स्वतन्त्रता, सभ्यता और मर्यादा


विगत 24 जनवरी और 14 पफरवरी के मध्य बसन्तोत्सव और वैलेन्टाइन डे के बहाने जिस प्रकार मंगलुरु और उज्जैन आदि शहरों में आधुनिक महिलाओं के द्वारा नारी स्वतन्त्राता और प्रगतिवादी सभ्यता के नाम पर जिद पूर्वक सुरा पान और अमर्यादित प्रेम-प्रदर्शन का प्रयास करके फूहड़ता का परिचय दिया गया उससे अपनी संस्कृति के समर्थक विवेकशील लोगों के मन में संस्कृति, सभ्यता और धर्म जैसे मर्यादापूर्ण शब्दों के महत्व पर प्रश्न-चिर् िंलग गया है। भारतीय और आधुनिक सभ्यता के पैरोकारों के बीच उत्पन्न विवाद इस सीमा तक बढ़ गया कि दोनों पक्ष एक दूसरे के विरु( अदालतों तक पहुंच गये। देश के सामान्य जन सहित राजनेता और बु(िजीवी लोग भी इस या उस पक्ष में बंट गये हैं।
सामान्यतः 'सभ्यता' और 'संस्कृति' को समानार्थक समझ लिया जाता है लेकिन गम्भीरता से विचार करने पर दोनों में स्पष्ट अन्तर है। 'सभ्यता' शब्द सभ्य शब्द से उद्भूत है। मनुष्यों के बीच 'सभा' में बैठने की योग्यता 'सभ्य' होने की निशानी मानी गई है। संस्कृति शब्द का लक्ष्यार्थ धर्म, विद्या आदि की उन्नति से है लेकिन वाच्यार्थ संस्कार, परिष्करण अथवा निर्मल करने की प्रक्रिया है। समाज में श्रेष्ठ समझे जाने का भाव सभ्यता और संस्कृति दोनों शब्दों में है, इसी कारण दोनों शब्दों को एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग कर लिया जाता है। लेकिन संस्कृति शब्द में समाज के लम्बे अनुभवों के आधार पर अनवरत किये गये संस्कारित आचरण और मान्यताओं का भाव अधिक महत्वपूर्ण होता है। दूसरी ओर सभ्यता शब्द में विशेष रूप से आधुनिक और प्रगतिशीलता का भाव निहित होता है और वह संस्कृति की तुलना में वर्तमान समय के अधिक अनुकूल होने के कारण अधिक स्वाभाविक और ग्राह्य होती है। भारतीय दर्शन के अनुसार संस्कृति के धर्म, दर्शन, इतिहास, वर्ण तथा रीतिरिवाज पांच भाग माने गये हैं। धर्म में संस्कृति के सुविचारित श्रेष्ठ तत्व ही ब(मूल होते हैं। पिफर भी वह संस्कृति से अधिक अपरिवर्तनशील रूढ़ और मर्यादापूर्ण होते हैं। धर्म को आस्था शब्द से, संस्कृति को मर्यादा शब्द से और सभ्यता को प्रगतिशीलता से विशेष बल मिलता है। वर्तमान में सभ्यता का मानदण्ड भौतिक समृ(ि माने जानी लगी है। अतः भौतिक रूप से समृ( लोग धर्म और संस्कृति की मर्यादाओं को महत्व नहीं देते। इसी का परिणाम है कि धनबल युक्त समाज की 'नारी-स्वतन्त्रातावादी' महिलाओं ने मंगलुरु में समाज में स्थापित मान्यताओं को ठेंगा दिखाते हुए सुरा केन्द्रों में जिदपूर्वक जाने का दुस्साहस किया और प्रतिक्रिया स्वरूप प्रमोद मुदालिक के समर्थक श्रीराम सेना के सैनिकों द्वारा उन्हें रोकने का प्रयास किया गया। इस क्रम में महिलाओं के साथ अभद्रता करने का आरोप लगाया जा रहा है। अभद्रता का विरोध करने के सिलसिले में प्रगतिवादी महिला संगठनों के द्वारा प्रमोद मुदालिक का उपहास करने के उद्देश्य से उन्हें पिंक चड्डी भेंट करने का तमाशा भी किया गया जिसके प्रत्युत्तर में मुदालिक द्वारा इन महिलाओं को 'भटकी हुई' बहनें कहकर उन्हें भारतीय मर्यादा का प्रतीक वस्त्रा 'साड़ी' भेंट की गयी। ऐसा करके उन्होंने भारतीय संस्कृति में मर्यादा के महत्व को शालीनतापूर्वक उजागर किया जबकि आधुनिक सभ्यता के नाम पर प्रगतिशील महिलाओं द्वारा एक के पश्चात् एक मर्यादाच्युत आचरण करके आधुनिक या पाश्चात्य सभ्यता की पोल स्वयं ही खोल दी गई।
