ताडिकाओं बध होना ही चाहिए


बलात्कारों से पूरा देश विचलित होता  है और एक जागृत राष्ट्र को होना भी चाहिए। वास्तव में यह विचलन तो बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था परन्तु नहीं हुआ। 1994 में तत्कालीन मुलायम सरकार द्वारा उत्तराखंड आंदोलनकारी महिलाओं पर जो अत्याचार हुआ था, उस समय यह देश क्यों सो रहा था? यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। महिलाओं के पक्ष में या उनके हित में यदि अभी भी समाज और सरकारें बहुत पीछे हैं तो इसका मूल भी आज तक की सरकारों की कार्यप्रणाली में ही खोजा जाना चाहिए।
परन्तु महिलाओं के तमाम सरोकारों से सहमत होते हुए भी कुछ पक्ष ऐसे हैं जिन पर चर्चा उतनी ही आवश्यक है जितनी कि महिलाओं के उत्थान के पक्ष में। सबसे पहला प्रश्न यह है कि 'महिला' कौन है? जैविक रूप से गर्भ धारण कर सकने की योग्यता रखने वाला प्राणी यदि महिला है तो फिर उसके 'सामाजिक' सरोकारों पर बहस बेमानी है और यदि समाज में बराबरी के साथ चलने व जेण्डर समता चाहने वाला प्राणी महिला है तो फिर उसकी जैविक बनावट पर बहस बेमानी है।
आदिमानव के युग से ही यदि महिलाओं पर अत्याचार होते रहे हैं तो इसका यह भी अर्थ नहीं है कि प्राचीन अत्याचारों का दण्ड आज के समस्त पुरुषों को दे दिया जाय। दुष्कर्म और अत्याचार करने वाले पुरुषों को 'पुरुष' न तो प्राचीन काल में माना गया है और न आज मानने की जरूरत है। दिल्ली में हुए रेप के दोषियों को 'पुरुष' गिनना ही भूल है। वे तो 'राक्षस' हैं और उनका वध करना आवश्यक है। ठीक इसी प्रकार 'महिला वेष में ताड़िकाओं' का वध करना भी उतना ही जरूरी है। महिला होने की पहली शर्त है कि वे पुरुषों के साथ सहयोग से जीवन को संचालित करने में मददगार हों और पुरुष होने की पहली शर्त है कि वे महिलाओं के साथ जीवन को संचालित करने में मददगार हों। 'एक बड़ा और दूसरा छोटा' की मानसिकता से महिला उत्थान या पुरुष उत्थान के कार्यक्रम तो चलाए जा सकते हैं परन्तु समाज में समरसता नहीं लाई जा सकती। 'ताड़िका' शब्द एक प्रतीक है। इसे व्यक्ति वाचक संज्ञा नहीं समझा जाना चाहिए। दक्षिण के 'रक्षकुल' में सारी महिलाएं राक्षसी नहीं थी। मंदोदरी और सुलोचना का नाम जिस आदर से उत्तर भारत के आर्यों ने लिया है, उससे स्पष्ट होता है कि महिलाओं का सम्मान कुछ अलग चीज है और उनका समाज कुछ और है। इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि वे किस कुल, देश या स्थान पर हैं। मूल शर्त यही है कि वे 'महिलाएं' हों। जब हम महाकाव्यों की महिलाओं का जीवन पढ़ते हैं तो रावण की माता कैकसी और पिता विश्रवा का जिक्र करना अक्सर भूल जाते हैं। एक ही माता-पिता की चार संतानें-रावण, कुंभकरण, विभीषण और सूर्पणखा। चारों के स्वभाव में नितान्त भिन्नता। इन पात्रों के चरित्र में इतनी विभिन्नताएं कैसे पैदा हुईं? माल्यवान की पुत्री मंदोदरी, रावण की रानी होने पर भी पूज्य है परन्तु रावण की ही सगी बहन सूर्पणखा नाककटी राक्षसी। इसका कारण?
