भरत-भूमि की चिन्तन और चेतना की कविताएं….समीक्षा

धीरज सिहं नेगी



महाभारत में राजा दुष्यंत और शकुन्तला की प्रेम कथा बहुत से लोगों ने पढ़ी होगी। इसी प्रकार इस प्रेम प्रंसग पर महाकवि कालिदास द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ का भी कई लोगों को अध्ययन करने का अवसर मिला होगा। लेकिन कम ही लोग जानते होंगे कि मालिनी नदी कहां है, जिसके तट पर ऋषि कण्व का आश्रम स्थित था। कहते है कि जब जवाहर लाल नेहरू प्रधान मत्री के रूप में प्रथम बार रूस की सरकारी यात्रा पर गये थे, तो उनके सम्मान में रूसी कलाकारों द्वारा ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ पर आधारित नाट्य कृति प्रस्तुत की गयी थी। नेहरू जी इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भारत लौटकर उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा0 सम्पूर्णानन्द जी को ‘कण्वाश्रम’ की खोज का दायित्व सौंप दिया।


डा0 सम्पूर्णानन्द स्वयं विद्वान व्यक्ति थे। उनकी कैबिनेट में श्री जगमोहन सिंह नेगी वन मंत्री थे जो इतिहास के विद्वान थे। श्री नेगी जी द्वारा जुटाए गए ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर कोटद्वार-भावर के निकट पौराणिक कण्वाश्रम का होना चिन्हित किया गया।


वस्तुतः कोटद्वार-भावर से लेकर मालिनी नदी के उद्गम स्थान मलन्या तक के 40 किमी के क्षेत्र में ‘कण्वाश्रम’ विस्तृत था। इसी क्षेत्र में हेमकूट पर्वत श्रंृखला अवस्थित है। हेमकूट पर्वत महर्षि कण्व तथा उनकी पालिता पुत्री शकुन्तला के पौराणिक महत्व से जुड़ा है। यहीं शकुन्तला के गर्भ से सर्वदमन बालक भरत का जन्म हुआ था। जो हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत और महर्षि कण्व की पालिता पुत्री शकुन्तला के गन्धर्व विवाह की परिणति थी। जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बनते हंै और उनके नाम से इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। महाभारत में इस क्षेत्र को इस प्रकार महिमामंडित किया गया है-


प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनी मामितो नदीम् जातमुत्सृज्पन्तगर्म मेनका मालिनी मनुः। अस्तवयं सर्वदमन सर्व हिदमयत्सौ, स सर्वदमनो नाथः कुमार समपहद्यतः।


स्कन्द पुराण में भी केदारखण्ड के अन्तर्गत कण्वाश्रम से नन्दागिरी तक के समस्त क्षेत्र को पुण्य भुक्ति-मुक्ति प्रदाता कहा गया है। इसी पुण्य क्षेत्र में प्रवाहित मालिनी नदी के तट पर उसके उद्गम स्थल मलन्या से कुछ ही आगे सौड़ गांव में जन्मे, पले-बढ़े डा0 डी0एन0 भटकोटी ने राजा दुष्यंत और शकुन्तला की पौराणिक प्रेम-कथा को शाश्वत नर-नारी की शाश्वत प्रेम शक्ति तथा मालिनी की जलधारा को शाश्वत समय का प्रतीक मानकर लोक जीवन के वर्तमान स्वरूप में झांकते हुए रूप और देह से परे नये सन्दर्भ में प्रेम की पृष्ठभूमि पर चिन्तन और चेतना की सुन्दर कविताएं रची हैं। इन कविताओं का संग्रहित स्वरूप ‘‘मालिनी का आंचल’’ काव्य कृति हाल ही में ‘समय साक्ष्य’ प्रकाशन के माध्यम से पाठकों तक पहुंची है।


संग्रह की अधिकांश कविताएं छायावादी भावों से युक्त होते हुए थी यथार्थ पर आकर ठहर जाती हैं। कवि ने आज का जो यथार्थ वर्णित किया है। वह केवल मालिनी आंचल का यथार्थ नहीं है। अपितु सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के पहाड़ी परिवेश का यथार्थ भी हैं-


कट गये पेड़/बह गयी माटी कहीं विपुल जल में मालिनी/ऋषि कुमारों की व्यथा/थाम बोतल शराब की/बहकती कभी इधर/महकती कभी उधर/गंध मय की /धुल गयी/इस सांस में/ उस सांस में।