पिफर भी इस सम्पूर्ण प्रकरण में जहां पहले सार्वजनिक स्थान 'पब' में सुरापान और अमोद-प्रमोद के लिये जाने की हठधर्मिता की गयी और पिफर उनका विरोध करने वालों को पिंक चड्डी के अधोवस्त्रा भेजकर व  मर्यादाहीन आचरण किया गया, वहीं दूसरी ओर श्री रामसेना के समर्थकों के द्वारा उन्हें रोकने के क्रम में उनके साथ अभद्रता का व्यवहार किया गया। इस प्रकार दोनों पक्षों का आचरण भत्र्सना के योग्य है। दोनों में अन्तर यह है कि पहले पक्ष ने अपनी वासनाओं की पूर्ति के निमित्त सामाजिक मर्यादा का अतिक्रमण किया, वहीं दूसरी ओर दूसरे पक्ष द्वारा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं बल्कि स्थापित मर्यादा के पालन के निमित्त कानून अपने हाथ में लेने की चेष्ठा की गयी क्योंकि सार्वजनिक स्थान में अश्लीलता का प्रदर्शन करना कानूनन अपराध है। जिसे रोकने का काम पुलिस का होता है।
आधुनिक सभ्यता के अन्ध समर्थकों को पिछली शताब्दी में क्रान्तिकारी माने जाने वाले वैज्ञानिकों यथा डार्बिन और Úायड के विचारों से प्रेरणा मिली है। डार्बिन के अनुसार जीवन एक संघर्ष है, जिसमें बलशाली ही विजयी होता है और Úायड के अनुसार जीवों में उनके समस्त आचरण काम-भावना से संचालित होते हैं। अतः इन सि(ान्तों के अनुकरण में समाज में धनबल व बाहुबल की तुलना में नैतिक बल दुर्बल हो गया और पशुवत यौनिक आचरण ने वुफछ सीमा तक सामाजिक ग्राह्यता प्राप्त कर ली। उसी का अन्धानुकरण पाश्चात्य सभ्यता के अनुयायी कर रहे हैं।
उपरोक्त प्रकरण इतना महत्वपूर्ण नहीं था जितना कि उसे मीडिया द्वारा प्रचारित किया गया। समाज में मनोरोग ग्रसित और अपराधी प्रकृति के लोगों की उपस्थिति अनादि काल से रही है। उनके समाज विरोधी आचरण से संस्कृति और सभ्यता की सर्वजनीत धारणाओं और मान्यताओं पर कोई अन्तर नहीं पड़ता। चन्द लोगों द्वारा चोरी, डकैती के पापकर्म करने से सारा समाज वैसा नहीं हो जाता । पिफर भी ऐसे प्रकरणों में कतिपय बु(िजीवी व्यक्तियों और समाज में आदर प्राप्त लोगांे द्वारा जिस प्रकार ऐसी मर्यादाहीन आचरण को उचित ठहराने का प्रयास किया जाता है, वह अवश्य चिन्ता का विषय है। उदाहरण के लिए दैनिक हिन्दुस्तान में 'बोल कि लब आजाद हैं तेरे' शीर्षक से एक पत्राकार कल्पना शर्मा का लेख प्रकाशित हुआ है जिसमें वे आधुनिक युवाओं के मर्यादाहीन आचरण का समर्थन करते हुए कहती हैं- 'यह पीढ़ीगत परिवर्तन है, जिससे चन्द गुन्डे नहीं समझ पा रहे हैं या सोचना भी नहीं चाह रहे, जो वैलेन्टाइन डे पर उन अभागे जोड़ांे पर हमला करते हैं। इसका परायी संस्कृति थोपे जाने से लेना-देना नहीं है, इसका रिश्ता शिक्षा, अवसर और शहरीकरण से है।' वे आगे एक टेलीविजन चैनल द्वारा श्रीराम सेना के प्रतिरोध में खड़े लोगों को 'लव सेना' कहकर पुकारने पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए लिखती हैं कि 'उन लोगों ने अपनी बात रखते हुए यह स्पष्ट किया कि किस तरह से एक आजाद देश में उन्हें अपनी तरह जीने का हक है'
