वक्रतुण्डोपनिषद (शाक्त ध्यानी )


आह्वान-महाकाव्य को कवि ने ‘गणगाथा’ सम्बोधित किया है। सर्गांे को प्रारम्भ करने से पूर्व श्री गणेश का आह्वान करते हुए निवेदन किया है-‘हे करूणा   निधान! आप मेरे इस छोटे से प्रयास में उपस्थित रहकर, इस ‘गणगाथा’ के साक्षी बनें-
धूप-अगर की धुंध त्याग दो
छद्म-युक्ति का भान करो
फल-मोदक में अग्नि भरो 
   अब / परम-चाप सन्धान करो।
छद्म-युक्ति का भान किस लिए करो? कवि ने इन शब्दों में व्याख्यायित किया है-
     इच्छाभ्रष्ट हुए शासन की
      ऐंद्रिकपुरी को राख करो
     शिलाखण्ड से जड़वत जन
      की/ मेरूदण्ड में आग भरो


सिंहासन को त्यागो गणपति 
महा-जम्हाई ले ही लो
महानृत्य उस शंभु जैसा
ताण्डव कोई कर ही लो
उक्त पंक्तियों से ऐसा आभास मिल रहा है कि कवि शाक्त ध्यानी उत्तराखण्ड राज्य की वर्तमान दशा और दिशा देखकर कुछ ज्यादा ही उद्वेलित हो रहे हंै, तभी तो वे गजानन को सचेत करते हुए कर रहे हैं कि प्रभु इस राज्य की बागडोर उन इच्छा भ्रष्ट नेताओं व अधिकारियों ने थाम रखी है जो राज्य में भ्रष्टाचार, अत्याचार, कदाचार, व्यभिचार आदि को प्रश्रय दे रहे हैं। अतः आपको चाहे किसी भी प्रकार की छद्म- युक्ति, कूटकर्म-कमबमचजपअम ंबज को अंजाम देना पड़े, इस भ्रष्टश्शासन रूपी इन्द्रपुरी को राख के ढे़र में परिणत कर दो। और यहां का जनमानस जो नकारा हो कर पत्थर के समान निर्जीव बन गया है, उसकी धमनियों में ऐसी उर्जा भर दो, जिससे उसके भीतर का पौरूष पुनः जाग उठे। प्रभु एक निवेदन और-ये जो शीर्ष नेतृत्व भ्रष्टाचार आदि को बढ़ावा दे रहा है, उसकी इति के लिए अब आप शिव शम्भु के ताण्डव जैसा कुछ कर ही डालो ताकि न रहे बांस और बजे बांसुरी।
भाषा-भाषा सर्ग में कवि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी भाषा को उसका प्रतिष्ठित देय न मिल पाने के कारण क्षुब्ध है-
देवनागरी, याचक-वाणी
गणिका हर सम्मेलन की
घंुघरू बांधे पेट पालती
ध्वजा / वाक्-आंदोलन की
श्री-गणेश ही ढोंग बने हैं
राज्य भ्रमों को ढ़ोता है। 
आक्रांता-भाषा के सम्मुख 
देशज-आखर रोता है।
कवि की पीड़ा यह है कि जिस भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा कहलाने का हक मिलना चाहिए था, वह अपने ही देश में विदेशी आक्रांता भाषा की दासी बनकर रह गई है। इतना ही नहीं आज का विश्व बाजार, अपने स्वार्थों के चीथड़े पहना, हिन्दी का हास्यास्पद क्लोन बनाकर, उसे गली-गली नचा रहा है। इस दुर्दशा को देखकर कवि इतना मर्माहत हो गया है, कि उसे हिन्दी के लिए गणिका शब्द के प्रयोग से भी परहेज नहीं हुआ। इस संदर्भ में गणेश जी को उलाहना देते हुए कवि का कहना है- हे! गजानन हिन्दी पर यदि आपकी कृपा-दृष्टि हो जाए, तो वह पुनः वाक् सिंहासन पर आरूढ़  हो कर अपना खोया हुआ गौरव प्राप्त कर सकती है।
)तुचक्र-)तुचक्र सर्ग पर कुछ लिखने से पूर्व, इस सर्ग के ईशस्तव की उन पंक्तियों को यहां पर उधृत करना समीचीन होगा जिनमें कवि ने गजानन की स्तुति करते हुए उनके सर्वांगीण व्यंिक्तव का आकर्षक चित्रण किया है-
उदधि-उदर लम्बोदर तेरा
तारे-सूरज मोदक हैं
सूर्योदय सा सिन्दूरी-तन
)तुयें-मौसम योजक हैं
 
