राजा ने संन्यासी और गुरू की सत्ता को अस्वीकार कर राजदंड के साथ धर्मदंड भी हाथ में ले लिया। रावण से लेकर हिरण्यकश्यप और कंस तक ऐसे ही शासक हुए। अंततः इनको मारने के लिए ईश्वर ने अवतार लिया और जनसहयोग से दुष्ट राजा का अंत किया। यह परम्परा यहां समाप्त नहीं हुई। कांग्रेस के साथ गांधी जी का रिश्ता भी लगभग ऐसा ही था। गांधी जी कांग्रेस के हर कार्यक्रम में भाग लेते थे, वे ही उसके नीति निर्धारक थे, किन्तु वे कभी कांग्रेस के किसी पद पर नहीं बैठे। ठीक हो या गलत, पर गांधी जी की हर बात मानी जाती थी। यह कांग्रेस पर गांधी जी का नैतिक प्रभाव ही था। गांधी जी के निर्णय प्रायः अलोकतांत्रिक होते थे। किसी भी आंदोलन को शुरू या समाप्त करना उनकी निजी इच्छा पर निर्भर था। नेहरू को कांग्रेस की एक भी प्रांतीय समिति का समर्थन नहीं था, फिर भी गांधी जी के कहने पर वे अध्यक्ष बनाये गए। इसी से वे प्रधानमंत्री भी बने। स्वतंत्र भारत की अपनी कल्पना गांधी जी ने 'हिन्द स्वराज' में 1909 में ही लिख दी थी। उनसे 1947 में या आज सब सहमत हों, यह आवश्यक नहीं है, पर नेहरू ने उन्हें सिरे से ही खारिज कर दिया था। फिर भी गांधी जी क्यों सब सहन करते रहे? गांधी जी ने कहा था कि विभाजन मेरी लाश पर होगा, फिर उन्होंने इसे मान लिया। इस बारे में नेहरू ने स्पष्ट कहा था कि स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए हम बूढ़े हो चुके थे। अखंड भारत की बात करने पर हमें फिर जेल जाना पड़ता। इसलिए जैसा कटा-फटा भारत हमें मिला, हमने ले लिया। गांधी जी से जब इस विरोधाभास के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने साफ कह दिया कि मेरे पास न तो वैकल्पिक नेतृत्व था, और न ही इतना समय कि मैं नया नेतृत्व तैयार कर पाता। इसलिए मैंने सब कुछ भगवान के भरोसे छोड़ दिया। भगवान का तो उन्होेंने नाम लिया था, किन्तु उन्होंने सब कुछ नेहरू के भरोसे छोड़ दिया था। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो जनसंघ का निर्माण डा. मुखर्जी ने तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरूजी से वार्ता के बाद किया था। संघ की पुण्याई और स्वयंसेवकों की तपस्या के बल पर ही भाजपा सत्ता में पहंुची। हालांकि गांधीवादी समाजवाद और सेक्यूलर दिखने के चक्कर में जब वह मूल पथ से डिगी, तो वह स्वयंसेवकों के मन से उतर गयी। राममंदिर आंदोलन के समर्थन करने पर फिर स्वयंसेवकों और हिन्दू समाज ने उसे अपने हृदय मंदिर में बैठा लिया और दिल्ली की सत्ता दिलाई, पर सत्ता मिलते ही गठबंधन धर्म के नाम पर उसके नेता फिर सेक्यूलर राग गाने लगे। आज की भाजपा की दुर्दशा का कारण उसके कुछ कुर्सीलोलुप नेता ही हैं। पिछले कुछ समय से जो भाजपा की दशा और दिशा हो गयी है, क्या संघ उसे चुपचाप देखता रहे, तब तो संघ उसी भूमिका में आ जाएगा जिसमें गांधी जी ने हताश होकर सब नेहरू पर छोड़ दिया था, पर संघ के पास नई पीढ़ी भी है और नवविचार भी। इसलिए संघ ने उचित समय की प्रतीक्षा की। यद्यपि संघ चाहे तो भाजपा में किसी भी समय कोई परिवर्तन करा सकता है। जहां तक नितिन गड़करी जैसे एक प्रांत तक सीमित व्यक्ति को इतनी बड़ी जिम्मेदारी देने की बात है, तो यह समझना चाहिए, कि भाजपा अन्य दलों की तरह व्यक्तिवादी, जातिवादी या मजहबी दल नहीं है। वहां व्यक्ति नहीं संगठन महत्वपूर्ण है। बलराज मधोक, कल्याण सिंह, उमा भारती, मदनलाल खुराना आदि ने जब भी स्वयं को दल से बड़ा माना, कार्यकर्ताओं ने उन्हें उनकी औकात बता दी। यह संगठन की ही शक्ति है। इसलिए नितिन गड़करी हों या कोई और जो भी इस विक्रमादित्य के सिंहासन पर बैठेगा उसे कार्यकर्ताओं का पूरा सहयोग मिलेगा।