यहां प्रश्न यह हुआ है कि क्या 'आजाद देश में अपनी तरह जीने का हक' का मतलब केवल स्वछन्द प्रेमानुहार करनाऋ बिन पेफरे हम तेरे की तर्ज पर सम्बन्ध बनाना, सामाजिक मर्यादाओं के विरु( खड़े होकर 'लिव इन' रिलेशन में रहना, जब चाहे जिससे शादी कर लेना और जब चाहे अलग हो जाना, युवाओं का बिन ब्याहे माँ-बाप बनाना और इस प्रकार के रिश्तों से उत्पन्न अवैध सन्तान को माता-पिता का प्यार-दुलार देने के स्थान पर त्याग देना, मार देना या झाड़ियों में पेफंक देना है। वर्तमान युवा पीढ़ी 'अपनी तरह जीने का हक' का अर्थ केवल  यौन स्वच्छंदता को और खाओ, पिओ, मौज करो की चारवाकी विचारों से लगाता है जैसे इनसे आगे कोई दुनिया ही नहीं है। महात्मा गांधी जो अंग्रेजी शिक्षा और सभ्यता में पले, बढ़े थे। पाश्चात्य सभ्यता के श्रेष्ठ तत्वों को अपनाते हुए भी आदर्श भारतीय संस्कृति को अपने जीवन का ध्येय बनाया, वे तो विवाहित महिला-पुरुषों में भी यौन संयम के पक्षपाती थे। उनके अनुसार 'विवाह करने का वास्तविक उद्देश्य पुरुष और महिला के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध और मैत्राीभाव बनाना है। उसमें यौनिक-तृप्ति के लिए कोई स्थान नहीं है'। तो क्या वे आजाद देश में अपनी तरह नहीं जी रहे थे या क्या वे प्रगतिशील और कम सभ्य थे। प्रगतिवादी महिला संगठनों द्वारा स्वतन्त्राता का अर्थ मात्रा भौतिक सुख और आचरण की स्वच्छन्दता लगाया जाता है जो कि नितान्त गलत है। मर्यादा-विहीन समाज पशु-लोक की कल्पना है और मनुष्य हजारों लाखों वर्षों से प्रगति करता हुआ सभ्यता के जिस सोपान पर पहुंचा है, वहां से उल्टा लौटकर कभी भी पशुयोनि में नहीं जाना चाहेगा। मर्यादा अथवा धर्म ही मनुष्यों को पशुओं से श्रेष्ठ बनाता है।
शिक्षा अभियानों में अभिमान भी हो
यदि कोई राष्ट्र अपने मानव संसाधनों का येन-केन प्रकारेण सम्पूर्ण नाश करने पर उतारु हो जाए तो क्या होता है, पाकिस्तान के रूप में उत्तर हमारे सामने है। एक समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किसी को उद्धृत करते हुए लिखा था 'आखिर यही तो हुआ इस्लाम के भारत में आने से कि पाणिनि और यास्क मुनियों की सन्तानें आज भारत में हींग बेचने आती हैं।' पाणिनि और यास्क मुनियों के वंशज जो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के समय में हींग बेचने भारत आते थे उन्हीं के वंशज आज आंतकवाद के रूप में समस्त विश्व में मौत का सौदा कर रहे हैं। गुरुदेव टैगोर की मिनी, जिस काबुलीवाले से मेवे लिया करती थी, उसके वंशज आज एके-47 से मिनी जैसे छोटे-छोटे बच्चों को बेहिचक मौत की नींद देते पिफर रहे हैं। पाकिस्तान और अपफगानिस्तान ने अपने मानव संसाधनों का जो विनाश किया है यह उसी का परिणाम है। किन्तु दूसरी ओर यदि कोई देश अपने मानव संसाधनों का विकास तो करे किन्तु उस विकास की दिशा को समुचित वरीयता न देता हो तो भी स्थितियां बहुत अच्छी नहीं बनतीं। भारत ने उदारवाद की दिशा तो पकड़ी किन्तु अपने मानव संसाधनों के विकास में भारतीयता पर समुचित ध्यान नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि 20वीं शताब्दी के पूर्वा( में जहां आचार्य जगदीश चन्द्र बसु, नोबेल पुरस्कार विजेता सर सीúवीú रमन, भारतीय परमाणु कार्यक्रम के जनक डाॅú होमी जहांगीर भाभा, डाॅú मेघनाथ साहा और मूलभूत भौतिकी में विश्वस्तरीय योगदान करने वाले अन्यान्य वैज्ञानिकों की पीढ़ी ने भारत में जन्म लिया, वहीं स्वतन्त्राता प्राप्ति के बाद भारत में अत्यल्प मौलिक शोध हुआ।