ब्रह्माण्ड थाल है तेरा गणपति
पुष्प-गुच्छ हैं, नेत्र तेरे
अटल-मेरू तेरे स्कन्ध हैं
रश्मि-कलश तपतेज तेरे।
)तु वर्णन बारहमासा की परम्परा बहुत प्राचीन है। संस्कृत के महाकाव्यों में )तु वर्णन का  विधान था। इसके )तु काव्य की एक स्वतत्र परम्परा भी थी, जिसका मूल उत्स लोकगीतों में ही प्रतीत होता है। )तु काव्य, )तु पर्वांे और )तु गीतों की लोक परम्परा से प्रेरित होकर ही रचा गया है। इसीलिए दोनों में पर्याप्त समानता निहित है। प्रकृति का मानवीकरण, आत्मीयता की स्थापना तथा मानवीय भावों, सुख-दुख की अनुभूतियों को )तुओं से जोड़कर देखने की परम्परा आदि कुछ ऐसे तत्व हैं जो )तु काव्य और )तु सम्बन्धी वैचारिकता की भौतिकता को प्रकट करते हैं। मध्य हिमालय ;विशेषकर गढ़वाल मण्डलद्ध में सर्वाधिक प्रचलित )तुओं के वे ही पर्व मुख्य रूप से आए हैं जो बसन्त, वर्षा और शरद )तु से सम्ब( हैं। इस लघुकाया के काव्यकार ने भी इन्हीं पर्वो को अपने )तु चक्र में स्थान दिया है। इन )तुओं में बसन्त सबसे प्रिय है, क्योंकि वह लोक जीवन में उठते यौवन और फलते- फूलते दाम्पत्य सुख का भी प्रतीक है। इसीलिये लोकजीवन में, वन और आंगन में उसका  आमंत्रण करते हैं। बसन्त )तु के पहाड़ी पक्षियों में हिलांस और कफु को तथा फूलों में बुरांस और फ्यूंली को बड़ी आत्मीयता मिली है। अतः बसन्त की सबसे बड़ी खूबी उसका रचना परक होना है। बसन्त की बात सृजन की, नव निर्माण की बात होती है। अज्ञेय ने एक स्थान पर लिखा है- पीपल की सूखी डाल स्निग्ध हो चली है, सिरस ने रेशम से बेणी       बांध ली, नीम के भी बौर में मिठास की झलक है, हंस उठी है कचनार की कली, टेसुओं की आरती सजा-सजा के बन गई बधू वनस्थली। यही कारण है सृजन का सुहावना मौसम होने के नाते वसन्त को )तुराज कहा जाता है। )तु चक्र के सम्बन्ध में कवि शाक्त ध्यानी का कहना है कि )तुयें पृथ्वी के भौगोलिक परिधान हैं। हमारे त्यौहार उत्सव पृथ्वी के इन्हीं परिवर्तनों की सामाजिक अभिव्यक्तियां हैं।कृ)तुओं की इन वेश-भूषाओं में हमने अपने लिये विविध अर्थ ढूंढ लिए हैंकृकृपरन्तु आधुनिक समाज के सम्मुख पारे का उबाऊ परिवर्तन ही एकमात्र )तु है, वह मिट्टी में जीवन नहीं, लाभांश देख रहा है।
वसन्त-)तु चक्र में )तु राज वसन्त से प्रारम्भ कर शिशिर तक कवि ने पूर्ववर्ती महाकाव्यकारों के बारहमासा की लीक से कटकर षट)तु वर्णन को अपनाया है। इस सम्बन्ध में डा0 गोविन्द चातक ने एक स्थान पर लिखा है-‘यद्यपि वेदों में )तुसौंदर्य की झलक मिलती है, और परवर्ती साहित्य में षट )तु वर्णन भी उपलब्ध होता है, किन्तु बारहमासा की परम्परा प्राचीन संस्कृत साहित्य में नहीं मिलती। सम्भवतः इसीलिए काव्यकार शाक्त ध्यानी ने षट)तु के वर्णन को ही अपनाया है। वसन्त से शिशिर तक के इस )तुचक्र को अनेक उपमाओं/उपमानों और बिम्बों से संवारा है, सजाया है। कहीं-कहीं पर बिम्बों की शोभा देखते ही बनती है। वसन्त की इन चार पंक्तियों के भीतर झांककर देखिये ये पंक्तियां किस ओर इंगित कर रही हैं-
क्षत-विक्षत हो गये अधर हैं 
चुम्बन के प्रहारों से 
फूलों की गातें सिहर उठीं 
इन काम के गुंजनहारों से...आदि