डा0 भटकोटी की इस काव्य कृति को लोक धर्मिता का प्रतिमान कहना अनुचित नहीं होगा। शब्दों से भी और भाव से भी। उन्होंने अपनी कविताओं में यथा संभव स्थानीय भाषा के शब्दों को स्थान दिया है। कथा सूत्र को भी वे लोक से ग्रहण किया हुआ बतलाते हैं। अमूमन सारे पहाड़ी प्रदेश में पुराने समय में पौष की ठण्डी रातों में स्त्रियां घर के ओबरे (घर का भूतल) में चूल्हे में आग जलाकर तथा पुरूष ‘तिबारी’ (घर की प्रथम मंजिल पर स्थित बैठक) में अंगीठी जलाकर लोक कथाएं/गाथाएं सुनाते, पखाणा कहते तथा पहेलियां बुझाते। इसी लोक-परम्परा के अन्तर्गत उन्होंने राजा दुष्यंत और शकुन्तला की यह प्रणय गाथा प्रवीण दद्दा से सुनी थी, जो सदैव के लिए उनके मानस पटल पर बस गई। डा0 भटकोटी का मन तब पीड़ा से भर उठता है जब वे अपनी जन्मभूमि के उजड़ते और बिखरते गांवों की सूरतें निहारते हैं


न ओड है न मिस्त्री/ न छेनी है न लुहार/ न गीत हैं न नृत्य/न मौसम में बहार/ पहाड़ खामोश हैं/कुहरे की चादर है/खुदेड़ गीत की धुन/ निगल गया कोलाहल।


इनकी कविताओं में रम्भाती गायों, उछलती बाछियों की यादें, बामण- जागरियों, चाचा, ताऊ, फूफू, दादा-दादी, नाना- नानी जैसे परम्परागत रिश्तों की मिठास, तीज- त्यौहारों की उमंग तथा रश्मि रंजित मालिनी घाटी के खेत- खलिहानों की सोंधी गंध समायी हुई है। प्रकृति की अठखेलियों को कवि ने सुन्दर ढंग से चित्रित किया है-


याद आयी/ सदानीरा/मालिनी की मुक्त धारा/सौड़ का समतल सलौना/वन्य जीवों का विहार/ रस चूसते फूल पर/गंुजार करते भ्रमर/बनफूल से केलि करती/तितलियों की पांत/ मालिनी में तैरती मछलियों की डार।


डा0भटकोटी प्रगतिशील विचारधारा के व्यक्ति रहे हैं। अतः लोक पक्ष में खड़े होकर व्यवस्था को ललकारना या यथास्थितिवाद के विरुद्ध विद्रोह उनकी कविताओं में देखा जा सकता है।


ठहर जाओ/ ये पर्वत पुकारते हैं/ व्यवस्था को ललकारते है/ यह भावना का प्रश्न पीछे/ विचार का विषय प्रथम/हक जताने का समय है/ इस भूमि का जल कहां है?


पहाड़ लांघ कर शहरों में दो जून रोटी के लिए जद्दो जहद्द कर रही पहाड़ की जवानी हो अथवा गांव घर में अकेली पीछे छूट गयी पर्वत पुत्रियों का श्रमसाध्य जीवन की पीड़ा हो, इन दोनों को कवि ने अपने काव्य में बखूबी उकेरा है-


लांघ पर्वत मैदान में/विवश खड़ी जवानी/ दो जून रोटी/ और सफर मीलों का/ यह कैसी कहानी। घास का गठ्ठर सिर पर/ कमर बंधा पटका से/ भरी दुपहरी जेठ की/ ‘उकाल- उंधार’ की पंगडंडी/सुस्ताने को बैठ समतल में/एक शकुन्तला पर्वत पुत्री/पोंछ पसीना बुदबुदायी- ‘शरीर साथ कब तक’।


डा0 भटकोटी जी की यह काव्य कृति मुख्य रूप से आयवत्र्त के चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत और कण्व-ऋषि की पालिता पुत्री शकुन्तला की प्रणय कथा कहती है, लेकिन यह केवल दैहिक आसक्ति से उपजी प्रणय कथा नहीं है। अपितु इनकी कविताओं में प्रेम का एक अनूठा विधान प्रस्तुत हुआ है-


प्रेम है शब्द में डूबा मौन/ आसक्ति लेकिन मौन में खोया हुआ अर्थ/ प्रेम है पूर्णिमा का सकल आह्लाद/ आसक्ति है अमावस की तरह।


इनकी कविताओं में वर्णित प्रेम वैशिष्ट्य के बंधन से मुक्त होने का आनन्द पर्व है। इसमें अभिजात्यमूलक प्रेम का विधान नहीं बल्कि शिलाखण्ड पर बैठ, ग्रीवा में बाहें झुलाने का सनातन प्रेम का विधान है। इनकी कविताऐं प्रेम का विस्तार लिए अनंत चेतना की यात्रा का अंतहीन सफर है ब्रह्म का असीम प्रदर्शन।


कविता की भाषा एवं प्रतिको में नयापन है तो उपमान और रूपकों का बहुत सुन्दर प्रयोग हुआ है।


याद के गहरे कुंएं से/ खीचकर घट एक/ सींचती पादप समय का/ समय यूं कटता गया/जब याद की चादर बिछायेंगे और विरह के वाण मीठे/ बींध वातायन हमें गुदगुदायेंगे।