स्वतन्त्राता प्राप्ति के बाद विदेशस्थ भारतीयों ने तो विश्व ज्ञान की धरोहर को बढ़ाने में अपना योगदान किया है, किन्तु वैसा योगदान भारत में होता हुआ नहीं दिखाई पड़ता। एक स्वतन्त्रा टिप्पणीकार गगन प्रताप ने इस ओर इंगित करते हुए लिखा है कि देश के सबसे होनहार युवा धीरे-धीरे शेष विश्व के लिए टैक्नो-कुली बनते जा रहे हैं। वे आगे लिखते हैं कि इनपफोसिस और विप्रो का चमत्कार यही है कि 'पश्चिमी कम्पनियों के साथ सहयोग करते समय क्या भारत के शोध संस्थान अपनी स्थिति सुदृढ़ कर रहे हैं, या अपने युवा वैज्ञानिकों का शोषण सस्ते वैज्ञानिक मजदूरों के रूप में करने की छूट दे रहे हैं? पूर्ववर्ती मानव संसाधन विकास मंत्राी डाॅú मुरली मनोहर जोशी भी अपने देश में शोध के गिरते हुए स्तर पर चिन्ता प्रकट करते रहे हैं। उनकी एक प्रमुख चिन्ता यह रही है कि कैसे विश्वस्तरीय वैज्ञानिक प्रकाशनों में भारतीय वैज्ञानिकों की भागीदारी कम होती जा रही है? वे आंकड़े देकर इस बात को स्पष्ट करते है कि जिस देश से जितने कम मौलिक वैज्ञानिक शोधपत्रा इन विश्वस्तरीय प्रकाशनों में प्रकाशित होते हैं, उस देश में शोध की स्थिति उतनी ही खराब गिनी जाती है। चिन्ता का विषय यह है कि इन प्रकाशनों में भारतीय वैज्ञानिकों की भागीदारी निरन्तर घट रही है।
भारतीयता के पुनर्जागरण के जिस ज्वार ने भारत को महान वैज्ञानिक, कवि और राजनेता दिए उसे आज सांप्रदायिकता बताया जाता है। आज के सरकारी विद्वान राष्ट्रीयता पढ़ाने में संकीर्णताओं के जन्म का भय देखते हैं। देशभक्ति उन्हें संकुचित भाव दिखाई देती है। उन्होंने अंग्रेजों के समय की शिक्षा प्रणाली को बिल्वुफल भी नहीं बदला है, मात्रा विस्तार दिया है अगर अंग्रेज भारत में क्लर्क पैदा करने के लिए एक निश्चित संख्या मंे स्कूल और काॅलेज आदि चला रहे थे, तो स्वतन्त्रा भारत में इन संस्थाओं को संख्यात्मक विस्तार तो दे दिया गया किन्तु वहां पढ़ाई जाने वाली शिक्षा को भारतीय आवश्यकताओं के अनुसार बदला नहीं गया। समय के साथ जहां अंग्रेज अपने लिए क्र्लकों के रूप में अंग्रेजी पढ़े-लिखे 'प्रशासनिक' कुली और बौ(िक मजदूर पैदा कर रहे थे, तो उन्हीं संस्थाओं से हमने आज बढ़ी संख्या में टैक्नो-कुली और सस्ते वैज्ञानिक मजदूर पैदा करने शुरू कर दिए हैं। मनुष्य की गुणवत्ता में अन्तर कहां आ पाया है? और आए भी तो कैसे? आत्मतत्व की शिक्षा, नैतिक शिक्षा और धर्मों की शिक्षा ;इसे धार्मिक शिक्षा से स्पष्टतः अलग किया गया हैद्ध आदि के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय तक के निर्णय भी हों तो उनकी भी यदि अवज्ञा न की जा सकती हो तो भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बारे में योजना बनाने से विश्व नेतृत्व के योग्य कभी नहीं बन सकता। भारत की यह नियति नहीं है, क्योंकि भारत समस्त मानवता का सातवां हिस्सा है। यदि मनुष्यों का इतना बड़ा समुच्चय एक