आज विश्व जन संख्या दिवस पर
 


              11 जुलाई का दिन विश्व जन संख्या दिवस के रूप में मनाया जाता है, या यूँ कहें मनुष्य के लिए आज का दिवस चेतावनी  दिवस है। बड़ती विशाल आबादी के परिणामों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे पूरे विश्व के देशों के लिए 'विश्व जन संख्या दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया। बढ़ती आबादी के साथ मानव की अवश्यकताओं का बढ़ना स्वाभाविक प्रक्रिया रही है। आवश्यकता ही आविष्कार की जननी कही जाती है। आदिम युग से पाषाण युग तक गुजरते हुए फिर आज के युग तक पहुॅंचते पहुॅंचते यदि मानव की ईच्छाओं, आवश्यकताओं के अनुसार किये गये आविष्कारों को यदि गिना जाये तो शायद गिनती खत्म न हो। क्योंकि मानव की आवश्यकताएं, ईच्छाएं क्षण क्षण, कदम कदम बढ़ते हुए नए नए आविष्कारों का रूप लेती रही हैं। आज तक मानव जहाँ जहाँ तक सोचता रहा, वहाँ वहाँ  तक पहुँचता रहा। आज उसने अपनी हर सुख सुविधा के साधन अपनी ईच्छा के अनुसार, अनुरूप आविष्कृत कर लिये हैं और यहाँ तक कि जब पृथ्वी पर उसकी सीमाएं समाप्त होने लगीं तो सुदूर अंतिरिक्ष में लाखों मील दूर तक जा पहुँचा और वहाँ भी अपनी बस्तियां बसाने के सपने संजाने लगा। असम्भव नहीं कि यदि आवश्यकता, प्रगति की यही रफतार रही तो इस सदी के मध्य तक अंतरिक्ष में मानवीय बस्तियाँ बसाने का उसका स्वप्न साकार हो जाये। बस आवश्यकता इस बात की है कि सौर मंडल के ग्रहों में जीवन जीने के अनुकूल वातावरण मिल जाये। यद्यिपि मानव की ईच्छा आवश्यकता के अनुसार आविष्कारों ने उसे आदिम युग से आधुनिक युग में पहुॅंचा दिया, जिसे आज प्रगति, विकास, आधुनिक वैज्ञानिक युग आदि के नाम से जाना जाता है। आविष्कारों की इस दौड़ में जहाँ मनुष्य ने सभ्यता, संस्कृति, विकास के नये आयाम स्थापित किये, वहीं हमारी पृथ्वी का किस कदर शोषण और दोहन हुआ, सामाजिक व्यवस्था, सभ्यता, संस्कृति का कितना तीव्र गति से हास हुआ, इस ओर किसी ने मुड़कर नहीं देखा। जब से मानव को आधुनिक तकनीकों से, खोजी यंत्रों से, उपग्रहों के माध्यम से ज्ञात हुआ कि पृथ्वी के गर्भ में, समुद्र के नीचे अतुल खनिज सम्पदा का भंडार छुपा हुआ है तब से उसने समुद्र का और भूगर्भ का सम्पूर्ण पोस्ट मार्टम सा कर डाला है। नई नई हजारों माइंस भूगर्भ में बना डालीं, हजारों तेल के कुओं की खुदाई पृथ्वी और सागर के नीचे कर डाली और फिर दौर शुरू हुआ पृथ्वी के दोहन का। भूगर्भ से करोडों बैरल तेल, करोड़ों टन खनिज पदार्थ प्रतिदिन निकाले जाने लगे जिससे पृथ्वी के नीचे की मजबूत चटटानों का और उन तत्वों का कमजोर होना स्वााभाविक था जो प्राकृतिक रूप से पृथ्वी को मजबूत और शक्तिशाली बनाते थे। पृथ्वी का अनेक स्थानों पर धंसना, भूगर्भीय चटटानों का टूटना, निरन्तर भूकम्पों का आते रहना, ज्वालामुखियों का फूटना, पृथ्वी पर मौसम का असमान्य रूप से बदलना, वायुमंडल में परिवर्तन होना, इसका स्पष्ट उदाहरण है कि पृथ्वी धीरे धीरे अपना वास्तविक रूप खो कर कमजोर होती जा रही है। बढ़ती जन संख्या का प्रभाव यह भी पड़ा कि शीघ्र से शीघ्र एक दूसरे से पहले कहीं भी पहुँचने की प्रवृति से, अत्यधिक वाहनों के निर्माण से तेल, ईधन की बेइंतहा खपत से, प्राकृतिक गैस के अत्यधिक उपयोग का परिणाम यह हुआ कि हमारा वायु मंडल प्रदूषित वायु मंडल में परिवर्तित होता जा रहा है। जबकि स्वच्छ, सुंदर, शुद्ध वायु मंहल, पृथ्वी पर जीवन के सुरक्षित रहने की पहली शर्त है। बढ़ती आबादी के ऊपर टेलिविजन के कार्यक्रमों ने मानव  की सभ्यता, संस्कृतिक मूल्यों के विनाश के प्रचार प्रसार में अभूतपूर्व योगदान दिया। वर्तमान में टेलिविजन ने हमारे सामाजिक सम्बंधों को छिन्न भिन्न करके रख दिया एक संस्कृति, सभ्यता विहीन विशाल जनसंखया से हम किसी अच्छाई की आशा कैसे रख सकते हैं। आज शाम होते ही, या क्रिकेट का मैच होते ही सड़कों पर कर्फयू जैसी स्थिति हो जाती है। लोग एक दूसरे के सुख दुख में सहयोग की भावना से कोसों दूर हो गये। मनुष्य ने फिल्मों, टेलिवीजन को आज अपना सबसे अच्छा मित्र बना लिया है। आज