!!विचारों की अभिव्यक्ति में  लक्ष्मण रेखा खुद ही खींचनी होगी!!


महाराष्ट्र सरकार द्वारा रिपब्लिक भारत के पत्रकार अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी ने जाने-अनजाने पत्रकारिता जगत में एक ऐसे वैचानिक समुद्र-मंथन की शुरुआत की है,जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आत्ममंथन के दौर में तथ्य और कथ्य के बीच के सारे तंतु नदारद हैं।....


महाराष्ट्र सरकार द्वारा रिपब्लिक भारत के पत्रकार अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी ने जाने-अनजाने एक ऐसे समुद्र-मंथन की शुरुआत कर दी है,जो विष और अमृत को एक साथ उगलने का काम करेगा। ऐसा कहने का तात्पर्य है कि हम एक ऐसे अनूठे वक्त में रह रहे हैं,जहां तथ्य और कथ्य के बीच के तंतु नदारद हैं। आजकल आभासी कथानकों को तथ्य का जामा पहनाने की कोशिश की जाती है। इससे समाचार और कहानी का फर्क गड्ड-मड्ड हो गया है।
लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मीडिया खुद इस भेड़चाल का हिस्सा बन गया है। अगर कहां जाए तो ‘सच’ के नाम पर समाचारों ने विचार और अवधारणाओं के आवश्यक विभेद को भेद दिया है। अक्सर आर.भारत के पत्रकार अर्णव गोस्वामी टीवी स्क्रीन पर चीखते चेहरे अपने गढे़ हुए प्रतिमानों को बेहद आक्रामकता के साथ पेश करते हैं,ताकि उनका कहा हुआ आम आदमी के मानस पर चित्रित हो जाए। जिस कारण पत्रकारिता के खरे सिक्कों को इस समय अपनी ही टकसाल के खोटे सिक्कों से जूझना पड़ रहा है। कोई हैरत की बात नहीं कि पश्चिमी समाज विज्ञानी इस कुम्हलाए कालखंड को ‘उत्तर सत्य युग’ का दर्जा देते हैं।
पिछले दिनों घटित फिल्म अभिनेता  सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या का मामले में पहले कुछ सवाल उठाए गए। यह एक तरह से लंबे कथानक की भूमिका का रचा जाना था। फिर बिहार में एक एफआईआर दर्ज कराने के बाद मामला सीबीआई के हवाले कर दिया गया। नई दिल्ली में सीबीआई के प्रवक्ता इस मसले पर कोई फैसलाकुन बयान नहीं दे रहे थे, पर कुछ टीवी चैनल वादी, वकील और मुंसिफ की भूमिका एक साथ निभाने में जुटे थे। पुरानी कहावत है, रेत पर उकेरी गई तस्वीरों की उम्र लंबी नहीं होती। हत्या की इस थ्योरी के साथ यही हुआ।