होकर किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कटिब( हो जाए तो उसके लिए कोई लक्ष्य बड़ा नहीं हो सकता। हमारे पूर्वज यदि विश्वगुरु कहलाए तो इसका कारण यही था कि उन्होंने श्रेष्ठ सोचा और उसका अनुकरण किया। यदि आज हमारा पड़ोसी पाकिस्तान, पाणिनि और यास्क मुनियों की अपनी धरोहर को भूलकर, विश्व का सबसे बड़ा आतंकवाद प्रायोजक देश बन जाए तो इसका कारण आत्मबोध की कमी है। दुर्भाग्य से स्वतन्त्राता प्राप्ति के बाद के वर्षों में आत्मबोध की इसी कमी को भारत में भी पैदा किया जाता रहा है। उससे जो आत्महीनता पैदा हुई है उसी का परिणाम है कि वशिष्ठ और विश्वमित्रा जैसे ब्रह्म)षियों, जिन्होंने स्वयं ब्रह्म को भी जान लिया, उन्हीं की संतति आज पश्चिम के लिए टैक्नो-कुली और सस्ते वैज्ञानिक मजदूरों के रूप में काम कर रही है। भारत की नियति के विपरीत इस स्थिति के निर्माण के लिए पिछले आठ सौ वर्षों की दासत्व की स्थिति को जिम्मेदार बताकर या अंग्रेजों के काल पर इसका ठीकरा पफोड़कर हम वस्तुस्थिति से न्याय नहीं कर सकते। स्वतन्त्राता प्राप्ति से ठीक पूर्व पंú नेहरु और गांधी जी के मध्य एक लम्बा पत्राचार हुआ जिसे अंत में नेहरु जी ने खीज कर बन्द कर दिया। इस पत्राचार पर यदि सरसरी दृष्टि डाली जाए तो नेहरु के सपनों के भारत और गांधी के सपनों के भारत में अन्तर स्पष्ट होता है। गांधी मानव संसाधनों का विकास शु( स्वदेशी तरीके से करना चाहते थे वहीं नेहरु तत्कालीन सोवियत संघ के कम्युनिस्ट प्रतिरूप से अत्यधिक प्रभावित थे। पंचवर्षीय योजनाएं बनती रहीं। सम्पूर्ण रोजगार का लक्ष्य टलता रहा। पश्चिम से आयातित संस्कृति इसके साथ जुड़कर भारत को किसी और ही दिशा में ले जाने लगी। गांधी के सपनों का भारत उनकी मृत्यु के बाद ही न जाने कहां छूट गया। पिछले कई दशकों में भारतीय जनमानस में जिस सेकुलरी नेतृत्व ने पश्चिम के अन्धानुकरण का भाव भरा है, उनकी भी इसमें जिम्मेदारी कम नहीं है। किन्तु उससे भी बुरी स्थिति तो तब पैदा होती है जब उस टैक्नो-कुली संस्कृति को रोजगार के नाम पर उचित ठहराया जाता है विश्वभर में भारतीय कम्प्यूटर इंजीनियरों की धूम मची है। डालरों में मिलने वाली पगार को भारतीय रुपयों में बदल लेने से अपनी अमीरी का जो नशा चढ़ता है, उसमें यह वास्तविकता भुला दी जाती है कि विश्व स्तर पर आज भी भारतीय श्रम कौड़ियों के भाव खरीदा जा रहा है।
गगन प्रताप ने एक अत्यन्त सटीक उदाहरण से यह समझाया है कि जितने धन में एक अमरीकी वैज्ञानिक का एक वर्ष का व्यय न निकलता हो उतने में दर्जन भर भारतीय टैक्नो-कुली दिन रात एक किए रहते हैं। भारतीय मेधा और श्रम का इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता है? यहां बात मात्रा धन की नहीं है। इन भारतीय टैैक्लो-कुलियों और वैज्ञानिक मजदूरों को जिस दृष्टि से विश्वभर में देखा जाएगा, वैसा ही दृष्टिकोण भारत के प्रति भी उत्पन्न होगा। पिछली शताब्दी में भारत में गिरमिटिया श्रमिकों को आत्मसम्मान और राष्ट्र सम्मान प्राप्त करने में छह-छह पीढ़ियां लग चुकी हैं। भारतीय शिक्षा प्रणाली में जब तक आमूल चूल परिवर्तन नहीं किया जाएगा, आत्मबोध, अस्तित्वबोध, स्तत्वबोध और राष्ट्रबोध शिक्षा में नहीं आएंगे। ऐसे में मानसिकता में परिवर्तन असम्भव है।
;नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्तान समाचारद्ध
तीलै धारु बोला
स चिन्मय सायर
भाषा वैज्ञानिकों ने आर्य-भाषाओं की जिस शाखा को 'मध्य पहाड़ी' के नाम से अभिहित किया है, उनमें 'गढ़वाली-कुमाऊंनी' भाषाएं आती हैं। इनका उद्गम वैदिक संस्कृत से माना जाता है और है। यही कारण है कि  उत्तराखण्डी भाषाओं के विद्वान इन्हें बोलियों के बजाय भाषा कहना अधिक उपयुक्त व सम्मानित समझने लगे हैं। वास्तव में ये दोनों भाषाएं बहुत ही विलक्षण, अर्थवान व शब्द सम्पदा से ओतप्रोत हैं। अब तो इनमें भारत की अनेकों बोली-भाषाओं के शब्द भी घुल-मिल गये हैं।
अपने उद्भासित युग में ये दोनों भाषाएं अपने-अपने राजशासित राज्यों की राजभाषाओं के सम्मानित पदों पर भी राजित रही हैं। अब तक इस सन्दर्भ में कई विद्वानों के यथातथ्य शोध पठनीय हैं।
ऐसी लोक-संबंल मान्यता प्राप्त भाषाओं में कई एक शब्द व वाक्यांश निर्मित हैं जिनकी भाषा में अपनी अलग ही पहचान व छटा है। जो आज भी उतने ही मुखर व विलक्षण हैं जितने तब थे। यथा- 'तीले धारु बोला....', 'बल','क्याप', 'कनपफणी-सि', 'ल्हस्स{{', 'ब्वा{{' या 'त्व{{' आदि।
इस आलेख में, 'तीले धारु बोला....' को ही ले रहा हूं। सो ठीक-ठीक अध्ययन-मनन करने से पता चलता है कि इस वाक्यांश का प्रयोग नहीं बल्कि वार्ताकारों ने भी अपनी बात को पुष्ट व प्रामाणिक करने हेतु अपनी-अपनी वार्ताओं में भी पिरोया है।
ज्ञेय तो यह भी है कि विविध रूप से प्रयोग किया जाने वाला ऐसा सूत्रा वाक्य उत्तराखण्ड की बोली-भाषाओं की अतिरिक्त शायद ही विश्व की किसी अन्य भाषा में हो, जो अनेकार्थक हो, तुक ताल में श्री-वृ(ि करे, लोकोक्ति की शक्ति रखता हो, मुहावरे के रूप में प्रयोग हो, व्यंजना शक्ति से भरपूर हो तथा विचारों को गंूथने में माहिर हो। तभी तो हम सहसा कह उठते हैं, वाह ! तीले धारु बोला....
अब, इस बहुरुपये वाक्यांश के रूप देखिएµ
1. अभिधार्थ में µ शब्दिक अर्थ तो स्पष्ट है- तीले = तुमने ;तुमनद्ध। धारु = धार में ;धारमद्ध। बोला = कहा ;ब्वालद्ध अर्थात् तुमने धार में ;जोद्ध कहा.... कुछ भी। जो एक प्रेमी या प्रेमिका अपने प्रिय के लिए कहती है या कह सकती है।
2. मुहावरे में µ वाक्य प्रयोग देखें- 'आजकल नेतों सणी प्रजातंत्रा तीले धारु बोला ह्नेगे।' ;आजकल नेताओं के लिए प्रजातंत्रा मजाक हो गया इस वाक्य में 'तीले धारु बोला' व्यंग्यात्मक चमत्कार उत्पन्न कर रहा है। इसी वैचित्रा के कारण यहां मुहावरा हो गया।
3. लोकोक्ति में µ लोकोक्ति कथन स्वतन्त्रा कथन के रूप में होता है। जो वाक्य को सौन्दर्य ;रसद्ध प्रदान करने के साथ-साथ विचारों को भी पुष्ट करता है। जैसेµ
'सबसे म्यरा मोति ढांगा, तीले धारु बोला{
दस रुप्य{ कु मोती ढांगू
सौ रुप्य{ कु सींगा
सबसे म्यरा मोति ढांगा, तीले धारु बोला{'
उपर्युक्त गीत की पहली दो पंक्तियों में बूढ़े-जर्जर हो गये मोती ढांगा ;मोती नामक बूढ़े बैलद्ध की बीत गई जवानी की ओर इंगित कर रहा है- 'तीले धारु बोला' याने खण्डहर बता रहे हैं कि इमारत कभी बुलंद थी अर्थात् मोती भले ही अब बूढ़ा-जर्जर हो गया है लेकिन, कभी अपनी जवानी में प्रसि( सांड था....
