शब्दकोशों में व्युत्पत्ति का महत्व

शब्दकोश अर्थात् शब्दों का भंडार और व्युत्पत्ति यानी उत्पत्ति। पुरातनकाल मंे कोश शब्दों के संग्रह मात्र होते थे। क्रमशः शब्द के अर्थ-पक्ष उस में अन्तर्भुक्त भाव और विचार को महत्ता दी जाने लगी। शब्द मंे निहित विचार को उचित रूप से ज्ञात करना परम ध्येय माना गया- 'एक शब्द समग्ज्ञात सुप्रयुक्तः सवर्गे लोके व कामधुग् भवति।' कोश का मुख्य विषय शब्द और उसका उद्देश्य अर्थ देने की निश्चितता के पश्चात विचार आया कि शब्द के सम्यक अर्थ और व्याख्या देना व्युपत्ति के बिना सम्भव नहीं है। फलतः व्युत्पत्ति शास्त्र पर कार्य प्रारम्भ हुआ। शब्द की आत्मा और प्राण तक पहंुचने में व्युत्पत्ति ही सहायक बनी। कोश का मानक स्तरीय और आदर्श प्रमाणित करने के लिए शब्दों का सही निर्धारण एवं निर्देशन अति आवश्यक हो गया।व्युत्पत्ति शब्द-रूपों की निर्माण प्रक्रिया का वैज्ञानिक अध्ययन है। व्यत्पत्ति अर्थात् शब्द के शास्त्र सम्मत् पद्धति से मूल उद्गम स्रोत या स्थान ज्ञात और उसे प्रस्तुत करना है। सामान्यतः 'व्युत्पत्ति' और 'निरूक्ति' को एक दूसरे का पर्याय मानते हुए एक ही अर्थ में लिया जाता है। परन्तु यर्थाथतः इन दोनों मे सूक्ष्म तात्विक अन्तर है। व्युत्पत्ति में शब्द कर मूल रूप संरचनात्मक विश्लेषण ध्वनि और अर्थ पर विशेष ध्यान दिया जाता है। इससे शब्द की ऐतिहासिक विकास परम्परा को दर्शाने से यह बताया जाता है कि शब्द विशेष मूल कहाँ और किस भाषा से उद्भूत हुआ तथा देश-काल के प्रभाववश उसके स्वरूप और अर्थ में किस प्रकार क्रमागत परिवर्तन और विकास का समावेश हुआ। निरूक्ति शब्द संस्कृत में यास्क कृत 'निरूक्त' ग्रंथ की ओर संकेतित है, जिसमें सभी शब्दों को धातुओं से ही व्युत्पन्न घोषित किया गया-सार्वधातुजमाह निरूक्ते। रामचन्द्र वर्मा ने अपने 'प्रामणिक कोश' में व्युत्पत्ति के लिए अंग्रेजी 'डिरिनवेशन और निरूक्ति के लिए 'एटिमाॅलाॅजी' प्रतिशब्द दिए हैं। परन्तु वर्तमान में इन दोनों के लिए 'एटिमाॅलाॅजी' ही अधिक प्रचलित है। हिन्दी के विशालतम और प्रौढ़ कोशों में डाॅ0 श्यामसुन्दर दास के प्रधान सम्पादकत्व में निर्मित हिन्दी शब्द सागर में प्रथम बार प्रत्येक व्युत्पत्ति देने का पूर्ण ईमानदारी व गम्भीरता से प्रयत्न किया गया। विशेषता यह है कि जिस शब्द की व्यत्तपत्ति नितान्त अनिश्चित समझी गई उसके आगे कोश में प्रश्न चिन्ह लगाकर छोड़ दिया गया है। ऐसा मान होता है कि हिन्दी शब्द सागर का सम्पादक मंडल आचार्य यास्क की तरह किसी भी शब्द की व्युत्पत्ति ढंूढने में अपनी असमर्थता व्यक्त करने के लिए तैयार नहीं था। इसमें शब्दों का विकास भी निर्दिष्ट है। तत्पश्चात सन् 1962 में पांच खण्डों वाला रामचन्द्र वर्मा का 'मानक कोश' प्रकाश में आया, जिसका मुख्य उद्देश्य हिन्दी शब्द-सागर की न्यूनताओं और त्रुटियों को दूर करना था जिनमें व्युत्पत्ति सम्बन्धी कई अशुद्धियाँ भी थी। इन दोनों स्तरीय कोशों से अतिरिक्त कुछ अन्य विद्वानों ने भी स्वतंत्र व्युत्पत्ति कोश निर्मित किए जिनमें डाॅ0 हेमचन्द्र जोशी द्वारा सम्पादित 'हिन्दी व्युत्पत्ति कोश' ने इस दिशा में प्रशंसनीय अभिवृद्धि की है। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय नई दिल्ली की वित्तीय सहायता और सागर विश्वविद्यालय के तत्वाधान में इस क्षेत्र में सराहनीय कार्य हुआ है। शब्दों का मूल स्रोत खोजना और उसका क्रमागत ध्वनि,रूप और अर्थ परिवर्तन का निर्धारण निश्चित करना एक कठिन जटिल गम्भीर और श्रमसाध्य तथा समय साध्य प्रक्रिया है। परन्तु इसके साथ-साथ यह विषय सर्वथा नीरस और शुष्क भी नहीं कहा जा सकता। यदि इनमंे एक बार रूचि जाग्रत हो जाय तो इसका रंजक और संतोषदायी होना भी सम्भव है। शब्दों के जन्म से लेकर विलुप्त होने तक का इतिहास अतीव आनन्द प्रदायक और रूचिकर हो सकता है। शब्द कैसे उत्पन्न व्युत्पन्न और सम्पन्न होते हैं, वे कितने अशक्त और सशक्त हो सकते हैं। उनका बनना, बढ़ना घटना बिगड़ना विलुप्त होना, अपने मूल रूप से हटकर अन्य वेष धारण करना आदि का विवरण एकत्र करना अत्यन्त दिलचस्प और मनभावन विषय है। व्युत्पत्ति अर्थ-द्योतन की सर्वाधिक अधिकृत सशक्त व सुस्पष्ट प्रक्रिया है जिसके माध्यम से शब्द में निहित भाव व विचारों की परतंे स्वयमेव एक के बाद दूसरी खुलती जाती हैं एवं शब्द की तह तक जाने में सहायता मिलती है। परन्तु शब्दों की स्तरीय व्युत्पत्ति निश्चित करने के लिए विस्तार से अन्वेषण की वृत्ति, प्रगाढ़ ज्ञान विद्वता, विभिन्न भाषाओं में दक्षता, भाषा विज्ञान के पक्षों में अभिरूचि तथा दृष्टि समग्रतः अत्यन्त प्रामाणिक गंभीर सूक्ष्म गहन मौलिक और तर्कसंगत होनी अपेक्षित है। इसमें भाषाओं का इतिहास ध्वनि (फोनोलाॅजी) रूप (माॅर्फाेलाॅजी) अर्थ (सिमेटिक्स) तथा तत्सम्बन्धी परिवर्तन के अतिरिक्त व्याकरण पर पूर्ण अधिकार भी होना चाहिये। व्याकरण के विषय-समास या सन्धि विग्रह, उपसर्ग, पूर्वसर्ग, विभक्ति, प्रत्यय आदि की सहायता से व्युत्पत्ति देना सामान्य प्रक्रिया है। सामान्यतः उत्तम और स्तरीय कोश के निर्माणकर्ता केा केवल संपादक या संकलन कर्ता ही नहीं, व्याकरणविद् और व्युत्पत्तिकार अर्थात् 'थ्री इन वन' होना अनिवार्य है। संस्कृत में अमर सिंह अंग्रेजी में डाॅ0 सेमुअल जाॅनसन फारसी में मिर्जा खाँ (हिन्दी फारसी का प्रथम परिपूर्ण कोश 'लुगत-ए-हिन्दी' के रचयिता-निर्माण काल सन् 1675) उक्त तीनों विद्याओं में निष्णात थे।
रूप और ध्वनि की समता व्युत्पत्ति का एक प्रमुख आधार रहा है। एक मत के अनुसार उत्तरापथ कभी द्रविड़ों का भी आवास रहा। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि गढ़वाली के कई शब्द द्रविड़़ भाषाओं के उसी अर्थ वाले शब्दों की ध्वनियों से साम्य रखते हैं। व्युत्पत्ति के निर्धारण के लिए केवल रूप और ध्वनि साम्य को ही आधार बनाना और उनमें निहित भिन्न अर्थ की अवहेलना से भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। सुथरा (स्वच्छ, निर्मल) को इसी आधार पर संस्कृत सुस्थिर अपभ्रंश सुत्थिर से जोड़ना उपयुक्त नहीं लगता। इसी प्रकार अंग्रेजी भाषा में कोशों के पथ पदर्शक और प्रबुद्ध साहित्यकार सेमुअल जाॅनसन ने अंग्रेजी के सीधे-सादे शब्द गर्ल (हपतस) की व्युत्पत्ति समान ध्वनि देखते हुए 'गेरूलस' (हंततनसवनेद्ध- 'बक-झक करने से वाली' से बता दी। इसी क्रम में