मारधाड़, हिंसा, चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार, और नयी नयी अपराधिक गतिविधियों से फिल्में भरी पड़ी रहती है जिसका गलत प्रभाव मानव, तथा बेरोगारों के मन मष्तिष्क पर पड़ता है। आदमी का, समाज का, उसका रिश्तेदार, उसका दोस्त आज सब कुछ टेलिवीजन बन के रह गया है। नयी पीढ़ी का मार्ग दर्शन करने के विपरीत टेलिवीजन आज उसे दिगभ्रमित कर रहा है मानवीय संवेदनाओं का सत्यानाश तक कर रहा है। समाज में बढ़ती हिंसक गतिविधियां इसका जीता जागता प्रमाण हैं। जन संख्या की आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए कागजों का उपयोग तो बढ़ा जिससे पेड़ों का अंधाधुध कटान हुआ जब इससे भी आवश्यकताएं पूरी नहीं हुई तो बेभाव प्लास्टिक, पालिथीन का उपयोग बढ़ा, इनके आसानी से नष्ट न हो पाने के कारण  इनसे बढ़ती आबादी के लिए प्रदूषण का संकट और बढ़ा। बढ़ती आबादी को रोकना आज विश्व के लिए सबसे बड़ा चुनौती भरा प्रश्न बन गया है। बढ़ती आबादी के साथ आवागमन के वाहनों की संखया में कल्पनातीत बढ़ोतरी हुई आज इनके मल्बे के ढेरों को नष्ट करना भी विश्व  के सामने बड़ी समस्या हो गयी है। इनसे जो ध्वनी प्रदूषण, गैसीय प्रदूषण, फैलाते करोड़ो वाहन मनुष्य के जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गये हैं। पहले मनुष्य दूर दूर तक पैदल आया जाया करता था जिससे उसका स्वास्थ स्वस्थ रहता था आज कदम कदम पर उसे वाहन की आवश्यकता पड़ती है, जिससे स्वास्थ पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने से आबादी का बड़ा हिस्सा रोग ग्रस्त हो रहा है। बढ़ती जनसंखया के कारण जमीन कम पड़ने लगी है। सूती कपड़ों से जब इतनी बड़ी आबादी के लिए कपड़ों की आपूर्ती पूरी नहीं हो पायी तो सिंथेटिक कपड़ों का अविष्कार हुआ जिन्होंने अनेक त्वचा के रोगों को जन्म दे डाला। इसके अतिरिक्त सिगरेट, तम्बाखू, शराब, ड्रगस आदि की गिरिफत में आने से विश्व की विशाल आबादी अपने को रोक नहीं पायी। बढ़ती विशाल आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए नए नए करोड़ों उदयोग धन्धे, मिलें स्थापित हुई जिनसे निकलने वाला लाखों टन कचरा, कूड़ा मनुष्य के साथ पृथ्वी के लिए भी एक बड़ी मुसीबत हो गया है। इस कचरे को इस गंदगी को मानव द्धारा सीधे नदियों में, तालाबों में, सागर में फेंक दिया जा रहा है। जिस कारण विश्व  का अधिकांश जल पीने योग्य उपयोग के योग्य नही रहा है। इस तरह बढ़ती जन संख्या का विकराल रूप सारी व्यवस्थाओं को ध्वस्थ कर रहा है। विश्व की विशाल आबादी के लिए जब अनाज कम पढ़ने लगा तो फिर रासायनिक खाद से अधिक उत्पादन के प्रयोग किये जाने लगे। जो जहर का कार्य कर रहा है। इससे अनाज का, फलों, सब्जियों का आकार तो बड़ा हुआ पर उनके गुण, उनमें स्थित पौष्टिक, और ओषधि तत्व नष्ट होने लगे। इस कारण कहा जा सकता है जिस तरह आबादी बढ़ती रहेगी मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए पृथ्वी से, पर्यावरण से, नदियों से, जल से, सागर से, वायु मंडल से छेड़छाड़ करता रहेगा उनका दोहन करेगा जिसके उसे एक दिन गम्भीर दुषपरिणाम भुगतने पड़ेंगे। बढ़ती आबादी की जब भूख, प्यास, आवास, रोजगार की आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पायेंगी, असमानता, अन्याय, आर्थिक विपन्नता आदि के साथ जब जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्रवाद, वर्गवाद जुड़ेगा तब जो जनसंखया विस्फोट उभर कर आयेगा उसका असर कई हाईड्रोजन और परमाणू बमों से कई गुना अधिक होगा। आज विश्व की सारी समस्याओं की जड़ बढ़ती आबादी है इससे कोई इंकार नही कर सकता। इसके घातक परिणाम एक न एक दिन पृथ्वी को ही नहीं, पृथ्वी पर निहित जीवन, पशु, पक्षी, पेड़ पौधों, वनस्पति, नदियों, सागर समूचे बहमांड को सभी को भुगतने पड़ेंगे। मानवीय सभ्यता, संस्कृति तहस नहस हो जायेगी, यह जरूर है कि इसके बाद एक नई सभ्यता, संस्कृति का उदय होगा। पृथ्वी को यदि बचाना है, पर्यावरण को यदि बचाना है पृथ्वी पर यदि जीवन को बचाना है तो जन संख्या कम करना उसे बढ़ने से रोकना जीवन की पहली शर्त  होगी। 

 

स.स.3280/2016