काव्य कृति में यत्र- यत्र जड़- चेतन, जीव- ब्रह्म्, राग- वैराग्य जैसे जीवन के दुरूह दार्शनिक विमर्श की विद्यमानता के बावजूद भी कथ्य की प्रवाहमयता तथा भाव की रम्यता कहीं भी बाधित होती दृष्टिगोचर नहीं होती, अपितु नर्मदा की पवित्र जल धारा में अवस्थित शिवलिगों की भांति ही इस काव्यधारा को आध्यात्मिक स्पर्श प्रदान करते हैं।


सोचता हूं/नजर में देह के इस पार/या फिर देह में क्या छिपा है/सेतुबन्ध रहस्य तुम कौन/काम से इतर स्फुरण।
निरीह शान्त, निश्चल/सरसर पवन स्पर्श ज्यों कलि का घूंघट हटाता है/रूप है सिक्त रसमय।
कौन विखरा है धरा में/फूल में मकरंद भरकर/मंद झोंकों में हवा की/कौन हंसता है।


वस्तुतः मिलन, बिछोह, उल्लास, अवसाद, प्रेम, वासना और भोग की विभिन्न मानवीय भावनाओं में अवगाहन करते हुए रूढियों के बंधनों को तोड़कर नवीन सर्जना का प्रयास करती डा0 भटकोटी की कविताएं प्रकृति के बीच जीवन का उद्गीत गाती हुई सी लगती हैं। हृदय की भाव भूमि पर प्रकृति में बिखरी सौन्दर्य सत्ता की रहस्यमयी अनुभूति और स्वानुभूत सुख- दुखों को मिलाकर एक उत्कृष्ट काव्य सृष्टि की गयी है।


उन्नत शिखर/ शिखाखण्ड पर/बैठ मनु का मैं वंशज/देख रहा विस्तारित धरती/ व्यस्त व्यवस्थित गति/
संयम और विवेक का मधुर संचरण/समष्टि का आलोक सघन/चित्त समष्टि गहन- गहन/परम पुरुष अदृश्य मगर/
व्यक्ति से समष्टि से जुड़ा हुआ/ लहरों सा लहराता ज्यों/ अखिल सरिताओं में चेतन।


इस काव्य कृति के नायक राजा दुष्यंत का चरित्र चित्रण एक पराक्रमी राजा के रूप में हुआ है, जो आर्यवत्र्त की पताका का हिम शिखरों तक विस्तारित करने के लिए संकल्पिक होता है। उसका मानना है कि राजमुकुट प्रजा के विश्वास पर टिका होता है, वह अपने नृप धर्म के प्रति सदा सजग रहकर सर्वहित का ही चिन्तन करता है। उसके न्याय का आधार समभाव है। आर्यवत्र्त उसकी दृष्टि में ऐसा वट वृक्ष है-


छाॅव जिसकी/ इस छोर से उस छोर तक/ फैली हुयी है और जिस पर/ सर्वजन का अधिकार है।


इसी प्रकार कण्वाश्रम की शकुन्तला हिरणियों के साथ अठखेलियां करने वाली एक अल्हड़ पर्वत वाला के स्थान पर अपने तपस्वी पालक पिता कण्व की परम सत्य का संधान करती एक विदुषी दार्शनिक तपस्वनी पुत्री के रूप में चित्रित हुई है।
अन्ततः कहा जा सकता है। एक पुराण कथा को आज के युग धर्म के साथ पिरोकर प्रस्तुत की गयी डा0 भटकोटी की चिन्तन और चेतना की इस काव्य कृति का पैराणिक कथानक के माध्यम से यही अभीष्ट कथन लगता है-


युद्ध-शांति के क्रम विकास मेंराज व्यवस्था के अंकुर/पादप बन फलें फूले/ बागडोर थामें आर्यवत्र्त की/ चिन्तन के परम शिखर पर/ भरत करेगा उद्भासित अधिकार धरा का /पंच तत्व के चरम विधान को/जन मन में कर पुष्पित साम्य एक उभरेगा/संवर्धित कर धैर्य धरा का।


निश्चित ही काव्य कृति डा0 भटकोटी को बड़े कवियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देती है। मेरा निश्चित विश्वास है कि यह कृति उन्हें पर्याप्त यश प्रदान करने वाली सिद्ध होगी। यों तो डा0 भटकोटी समय समय में कविता लिखते रहे हैं, जो पत्र पत्रिकाओं में छपती भी रही हैं। लेकिन अपने महाविद्यालयी गुरूत्तर शैक्षणिक दायित्व से सेवा निवृत्ति के उपरान्त यह उनकी दूसरी प्रकाशित काव्य कृति हैं। इससे पूर्व उनकी ‘रेत में सोई नदी’ प्रकाशित हो चुकी है।