प्रतिष्ठित भाषाविदों द्वारा 'मूंछ' के लिए जो मुंह पर छाई रहें' तथा 'ऊटपटाॅग' के लिए ऊँट की टाँग' जैसी व्युत्पत्ति देना कल्पनाजन्य, असंगत और हास्यास्पद लगती है। व्युत्पत्ति शास्त्र पूर्णतः वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित नहीं है। उसमें व्युत्पत्ति की अपनी विद्वता विश्लेषाणात्मक बुद्धि अन्य भाषीय ज्ञान आदि का बहुत बड़ा योगदान रहता है। किसी भी व्युत्पत्तिकार का सौ में से सौ अंक नहीं मिल सकते हैं। इस क्षेत्र में मतमतान्तर खंडन-मंडन तथा पूववर्ती या अन्य व्युत्पत्तिकारों द्वारा दी गई मान्यताओं पर असहमति व्यक्त करना असामान्य नहीं होता। गढ़वाली भाषा की प्रमुख सह और सहायक क्रिया 'छ' की व्युत्पत्ति आर0 आर0 टर्नर संस्कृत 'आ-क्षे' से मानते हैं। जब कि टेसिटोरी के अनुसार यह ऋच्छति- अच्छह- छ से निष्पन्न है। कई व्युत्पत्तिकार 'छ' को संस्कृत अस्ति से जोड़ते हैं, क्योंकि गढ़वाली में स्त का छ में परिवर्तन सम्भव है। सुनीति कुमार चटर्जी इसकी व्युत्पत्ति 'अच्छ' से मानते हैं। यह क्रिया राजस्थानी के अतिरिक्त भोजपुरी, बंगला, उड़िया मैथली गुजराती में भी प्रयुक्त होती है। इसी प्रकार 'छ' के भूतकालिक रूप 'थौ' का सम्बन्ध कही 'भू' और स्थ से बताया जाता है तो अन्यत्र अस धातु से। थौ रूप-साम्य तथा अर्थ-साम्य के अन्य उदाहरण है- अर्द्धमागधी-इथा इत्थः नेपाली-थियोः, उड़िया-थिली ,लहन्दा-थिउसे मालवी था ब्रज हुतो। डा0 टेसिटोरी इन रूपों की व्युत्पत्ति स्थितक से मानते हैं। पूर्ववर्ती कोश में दी गई व्युत्पत्तियों में कमी या दोष निकालना भी कहीं-कहीं दिखता है। हिन्दी महासागर में जुकाम की व्युत्पत्ति जूड़ी घाम दी गई है परन्तु रामचन्द्र वर्मा इसे सीधा-सादा अरबी शब्द बताकर श्यामसुन्दर दास द्वारा दी गई व्युत्पत्ति को हास्यास्पद बताते हैं। इसी क्रम से कुछ कोशकार अपनी अक्षमता तथा अपूर्ण ज्ञान को छुपाने के लिए पूर्ववर्ती कोशों में दी गई व्युत्पत्तियों में अशुद्धियों तथा न्यूनताएं इंगित कर इस आवश्यक दायित्व से बचने का बहाना खोज लेते हैं। कालिका प्रसाद आदि के बृहत हिन्दी कोश में सम्पादकों ने हिन्दी शब्दसागर में दी गई कई व्युत्पत्तियों को ऊटपटाँग और गुमराह करने वाला बताते हुए कोश के इस महत्वपूर्ण अंग से अपने कोश को वंचित रख कर श्रम और कठिन कार्य से बचने क सुगम मार्ग अपना लिया। केवल संभावनाओं अनुमान कल्पना अथवा रूपसाम्य या ध्वनिसाम्य पर आधारित व्युत्पत्तियाँ सदैव प्रामाणिक नहीं हो सकती। एक ही रूप वाले उसी शब्द के अनेक अर्थ सम्भव है परन्तु ऐसी स्थिति से उनकी व्युत्पत्ति भिन्न होगी। आम(एक फल) संस्कृत आम्र से और आम (जन साधारण) संस्कृत 'साधारण' अरबी 'आम' (सर्व व्यापक हम गीर सर्व साधारण जो मुख्य न हो, गौण) से निस्तृत है। यह भी सम्भव है कि वही शब्द कोश ध्वनि और अर्थ की दृष्टि से समान हो परन्तु उसके स्रोत अगल अलग हों। इसका उदाहरण अवधी का नियर और अंग्रेजी का नियर है। उसी शब्द की वर्तनी तथा अर्थ नजदीक, पास, करीब समान है परन्तु स्रोत भिन्न भिन्न है। कई बार एक से अधिक कोशों से सम्बद्ध कोशकार कभी कभी भूल जाते हैं कि उन्होंने अमुक शब्द की व्युत्पत्ति अपने ही दूसरे कोश में क्यों दी है। रामचन्द्र वर्मा ने अपने प्रामाणिक हिन्दी केाश में आगे शब्द को संस्कृत अग्रे से व्युत्पन्न बताया परन्तु अपनी आय कृति मानक कोश में इस सं0 अग्रे प्रसूत माना है। वैसे इस शब्द का विकास संस्कृत अग्रे, प्राकृत अग्ग, हिन्दी आगे अधिक समीचीन लगता है। 
