इस कोरोना काल का हासिल क्या है ?
 


 

धरती पर इंसानी जिंदगी के लिए ये साल अभूतपूर्व सिद्ध हो रहा है।पिछले लगभग 4 माह से जिंदगी का क़ारोबार ठप सा पड़ गया है। आदमी की बौद्धिकता और वैज्ञानिक हनक को लकवा मार गया है। उनकी उस्तवधार्मिता पंगु हो गयी है। उसका भौतिकतावाद अवसाद की भेंट चढ़ गया है। जहाँ हर तरफ़ पहले तफ़रीह दिखती थी अब  अफरा तफ़री ,भय, आशंका और अविश्वास का बोलबाला है। हर आदमी और मुल्क़ दूसरे को बीमार दृष्टि से देख रहा है । बिना संक्रमण के भी हम अविश्वास और आशंका के संक्रमण से जूझ रहे हैं जिसका फ़िलवक्त कोई इलाज़ नहीं दिख रहा है। अमानवीय और विस्तारवादी चीन पहली बार घुटनों पर आ गया लगता है। शी जिनपिंग की अकड़ ज़मीन पर आ गई लगती है। उसका चाइना ड्रीम 2020 धूल धूसरित हो गया लगता है। मानवीय मूल्यों और नागरिक आज़ादी के बुनियादी उसूलों के बिना कौन मुल्क़ या सभ्यता है जिसने बड़ा मुकाम हासिल किया है ? कोई देश जब सुपरपावर या वर्ल्ड लीडर नहीं होता है तब भी इन जीवन मूल्यों और संवेदनाओ से उसका विपन्न होना ठीक नहीं है। चीन इसी प्रकार का शार्ट कट चाहता है। लेकिन वुहान से फैली बू ने उसका जीना मुहाल कर दिया है। दुनियां भर में चीन और चीनी लोग वैश्विक शर्म से दो चार हो रहे हैं.... दुनियां पहली बार आर्थिक, राजनैतिक और बौद्धिक स्तर पर चीन की बांह मरोड़ने की स्थिति में है। 

 

 

इस सबके इतर इटली, फ़्रांस, भारत, कोरिया, ब्राज़ील, अमेरिका और रूस में  कराहती मानवता की कारुणिक कहानियां सामने आयी हैं। कोरोना सिर्फ़ बीमारी नहीं रह गई है अब यह भयादोहन की एक मानसिकता हो गई है जिसकी चपेट में पूरी दुनिया है। भारत में मार्च अप्रैल से मई तक दैनिक मजदूरों ने देश की सड़कों पर जो भूख ,प्यास और बेगानापन झेला, वह हम सबके लिए राष्ट्रीय शर्म से कम नहीं है। इस दौरान इंडिया वालों और भारत वालों के बीच का अंतराल साफ़ साफ़ नज़र आया। सत्ता बेबस और बौनी दिखी और सामाजिक परानुभूति लकवाग्रस्त। जहाँ अमीर और रसूखदार लोग अपने आलीशान घरों में बैठकर सरकार को उपदेश देते रहे वहीं इस बीमारी के सामने पहले पायदान पर जूझते कोरोना वारियर्स ने सराहनीय कार्य किया। डॉक्टर्स, नर्स और  पुलिसकर्मी  हफ़्तों और महीनों तक अपने परिजनों को मिल न सके। कुछ तो इस बीमारी की चपेट में आ कर असमय मृत्यु के शिकार हो गए। देश दुनियां आर्थिक और सामाजिक भविष्य को लेकर सबसे आशंका भरे सवालों से घिरी हुई है । कोरोना का प्रकोप भारत, अमेरिका, ब्राज़ील और फ़्रांस जैसे देशों में चरम पर है। हालाँकि आर्थिक और सामाजिक गतिविधियां शुरू करना सरकारों की मज़बूरी है। उन्हें अनंत काल तक टाला नहीं जा सकता है।

 

ऐसा भी नहीं है कि कोरोना काल में सब कुछ बुरा ही घटित हुआ हो। व्यक्तिगत रिश्तों और सामाजिक जीवन को इस अवधि में नवजीवन मिला है। एक दूसरे की छाती में चढ़कर विकास और सफ़लता की महागाथा लिखने को आतुर लोग अपने परिवार के साथ ज़्यादा समय रह सके हैं। कईयों ने अपने शौक और हुनर पूरे किये हैं। जो हँसना भूल गए थे उन्होंने फिर ठहाके लगाना सीखा तो प्रकृति ने तो समझो महारास रचाया है। हवा, पानी , आकाश और ज़मीन सब तरह सफाई और सुव्यवस्था दिखी। नदी और नाले का अंतर साफ़ हुआ। महानगरों से अपनी छत पर खड़े होकर लोगों ने धवल निर्मल आकाश और हिमालय की चोटियों का दीदार किया। बहुत कुछ था जो गैरजरूरी था लेकिन जिसे हम ढोते जा रहे थे  उस सबसे निज़ात मिली। नौनिहाल मॉल और मल्टीप्लेक्स के ग्लैमर से बाहर आये। जिंदगी ने अख़बारों के बिना जीना सीखा। पिज़्ज़ा और बर्गर को वनवास देकर अपनी गंवई ठसक के साथ भारतीय दाल भात फिर सिंहासनारूढ़ हुई। प्रवासी पक्षियों की गुनगुनाहट से बीरान गांव फिर आबाद हुए। शहर का ज़हर ज़्यादा साफगोई के साथ दिखा । हर आदमी को गांव उम्मीद की सहर दिखा। दरभंगा की ज्योति कुमारी से लेकर सोनीपत के सुमन कुमार को, जिंदगी ने नए ज़ेवर पहनाये। नयी ज़रूरत ने नए आविष्कार की सलाईयत बख्शी। आदमी उधार की स्वाशों को लेकर ज़्यादा संजीदा हुआ।

बहुत समय बाद जब भय और विपदा का ये माहौल बीत जायेगा तब जिन्दा बचे लोगों और कौमों के पास एक नया दर्शन और एक नयी संवेदना होगी। शर्म, अपराधबोध और गर्व के कुछ पीड़ा देने वाले अमिट अध्याय होंगे ...और साथ में होगी चुनौतियों की फ़ेहरिस्त ! लेकिन चुनौतियां नहीं हों, तो फिर जिंदगी भी क्या है !! अपनी कालजयी कविता सावित्री में श्री अरविन्द कितनी खूबसूरत बात लिखते हैं :

"Tranquility was a tedium and an ennui/

Only by suffering life grow colourful/

It needs the salt of tears, the spice of pain...

 

दर्द का मसाला और आँसुओं का नमक जिंदगी को मज़ेदार बनाता है !