महिलापन या स्त्रीत्व ही इसका कारण हो सकता है। मंदोदरी ने अपने पुत्र को सही या गलत, हर स्थिति में पिता का भक्त होने के संस्कार दिए पर कैकसी अपने पुत्र रावण को परस्त्री के सम्मान करने का संस्कार नहीं दे सकी। यही कारण है कि एक महान शिवभक्त और विद्वान रावण को 'राक्षस' हो जाने का ही मार्ग मिला और उसका वध करना पड़ा। 
यह स्त्रीत्व क्या चीज होती है? वर्तमान समय में महिला के जैविक और सामाजिक सरोकारों का ऐसा घालमेल कर दिया गया है कि 'स्त्रीत्व' की बात करने वाले के पीछे संसार भर की 'औरतें' हाथ धोकर पड़ जाती हैं। दरअसल 'स्त्रीमुक्ति' या 'महिला स्वतंत्रता' के नारे लगाने वाले स्त्री-पुरुष, 'मानव देह में पशु को प्रतिष्ठित' करने का कार्य कर रहे हैं क्योंकि वे दोनों 'स्त्रीमुक्ति' के नाम पर व्यक्तिगत और सामाजिक अवधारणाओं को नकारते हैं। वे परिवार व्यवस्था को नहीं मानते, वे देह को निजी सम्पत्ति मानकर बाजार में बेचना चाहते हैं, वे व्यक्ति को समाज से श्रेष्ठ मानते हैं और एक ऐसा विश्व बनाना चाहते हैं जो पशुओं का होता है। जिसमें यौन संबंधों के लिए भी कोई बंदिश नहीं होती।
यौन सुख के लिए किसी को भी न मानना ही तो ताड़िका और सूर्पणखा होने का प्रमाण है। ऐसे प्राणी न समाज होते हैं और न अन्य किसी व्यवस्था के हिस्से। वर्तमान का स्त्रीमुक्ति इसी का पक्ष ले रहा है और इसीलिए समाज की ऐसी ताड़िकाओं का वध किया जाना नितान्त आवश्यक है। रही बात पुरुषों की तो ऐसे लोग जो सिर्फ अपने यौन सुख के लिए रेप जैसे कार्य करते हैं, वे पुरुष ही नहीं हैं। महिलाओं का अपमान करने वाला प्राणी अक्षम्य है और राक्षसों की श्रेणी में है। ऐसे पुरुषों का वध पहले भी होता रहा है और भविष्य में भी करना ही पड़ेगा। लेकिन जो पुरुष स्त्रीत्व और नारी का सम्मान करता है, उसे सिर्फ इसलिए दण्ड नहीं दिया जा सकता कि वह पुरुष है। वर्तमान की महिलाओं को इस पर भी विचार करना होगा।
दूसरा प्रश्न यह है कि पुरुष को रेपिस्ट कौन बनाता है? जब भी इस प्रश्न की तह में जाने का प्रयास किया जाता है तो वर्तमान महिलावाद बिना किसी निष्कर्ष को दिए ही नाक-भौं सिकोड़ लेता है या आक्रामक होकर संसार के समस्त पुरुषों को स्त्रियों का शोषक घोषित करके एकतरफा युद्ध छेड़ देता है। सारा संसार जानता है कि 'माता' का कोई विकल्प नहीं होता और वही शिशु की प्रथम अध्यापक होती है। कोख में पालने से जन्म और जन्म से संस्कारवान बनाने तक इस सृष्टि में एक ही प्राणी है-माता। शिशु के अधिकतम संस्कार या चरित्र का निर्माण शैशव अवस्था तक हो जाता है, इस बात को संसार समस्त मनो वैज्ञानिक मानते हैं। व्यक्तित्व पर सबसे       अधिक प्रभाव भी माता का पड़ता है इसमें कोई दो राय नहीं है। यदि कोई शिशु बड़ा होकर रेपिस्ट पुरुष बनता है तो इसमें मूल रूप से माता के दिए संस्कारों और गौण रूप से शिक्षा व समाज का असर होता है। वर्तमान की समस्त चिल्ल-पौं सिर्फ शिक्षा और समाज को लेकर है। 
स्त्री को माता रूप में महिलाओं का सम्मान करने वाला पुरुष निर्मित करने की बात पर एक राय नहीं है। स्त्रीवादियों का मानना है कि यह स्त्री को फिर से घर में बांधने की साजिश है और इससे स्त्रियों के लिए बराबरी के अवसर समाप्त हो जाएंगे। नैतिक और चरित्र की शिक्षा के लिए वे सिर्फ स्कूल और समाज पर निर्भर रहना चाहती हैं। ऐसी स्थितियों में दोनों चीजें एक साथ नहीं चल सकती। स्त्रीमुक्ति की धुर पक्षधर औरतें यदि हर वक्त अपने पति से लड़ती रहें, पुरुष की बराबरी की हौंस में उन्हीं की तरह शराब और सिगरेट पीकर घर आएं, यौन सुख के लिए किसी के साथ भी हो लें और यह भी आशा रखें कि उनके बच्चे रेपिस्ट न बनें; स्त्रियों को सम्मान की नजर से देखें, तो यह दिवास्वप्न ही होगा। ऐसी माताओं के बच्चे क्या बनेंगे, इस पर कुछ भी कहना बेकार है।
राम के जैसे एकपत्नीव्रती राजा बनाने का कार्य तो कौशल्याओं को ही करना होगा। कृष्ण जैसा प्रेमी बनाना यशोदाओं के लिए ही संभव है। ऐसे पुरुष समाज में बनाने ही होंगे जिन पर आम साधारण गोपियां भी इस भरोसे से रह सकें कि वह पुरुष उनका रेप नहीं करेगा। और मानों या न मानों यह कार्य सिर्फ और सिर्फ स्त्री कर सकती है। यह कौशल्याओं और यशोदाओं से ही संभव होगा। इसके लिए भविष्य का मिजाज पता नहीं कैसा होगा परन्तु समाज को अपने सदस्यों में से चुन चुन कर रावणों और ताड़िकाओं का वध करना ही पड़ेगा वर्ना देश के हर कोने में दिल्ली होंगे और हर घर में रावण। स्त्रियां यदि सीता नहीं बन सकती तो निश्चित है कि किसी भी रावण का वध नहीं होगा और सीताओं का निरन्तर अपहरण होता ही रहेगा।