अगर इस कथानक के दूसरा अध्याय  नजर गढायेशुरू तो अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को खलनायिका बनाने की कोशिश की गई। देश की दो अन्य आला एजेंसियां इन आरोपों की तफ्तीश में जुटीं परन्तु मामले में वे भी चुप थीं, टेलीविजन हर रोज नए-नए संधान कर रहा था। कभी मामला धनशोधन का बताया जाता, तो कभी ड्रग्स का। देखते-देखते राज्य सत्ता पर आसीन ठाकरे परिवार सहित सिने उद्योग के सबसे चमकते लोग भी इस गिरफ्त में आ गए। ऐसा लगा मानो समूचा बॉलीवुड नशेड़ी हो गया हो। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब इस 
दुष्प्रचार से हकबकाए अग्रणी फिल्म निर्माता,अभिनेता पत्रकारों द्वारा टीवी चैनलों पर सिनेजगत की प्रतिष्ठा धूमिल करने को रोकने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट की शरण में पहुंचे। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि जिन चैनलों को लेकर यह गुहार लगाई गई थी,उनमें रिपब्लिक भारत भी है। अर्णब गोस्वामी इसके प्रधान संपादक हैं और कंपनी के मालिकों में से एक हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि अर्णब और उनके जैसे कुछ अन्य लोगों ने भारतीय पत्रकारिता में एक खास किस्म का प्रयोग किया है। यह स्थापित मानदंडों के न केवल प्रतिकूल था, बल्कि बहुतों को आहत करने वाला भी था। उनकी पीढ़ी के कुछ अन्य लोगों ने भी सीमाएं लांघीं,परंतु उन्होंने सार्वजनिक संकोच के दायरे को कभी चुनौती नहीं दी। इसके विपरीत अर्णब सीना तानकर कहते थे कि मैं जो कह रहा हूं,जो कर रहा हूं, वह सही है।
अपनी बात को जायज ठहराने के लिए वह यह भी फरमाते थे कि मेरे चैनल की टीआरपी इसीलिए सबसे आगे है, क्योंकि लोग उसे पसंद करते हैं। यही वजह है कि मुंबई पुलिस ने जब टीआरपी में हेराफेरी के आरोप में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया, तब उन्होंने चीख-चीखकर कहा कि यह एक सियासी षड्यंत्र है। कुछ मीडिया घरानों के प्रधान संपादकों/संचालकों के नाम ले-लेकर उन्होंने चुनौतियों की मिसाइलें दागीं। वे यहीं नहीं रुके, उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और मुंबई के पुलिस कमिश्नर का नाम लेकर आरोप-वर्षा कर दी। पत्रकारिता में इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, पर वह बेपरवाह बने रहे। उनकी इसी अदा ने भारतीय पत्रकारिता को इस मोड़ पर ला खड़ा किया है,जहां हर राह चलता पत्रकारिता पर अंगुली उठा रहा है।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अर्णव की गिरफ्तारी ने समूचे मीडिया जगत को वैचारिक समुद्र-मंथन की राह की ओर धकेल दिया है। कुछ लोग इसे उद्धव ठाकरे सरकार की प्रतिशोधात्मक कार्रवाई करार दे रहे हैं, तो कुछ इसे आपराधिक मामला बताते हुए अभिव्यक्ति के सरोकारों से इसका नाता जोड़ने के खिलाफ हैं। यह एक सच्चाई है कि सच बोलना-लिखना आसान नहीं रह बचा है। पिछले वर्षों में ऐसे कई मामले सामने आए,पर उनमें अधिकतर आंचलिक पत्रकार थे। उन पर संगीन धाराएं थोपने वालों ने जो किया, उससे कहीं अधिक त्रासद मीडिया संगठनों की चुप्पी है। क्या न्याय और अन्याय पर सिर्फ कुछ सेलिब्रिटी संपादकों का हक है?
बताने की जरूरत नहीं कि हम विभाजित वक्त में जी रहे हैं। समूची दुनिया में भरोसे की कमी एक विभीषिका के तौर पर उभर रही है। हम अक्सर अपने देश के राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक हुक्मरानों को दोष देकर चुप बैठ जाते हैं, पर यह खुद को अर्द्धसत्य की मरीचिका में धकेलने जैसा है। अगर आपको मेरी बात पर विश्वास न हो, तो कृपया एक बार अमेरिका से आने वाले समाचारों और चित्रों पर गौर फरमा लीजिए। वहां अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव की मतगणना के दौरान जिस तरह की बहस हो रही थी, उसे जॉर्ज वाशिंगटन,अब्राहम लिंकन अथवा जॉन एफ केनेडी जैसे लोग सुन पाते, तो शर्म के मारे ही उनकी हृदय गति अवरुद्ध हो जाती। यही नहीं, मतगणना के दौरान जिस तरह हथियारबंद लोग खुलेआम सड़कों पर आतंक फैलाते दिखे, वह अभूतपूर्व था। सवाल उठता है कि क्या स्थापित सामाजिक मर्यादाएं और श्लीलताएं सिर्फ अतीत का हिस्सा बनकर रह गई हैं?
यही वजह है कि मैं इस एक गिरफ्तारी के बहाने आरंभ हुए वैचारिक समुद्र-मंथन का स्वागत करता हूं। अगर पत्रकारों को अपने काम में राज्य और उसकी मशीनरी का बेजा दखल रोकना है, तो उन्हें स्वयं अपनी लक्ष्मण रेखा की तारबंदी करनी होगी। यही नहीं, उन्हें इसकी निगहबानी भी खुद ही करनी होगी,क्योंकि पत्रकारीय मूल्यों पर अंदर और बाहर, दोनों तरफ से हमला जारी है। इसे रोकने की जिम्मेदारी भी पत्रकारों पर है। मीडिया के लिए यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आत्ममंथन का समय है।