पिफर, तीन पंक्तियों में µ मोती शरीर से बूढ़ा व जर्जर जरुर हो गया परन्तु उसके सींगों की सिंग्वात ;सींगों की बनावटद्ध आज भी उसके शौर्य व सौन्दर्य की अद्भुत मिशाल हैं। अब, भले ही उसकी काया की कीमत मात्रा दस रुपया ही हो। लेकिन, उसके सींगों की सिंग्वात देखकर अब भी कोई गलादार ;व्यापारीद्ध सौ रुपया दे सकता है। इस पंक्तियों में इसी बात की पुष्टि करता है 'तीले धारु बोला'।
4. सूक्त रूप में µ प्रायः सूक्तियों में गेयता होती है। ये सुन्दर और चित्ताकर्षक कथन होते हैं। सूक्त अभिधार्थ या भावार्थ दोनों ही प्रकट करने में सक्षम होते हैं। अधोलिखित खुदड़ गीत में देखिएµ
'तीले धारु बोला{ बसन्ति ये तीले धारु बोलै य
मिल परदेश जांण बसन्ति ये तिल रुसै जांणै य।'
गीत की पहली दो पंक्तियों में स्पष्ट है कि प्रेमी अपनी प्रेमिका के इन्तजार में व्याकुल होते हुए कह रहा है कि 'हे ! मेरी प्यारी बसन्ती ;प्रेमिकाद्ध तुमने धार में बोला था कि मैं तुम्हारे जाने से पूर्व एक बार पिफर मिलने आऊंगी....'
तब, अन्तिम दो पंक्तियों मंे उलाहने के रूप में वह सूचित कर रहा है कि 'मुझे तो परदेश जाना ही है, मैं तो चला ही जाऊंगा तब तू मुझे निश्चित स्थान व समय पर न पाकर मेरे वियोग में रुसै ;रुठ जाना / हकबका जाना / तड़पफनाद्ध जायेगी। आप देख रहे हैं कि उपरोक्त गीत पंक्तियों में गेयता भी है साथ ही 'तीले धारु बोला' गीत के अर्थ को चरम तक स्पष्ट करने में भी सहायक हो रहा है और अनुप्रास के माध्यम से सौन्दर्य वृ(ि भी कर रहा है।
5. दार्शनिक अर्थ में µ 'तीले धारु बोला' तीले = तिल के = तीसरे तिल के = तीसरी आंख के = शिव नेत्रा के = ज्ञान चक्षु के अर्थात् नाक की धार ;धारुद्ध के ऊपर स्थित आज्ञा चक्र में 'बोला' गूंजता है। याने वह शब्द ब्रह्मम जो ब्रह्मयोगियों को ध्याान में एकाग्र होने पर दर्शन देता है, वह- 'तीले धारु बोला....' पठनीय है अधोलिखित आध्यात्मिक गीतµ
सद्गुरु कह सरण जा, तीले धारु बोला {{{ ।1।
सद्गुरु की चरण मा, तीले धारु बोला {{{ ।2।
सद्गुरु का ध्यान मा, तीले धारु बोला {{{ ।3।
सद्गुरु च पारब्रह्मम, तीले धारु बोला {{{ ।4।
सद्गुरु च कण-कण मा, तीले धारु बोला {{{ ।5।
सद्गुरु की सेवा मा, तीले धारु बोला {{{ ।6।
'तीले धारु बोला' के इन विलक्षण प्रयोगों को देखकर आपको निश्चय ही यकीन हो चुका कि गढ़वाली एक सशक्त भाषा है और इसमें ऐसे अनेकों