वर्णविपर्यय तो भाषा विज्ञानप का सामान्य नियम है। किशोरीदास बाजपेयी ने अपनी पुस्तक भारतीय भाषा विज्ञान में सिंह शब्द को संस्कृत हिंस से कैसे व्युत्पन्न मान लिया इसका डाॅ0 रमेशचन्द्र महरोत्रा को कोई नियम या औचित्य नहीं दिखा। इस प्रकार के मत वैमिन्य सामान्य है। ध्यान रहे कि किसी भी कोश का पूर्णतः दोष रहित होना सम्भव नहीं होता। हिन्दी शब्दसागर में सर्वप्रथम व्युत्पत्ति पर ध्यान दिया गया परन्तु यह कोश व्युत्पत्ति की दृष्टि से सर्वथा त्रुटिहीन नहीं कहा जा सकता। इसके उपरान्त नालन्दा प्रामाणिक कोश मानक कोश, हिन्दी शब्द संग्रह, भाषा शब्द कोश आदि अनेक चर्चित कोश प्रकाश में आए। परन्तु इनमें व्युत्पत्ति का पक्ष दुर्बल सा ही रहा। सामान्यतया व्यावसायिक दृष्टि से निर्मित लगभग सभी कोशों में व्युत्पत्ति के नाम पर शब्द के आगे इतना ही निर्दिष्ट रहता है कि यह शब्द अमुक भाषा का है।
वस्तुतः एक मानक आदर्श और स्तरीय कोश में व्युत्पत्ति देना आवश्यक है। यदि कोश में व्याकरण व्युत्पत्ति शब्दार्थ जैसे मूल अवयव नही हैं तो उसे उच्च कोश की श्रेणी में रखना उचित नहीं होगा। गढ़वाली शब्दाबली के मुख्य स्रोत वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत,पालि,प्राकृत, अपभ्रंश, अवहठ्ट और हिन्दी है। इनके अतिरिक्त राजस्थानी, गुजराती, मराठी, बंगाली, नेपाली आदि का भी गढ़वाली पर प्रभाव पड़ा। चारों द्रविड़ तथा विदेशी भाषाओं यथा-अरबी पश्तों, पहलवी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली, अंग्रेजी आदि के कुछ शब्द भी इसमें समाविष्ट हैं। उल्लेखनीय है कि उक्त सभी के अतिरिक्त यहां लगभग एक चैथाई शब्दाबली स्थानीय या देशज है जिसका मूल ढूँढना दुष्कर कार्य है। यही स्थिति कुछ धातुओं की भी है। हम वास्तविकता और यथार्थ से विमुख नहीं हो सकते। गढ़वाली जैसी क्षेत्रीय या आंचलिक भाषाओं के सभी शब्दों की व्युत्पत्ति देना कठिन ही नहीं, जोखिम भरा कार्य है। अधिकृत और विश्वसनीय व्युत्पत्ति के लिए सभी स्रोत भाषाओं के साथ हिन्दी की सभी बोलियों का ज्ञान, असाधारण पांडित्य कई अन्य भारतीय एवं विदशी भाषाओं में गहरी पैठ भाषा-वैज्ञानिक दृष्टि बहुज्ञता एवं बहुमुखी प्रतिभा तथा विलक्षण-विचक्षण मेघा विद्यमान होने चाहिए। इस महत कार्य के लिए विशेषतः इस क्षेत्र में अनुराग, रूचि और लगन वाले बहुत विद्वज्जनों का सक्रिय सहयोग भी वरेण्य रहता है।
प्रस्तावित गढ़वाली-हिन्दी-अंग्रेजी कोश में व्युत्पत्ति विषयक ऊहापोह प्रतिपल बना रहता है। मैं समझता हूं कि केवल कल्पना तथा अनुमान पर आधारित व्युत्पत्तियों को देने का कोई औचित्य नहीं होगा। अतः अति महत्वपूर्ण और आवश्यक होते हुए भी इस कोश में वांछित संसाधनों और विशेषज्ञों के सक्रिय सहयोग के पूर्ण आश्वासन और उपलब्धता के उपरान्त ही हम व्युत्पत्ति देने में सक्षम हो सकेंगे